एन. के. सिंह का ब्लॉग: लोकतंत्न की जड़ें खोखली करता जातिवाद

By एनके सिंह | Published: May 4, 2019 06:22 AM2019-05-04T06:22:31+5:302019-05-04T06:22:31+5:30

आज से ठीक 100 साल पहले दुनिया के जाने-माने भारतविद और आईसीएस विन्सेंट स्मिथ को शायद यह हकीकत सबसे अधिक मालूम थी. शायद उनको यह भी अहसास था कि प्रजातंत्न में फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट चुनाव पद्धति और आधुनिक शिक्षा जातिवाद को चरम स्तर तक सौदेबाजी करने से नहीं रोक पाएगी (आजादी के समय भारत की साक्षरता मात्न 12 प्रतिशत थी, आज 68 प्रतिशत है).

NK Singh Blog: Racism Hollowing the Roots of Democracy | एन. के. सिंह का ब्लॉग: लोकतंत्न की जड़ें खोखली करता जातिवाद

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फाइल फोटो।

प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी को वर्तमान चुनाव प्रचार के बीच में ही बताना पड़ा कि वह अति-पिछड़ी जाति से हैं और मायावती को उसका प्रतिकार करते हुए कहना पड़ा कि मोदी झूठ बोल रहे हैं, वह उच्च जाति से हैं. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को भी गुजरात चुनाव के दौरान मंदिर-मंदिर जाना पड़ा और राजस्थान में अपना जनेऊ दिखाना पड़ा. यह स्थिति करीब सात दशक पुराने प्रजातंत्न के अभ्यास के बाद है. संकेत हैं कि इस चुनाव परिणाम के बाद देश में जातिवादी दलों का (जिन्हें राजनीतिक शालीनता में क्षेत्नीय पार्टियां या सामाजिक न्याय की ताकतें भी कहते हैं) प्रभाव केंद्र की सत्ता में बढ़ेगा, भले ही वह गठबंधन सहयोगी के रूप में हो या तीसरी ताकत के रूप में.

आज से ठीक 100 साल पहले दुनिया के जाने-माने भारतविद और आईसीएस विन्सेंट स्मिथ को शायद यह हकीकत सबसे अधिक मालूम थी. शायद उनको यह भी अहसास था कि प्रजातंत्न में फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट चुनाव पद्धति और आधुनिक शिक्षा जातिवाद को चरम स्तर तक सौदेबाजी करने से नहीं रोक पाएगी (आजादी के समय भारत की साक्षरता मात्न 12 प्रतिशत थी, आज 68 प्रतिशत है). आज दुनिया अचंभित है कि क्यों भारत में पिछले 39 वर्षो में जातिवादी शक्तियों/ दलों का वर्चस्व इस हद तक बढ़ा है कि आज दोनों राष्ट्रीय दलों को सिर झुका कर चुनावी समझौते करने पड़ रहे हैं? क्यों पिछले दो दशकों से हिंदूवादी और राष्ट्रीय विचारधारा वाली भाजपा और 130 साल पुरानी खुद को धर्म-निरपेक्ष पार्टी कहने वाली कांग्रेस के संयुक्त मत कुल मतों का मात्न 50 प्रतिशत हो पाते हैं जबकि आधे से ज्यादा मत इन क्षेत्नीय दलों को मिलते हैं?  

