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आलोक मेहता का ब्लॉग: एक देश-एक चुनाव, चिंतित होने की जरूरत नहीं

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: June 22, 2019 07:09 IST

पिछले चुनाव इस बात के प्रमाण हैं कि सरकारी खजाने से चुनाव आयोग के लगभग दस हजार करोड़ रुपए के अधिकृत खर्च के अलावा राजनीतिक पार्टियां और उम्मीदवार चुनावों में दो से पांच लाख करोड़ रुपया खर्च कर देते हैं. कुछ पार्टियों में तो केवल उम्मीदवार बनाने के लिए बीस से पचास करोड़ रुपए वसूल लिए जाते हैं.

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कारगिल की ऊंची हिम श्रृंखलाओं पर या 50 डिग्री से ऊपर के रेगिस्तानी आग जैसे रेतीले क्षेत्र में तैनात सिपाही क्या किसी भय से सुरक्षा की मांग करते हैं? किडनी, लीवर, हार्ट का अति संवेदनशील ऑपरेशन करने वाले अनुभवी डॉक्टर के हाथ क्या भय से कांपते हैं? हजारों फुट ऊंचाई पर विमान उड़ाने वाले क्या हवा-पानी, बादल के झटकों से घबराते हैं? विशालकाय पुल बनाने वाले इंजीनियर पुल के गिर सकने की संभावनाएं सोचकर क्या काम बंद कर देते हैं? नहीं, कभी नहीं. फिर सार्वजनिक जीवन में अपने कर्म-वचन पर भरोसा कर सकने वाले कई नेताओं की दुनिया के आदर्श लोकतांत्रिक भारत में लोकसभा-विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होने के प्रस्ताव मात्र पर घबराहट क्यों हो रही है?  

विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं ने 1952, 1957, 1962, 1967 में लोकसभा-विधानसभाओं के चुनाव में हार-जीत की परवाह किए बिना चुनाव लड़ा. विजय से सत्ता मिली या पराजय से फिर संघर्ष और सफलता के अनुभव मिले. किसी ने कभी कोई आपत्ति नहीं की. फिर अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा ‘एक देश, एक चुनाव’ के लिए व्यापक सहमति और चुनाव व्यवस्था में आवश्यक सुधार-संशोधन पर आशंकाएं-आपत्तियां क्यों उठनी चाहिए? वैसे भी उन्होंने अध्यादेश से रातोंरात परिवर्तन की बात नहीं कही. उन्होंने सर्वदलीय बैठक में विचार की पहल की. 

फिर भी कांग्रेस, सपा, बसपा, तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक और कम्युनिस्ट पार्टियों के नेताओं के साथ प्रगतिशील कहलाने वाले गैर राजनीतिक वर्ग ने भी गंभीर आशंकाएं-आपत्तियां व्यक्त कर दीं. बहस में शामिल होकर सकारात्मक सुझाव-सिफारिशें रखने के बजाय वे ऐसे किसी लोकतांत्रिक कदमों से संविधान की मूल संघीय भावना, क्षेत्रीय स्वायत्तता और अस्तित्व के खत्म होने, दो-तीन दलीय व्यवस्था या एक दलीय और एक नेतृत्व वाली तानाशाही तक के ‘खतरे’ बताने लगे हैं. यह क्या उनकी विचारधारा, सुविधा या कमजोरी है? राष्ट्रीय राजनीतिक दल हों अथवा क्षेत्रीय पार्टियां, क्या बार-बार के चुनाव के लिए हजारों करोड़ रुपया इकट्ठा  कर बहाने में सुख और संतोष का अनुभव करती हैं? 

