एनके सिंह का नजरियाः मीडिया में स्व-नियमन बेहद जरूरी

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: August 4, 2018 04:56 AM2018-08-04T04:56:43+5:302018-08-04T04:56:43+5:30

राजनीतिक दलों के ये प्रवक्ता यह जानते हैं कि अगर उनके नेता को किसी ने गलत कहा तो गला फाड़ कर चिल्लाने से उनके नेता को भी लगेगा कि ‘जोरदार ’ प्रवक्ता है और अगली बार शायद राज्यसभा की सदस्यता या मंत्रीपद मिल जाए। 

NK Singh blog on Self regulations of Media | एनके सिंह का नजरियाः मीडिया में स्व-नियमन बेहद जरूरी

एनके सिंह का नजरियाः मीडिया में स्व-नियमन बेहद जरूरी

एन. के. सिंह  

पिछले एक महीने में देश के तीन तथाकथित ‘नेशनल’ न्यूज चैनलों में प्राइम टाइम स्टूडियो डिस्कशन के दौरान अजीब घटनाएं हुईं जिसे मीडिया की गरिमा पर एक भारी और स्थायी आघात कहा जा सकता है। पहली घटना में लाइव शो में एक पैनलिस्ट की उनके ही समुदाय की एक महिला पैनलिस्ट के साथ मारपीट हुई। दरअसल डिस्कशन के दौरान गुस्से में दोनों खड़े हो गए और पहले  महिला ने पुरुष पैनलिस्ट को चांटा मारा और फिर पुरुष ने तीन-चार थप्पड़ महिला को। दूसरी घटना में एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल के प्रवक्ता ने एक चैनल के लाइव शो के दौरान एंकर को ‘भ..ड..वा’  और ‘द..ला..ल’ कहा। तीसरी घटना में चैनल के तथ्य एक राष्ट्रीय दल के नेता के बयान को लेकर गलत थे लिहाजा उसके प्रवक्ता ने भी लाइव शो में चैनल को एक दल का भोंपू कहा और एंकर को जमीर बेच कर काम करने का दोषी बताया।

हिकारत ही नहीं, घृणा का भाव इन दोनों प्रवक्ताओं के चेहरे पर साफ दिखाई दे रहा था। इन्हें यह सब कहने का अधिकार कतई नहीं था। लाइव शो की एक मर्यादा होती है आचार संहिता होती है और हर पैनलिस्ट को अलिखित रूप से ही सही उससे बंधे रहना पड़ता है। इस राष्ट्रीय पार्टी के शीर्ष नेताओं को इसका संज्ञान लेना होगा और ऐसा दंड देना होगा जो आगे के लिए भी नजीर रहे। प्रजातंत्न में विरोध (मन में घृणा का रख कर भी) कर तो सकते हैं पर उसे स्थापित व्यावहारिक समसामयिक मानदंडों को ठेंगा दिखाते हुए जन-धरातल पर नहीं ला सकते। नाराजगी या घृणा की अभिव्यक्ति के लिए किसी भी संस्था का बहिष्कार करना या उसके खिलाफ प्रदर्शन करना तक मान्य है लेकिन अपशब्दों का प्रयोग या हाथापाई भारतीय दंड विधान में अपराध की श्रेणी में आता है।
 
इसका एक और पहलू भी है। राजनीतिक दलों के ये प्रवक्ता यह जानते हैं कि अगर उनके नेता को किसी ने गलत कहा तो गला फाड़ कर चिल्लाने से उनके नेता को भी लगेगा कि ‘जोरदार ’ प्रवक्ता है और अगली बार शायद राज्यसभा की सदस्यता या मंत्रीपद मिल जाए। नेता को इससे मतलब नहीं कि कितने तार्किक और विश्वसनीय तरीके से प्रवक्ता ने पार्टी या नेता का पक्ष रखा। दरअसल यही वजह है कि राजनीतिक दलों के अधिकांश प्रवक्ता विषय को न तो पढ़ कर आते हैं न ही उनके नेता को इसकी जरूरत महसूस होती है। वैसे हकीकत यह है कि एंकर भी अपने विषय से वाकिफ उतना ही होता है जितना पीसीआर से प्रोडय़ूसर उसके इयरफोन में बताता है। अगर दो दलों के प्रवक्ताओं ने आपस में ‘तेरा नेता , मेरा नेता’  शुरू कर दिया और स्टूडियो का तापमान बढ़ गया तो यह एंकर की सफलता मानी जाती है और प्रोडय़ूसर एंकर के कान में कहता है ‘इसे ताने रहो’। कोई ताज्जुब नहीं कि उपरोक्त तीन घटनाओं में जब प्रवक्ता एंकर और उसके चैनल को असंसदीय शब्दों से नवाज रहा हो तो सारा का सारा पीसीआर खुश हो रहा हो और एंकर से कान में कह रहा हो ‘ताने रहो’, अबकी हफ्ते की टीआरपी में प्रतिस्पर्धी पानी मांगेगा। 

आपने सोशल मीडिया पर एक वीडियो देखा होगा जिसमें बारिश की त्नासदी की खबर पर एंकर कुछ पढ़ रही है और पीछे से सहयोगी की आवाज आती है कि ‘इसी खबर पर टीआरपी आएगी’। शायद उसका माइक ऑडियो पीसीआर ने डाउन नहीं किया था। आज भारत का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपनी ‘लानत’ पर भी खुश होता है क्योंकि टीआरपी आती है। समाज सुधारने के दायित्व से विमुख होते हुए आज हम कहां तक गिर गए हैं! और सबसे खतरनाक बात यह है कि कोई पार्टी या उसके प्रवक्ता एक या कुछ चुनिंदा चैनलों को अपशब्द कह रहे हैं इनके एंकरों को लाइव शो में गाली दे रहे हैं लेकिन एक दिन भी दो सेल्फ रेगुलेटरी संगठनों में किसी ने भी चर्चा नहीं की कि क्या अपने को बदलने की जरूरत है या इन दलों के लीडरों को सख्त चेतावनी दी जाए।
      
शाम को स्टूडियो डिस्कशन जिस सिद्धांत पर आधारित है वह है : किसी भी समुन्नत प्रजातंत्न में मुद्दों पर जिसमें सरकार के कामकाज भी शामिल हैं, जन-संवाद की जमीन तैयार करना ताकि आम जन उस पर अपनी राय बना सकें। इन्हीं राय समूहों से जनमत बनता है जो किसी देश का राजनीतिक भविष्य हर पांच साल पर तय करता है। न्यूज मीडिया प्रतिस्पर्धी विचारधाराओं के आदान-प्रदान की जमीन तैयार करता है और तथ्यों को जनता के बीच लाकर अपनी निष्पक्ष व्याख्या करता हुआ प्रजातंत्न को मजबूत करता है। लेकिन क्या भारतीय मीडिया यह सब कुछ कर पा रहा है? अगर नहीं तो क्या स्व-नियमन दम तोड़ रहा है? 

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Web Title: NK Singh blog on Self regulations of Media

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