आज से 166 साल पहले सन 1853 में इंग्लैंड में ‘ले बास’ पुरस्कार श्रृंखला में पहला अवार्ड जीतने वाले लेख में बताया गया था कि भारत में जातिवाद उसी दिन खत्म हो जाएगा जिस दिन धर्म-निरपेक्ष ब्रितानी शिक्षा पद्धति लागू की जाएगी और वैज्ञानिक सोच विकसित करते हुए संपर्क के आधुनिक साधन मुहैया कराए जाएंगे यानी रेल और सड़क. लेखक ने आगे बताया कि जब ब्राrाण और दलित दोनों उसी ट्रेन के डिब्बे में एक-दूसरे से  सट कर यात्ना करेंगे तो सामाजिक स्तरीकरण का भाव स्वत: खत्म हो जाएगा. 
इसके बाद ब्रिटेन की संसद में सन 1919 में एक रिपोर्ट आई और उसके साथ ही ‘महान उद्घोषणा’ जिसमें भारत को धीरे-धीरे स्व-शासन की ओर ले जाने की प्रतिबद्धता ब्रिटिश संसद ने बताई. वहां के विदेश मंत्नी मोंटेग्यू और भारत के वाइसराय चेम्सफोर्ड ने इसे संवैधानिक सुधार की संज्ञा दी और इसी से भारत सरकार अधिनियम, 1919 बना व आजादी का मार्ग प्रशस्त हुआ. इस रिपोर्ट की पेज संख्या 123 और पैरा 149 में कहा गया था कि जैसे ही भारतीय समाज को स्व-शासन दिया जाएगा वैसे ही ये जाति और धर्म जैसे संकीर्ण भाव का तमगा जो अपने कंधे पर लादे घूमते हैं, उतार कर भाईचारे के भाव से रहने लगेंगे. ये रिपोर्ट बनाने वाले विद्वान शायद असली भारत से अनभिज्ञ थे. 

इनकी मूर्खतापूर्ण आशावादिता पर स्मिथ ने एक किताब लिखी और बताया कि अपने 50 साल के भारतविद के ज्ञान के आधार पर और अपने आईसीएस के 29 साल के कलेक्टर और कमिश्नर के रूप में देश के विभिन्न क्षेत्नों में हासिल शासकीय अनुभव के आधार पर कह सकते हैं कि भारत के लोगों के लिए जाति कोई बैज नहीं है जो अपने कंधे पर पहचान के लिए लादे रहते हैं. यह उनकी अस्थि-मज्जा के रूप में है और आत्मा के अस्तित्व के रूप में है जिसे खत्म नहीं किया जा सकता. शायद स्मिथ आज भी सही साबित हो रहे हैं.  

अगर आप किसी सड़क पर चलते आदमी से या पोलिंग बूथ में लाइन में खड़े वोटर से पूछेंगे कि मतदान के लिए क्या मुख्य मुद्दे हैं तो वह कहेगा ‘विकास, स्वास्थ्य, शिक्षा, सफाई या रोजगार’. पर वह सच नहीं बोल रहा है या उसे लगता है कि यही जवाब दिया जाता है. लेकिन भारत में जातिवादी दलों का वर्चस्व आजादी के बाद से लगातार बढ़ता गया है. और 1984 में जहां इनको 11.2 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे, मंडल कमीशन लागू होने के बाद से आज तक इनका मत प्रतिशत में हिस्सा लगातार 50 प्रतिशत से ज्यादा रहा है और ऐसा माना जा रहा है कि वर्तमान चुनाव में यह और भी बढ़ेगा, न केवल मत प्रतिशत के रूप में बल्कि सांसदों की संख्या के रूप में भी. इस का कारण है दोनों प्रमुख राष्ट्रीय दलों की दलितों और पिछड़ों को विश्वास में लेने में असफलता और सशक्तिकरण की ‘झूठी चेतना’ के प्रति उन्हें शिक्षित न करना. देश के पहले चुनाव में जहां क्षेत्नीय दलों का संसद में प्रतिनिधित्व मात्न 7.2 प्रतिशत था, आज बढ़कर 32 फीसदी हो चुका है.  

इतिहासकार विन्सेंट स्मिथ का मानना था कि जहां यूरोपीय समाज में व्यक्ति इकाई होता है वहीं भारतीय समाज में परिवार. इन्हीं परिवार - समूहों से बनती है जाति-व्यवस्था और उनके नियमों की अभेद्य दीवार. 

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