चुनावों में बेतहाशा खर्च 

पिछले चुनाव इस बात के प्रमाण हैं कि सरकारी खजाने से चुनाव आयोग के लगभग दस हजार करोड़ रुपए के अधिकृत खर्च के अलावा राजनीतिक पार्टियां और उम्मीदवार चुनावों में दो से पांच लाख करोड़ रुपया खर्च कर देते हैं. कुछ पार्टियों में तो केवल उम्मीदवार बनाने के लिए बीस से पचास करोड़ रुपए वसूल लिए जाते हैं. फिर भले ही वह चुनाव हार जाए. पार्टी के शीर्ष नेताओं का खजाना अवश्य भर जाता है. कड़ी से कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बावजूद कुछ राज्यों में चुनावी हिंसा से लोग मारे जाते हैं. राजनीतिक दल सत्ता में हों या विपक्ष में, उनके कार्यकर्ताओं, पदाधिकारियों को पूरे साल किसी न किसी प्रदेश के चुनाव के लिए भागते-दौड़ते रहना पड़ता है. केंद्र या प्रदेशों के मंत्री पार्टी नेतृत्व के आदेशानुसार चुनावों के लिए अधिक सक्रिय रहकर अपने मंत्रलयों और विभागों के कामकाज पर कम समय दे पाते हैं. अर्धसैनिक बल तो निरंतर चुनावी ड्यूटी में लगे रहते हैं.

असली समस्या आचार संहिता की है. चुनाव से करीब तीन महीने पहले आचार संहिता लागू हो जाती है. इस कारण कुछ सरकारी निर्णय या तो जल्दबाजी में होते हैं अथवा महीनों के लिए लटक जाते हैं. फिर चुनाव के बाद नई सरकार, नए मंत्री, अधिकारियों के विभागों में परिवर्तनों से प्रशासनिक कामकाज ढर्रे पर लाने में तीन महीने लग जाते हैं. ताजा उदाहरण पिछले वर्ष के अंत में हुए मध्य प्रदेश विधानसभा के चुनाव और फिर इस वर्ष मई महीने तक हुए लोकसभा चुनाव के कारण स्कूली बच्चों की ई-लर्निग योजना में रुकावट आने का है. इस योजना के लिए कुछ जिलों में रोटरी क्लब ने अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से धनराशि भी जुटाई, लेकिन सरकारी स्कूलों के लिए सरकारी अनुमति और भागीदारी चाहिए थी. 

आचार संहिता और विकास कार्य 

दो वर्षो के प्रयास के बाद अंतिम चरण में क्रियान्वयन से पहले आचार संहिता लागू हुई. नतीजा यह हुआ कि क्रियान्वयन लगभग आठ महीने बाद जून-जुलाई में हो पा रहा है. इससे भी अधिक महत्वपूर्ण अस्पताल, सड़क, स्कूल, पुस्तकालय, आवास संबंधी पचासों प्रस्ताव और निर्णय राज्यों से लेकर केंद्र सरकार तक अटके रहे. सरकार को सेवा देने वाले गैर सरकारी संस्थानों, छोटे उद्यमियों द्वारा दी गई सेवाओं का भुगतान महीनों के लिए लटक गया. इससे उनकी ही नहीं अर्थव्यवस्था की गाड़ी भी अटक गई.

राजनीतिक दलों की एक चिंता समय से पहले लोकसभा विधानसभा चुनाव में बहुमत नहीं रहने, बड़े दलबदल और सरकारें गिरने के बाद की स्थिति को लेकर है. इसका उत्तर यह है कि कार्यकाल निश्चित होगा. यदि सांसद या विधायक स्वयं दुबारा चुनाव थोपेंगे, तो बचे हुए कार्यकाल के लिए चुनाव होंगे. वैसे इस संभावना को देखकर स्थिरता बने रहने की स्थिति अधिक रहेगी. इसमें कोई शक नहीं कि एक देश एक चुनाव के नए बदलाव के साथ चुनाव सुधार के कुछ अन्य महत्वपूर्ण प्रस्तावों पर भी संसद व सुप्रीम कोर्ट से स्वीकृति ले ली जाए, ताकि आपराधिक तत्वों और भारी चुनावी खर्चो पर भी अंकुश लग सके. यदि पार्टियां और उम्मीदवार निरंतर जनता की सेवा के लिए सक्रिय रहेंगे, तो कोई चुनावी बुखार उन्हें नहीं सताएगा.

 

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