सुषमा स्वराज का आकस्मिक महाप्रयाण हृदय विदारक है. वे विलक्षण वक्ता, उदारमना और उत्कृष्ट राजनेता थीं. पिछले 40-45 साल से उनका मेरा भाई-बहन का-सा संबंध था. जब 1998 में प्रधानमंत्री अटलजी ने सांसदों का प्रतिनिधिमंडल पाकिस्तान भेजा था तो उसमें सुषमाजी, मीराकुमार आदि भी हमारे साथ थीं.
उस समय की विरोधी नेता बेनजीर भुट्टो से मैंने सुषमाजी का परिचय कराया और कहा कि ये कुछ दिन पहले तक दिल्ली की वजीरे—आला (मुख्यमंत्री) थीं लेकिन किसी दिन आप दोनों अपने-अपने मुल्क की वजीरे-आजम (प्रधानमंत्री) बनेंगी.
बेनजीर उस संक्षिप्त मुलाकात से इतनी खुश हुर्इं कि जब वे दिल्ली आर्इं तो उन्होंने मुझे हवाई अड्डे से फोन किया और कहा कि आपकी ‘उस बहन’ से भी मिलना है. मैंने कहा कि आज उनका जन्मदिन है. बेनजीर एक गुलदस्ता लेकर सुषमाजी के घर पहुंचीं. सुषमाजी संघ की स्वयंसेवक नहीं थीं. वे मुझे अक्सर समाजवादी नेता मधु लिमयेजी के घर मिला करती थीं. लगभग 40 साल पहले जब वे देवीलालजी की सरकार में मंत्री बनीं तो वे मुझे एक हिंदी सम्मेलन का मुख्य अतिथि बनाकर गुड़गांव ले गर्इं. एक बार एक बड़े कवि सम्मेलन की अध्यक्षता करने के लिए मुझे वे नारनौल ले गर्इं. पूरी रात कवि सम्मेलन चला. उन्होंने अपने धन्यवाद भाषण में हर कवि की कविता की पहली दो पंक्तियां बिल्कुल क्र मवार बिना कागज देखे दोहरा दीं. मैं दंग रह गया.
मैंने मन में सोचा कि वह तो अद्वितीय प्रतिभा की धनी हैं. मैंने सुषमा जैसा कोई और व्यक्ति आज तक देखा ही नहीं. प्रदर्शनों, सभाओं और गोष्ठियों में वे हमेशा बढ़-चढ़कर भाग लेती थीं. उनका स्वभाव इतना अच्छा था कि विरोधी दलों के नेता भी उनका सम्मान करते थे. उन्होंने देश के सूचना मंत्री और विदेश मंत्री के तौर पर कई अनूठे कार्य किए. सुषमा स्वराज और शीला दीक्षित, दोनों का लगभग एक साथ जाना भारतीय राजनीति की अपूरणीय क्षति है