एन. के. सिंह का ब्लॉग: देश को आर्थिक संकट के इस दौर से निकालना पूरी तरह से सरकार पर निर्भर है

By एनके सिंह | Published: December 20, 2019 11:12 PM2019-12-20T23:12:18+5:302019-12-20T23:13:54+5:30

अर्थव्यवस्था के तीनों क्षेत्न - कृषि एवं संबंधित क्रियाएं, विनिर्माण और सेवा क्षेत्न में गिरावट बनी हुई है. रोजगार के अवसर कम होने से बेरोजगार युवाओं की संख्या बढ़ती जा रही है जो सरकार की ही कम से कम तीन रिपोर्टो से जाहिर है. इसका कारण विनिर्माण क्षेत्न का कमजोर होना है क्योंकि लोग निवेश नहीं कर रहे हैं.

nk singh blog: government should decide how indian economy will stable and strength | एन. के. सिंह का ब्लॉग: देश को आर्थिक संकट के इस दौर से निकालना पूरी तरह से सरकार पर निर्भर है

एन. के. सिंह का ब्लॉग: देश को आर्थिक संकट के इस दौर से निकलना सरकार पर निर्भर है

Highlightsदेश में कानून व्यवस्था, आंदोलन और अशांति के कारण सेवा-क्षेत्न में अपरिहार्य सुस्ती देखी जा सकती है. निवेशकों को भरोसा है कि सरकार स्थिति बेहतर करने के लिए आने वाले बजट में कुछ नए उपाय करेगी जैसे कि उद्योगों को नई छूट या जीएसटी का सरलीकरण.

इसमें कोई दो राय नहीं कि सभी पैरामीटर्स चीख-चीख कर यह संकेत दे रहे हैं कि भारत आर्थिक संकट की चपेट में है और यह संकट बढ़ सकता है. दुनिया की हर मकबूल संस्था ही नहीं सरकार का अपना आकलन और रिजर्व बैंक की रिपोर्ट सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि दर में गिरावट के संकेत के साथ खतरे की घंटी बजा चुकी है.

अर्थव्यवस्था के तीनों क्षेत्न - कृषि एवं संबंधित क्रियाएं, विनिर्माण और सेवा क्षेत्न में गिरावट बनी हुई है. रोजगार के अवसर कम होने से बेरोजगार युवाओं की संख्या बढ़ती जा रही है जो सरकार की ही कम से कम तीन रिपोर्टो से जाहिर है. इसका कारण विनिर्माण क्षेत्न का कमजोर होना है क्योंकि लोग निवेश नहीं कर रहे हैं.

देश में कानून व्यवस्था, आंदोलन और अशांति के कारण सेवा-क्षेत्न में अपरिहार्य सुस्ती देखी जा सकती है. उधर आमजन से लेकर संपन्न वर्ग तक के लिए खाने में प्रमुख सब्जियों - आलू, प्याज के भाव आसमान छू रहे हैं. दूध के दाम में वृद्धि जो आमतौर पर गर्मियों में होती थी, अचानक पिछले हफ्ते कर दी गई और वह भी दो से तीन रुपए प्रति लीटर.

उपभोक्ता मूल्य सूचकांक बेतहाशा ऊपर भाग रहा है. तो क्या माना जाए कि 137 करोड़ आबादी वाला यह देश, जो दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और जिसे वर्तमान मोदी सरकार अगले चार वर्षो में 2.83 ट्रिलियन डॉलर से लगभग दूना करते हुए पांच ट्रिलियन डॉलर का बनाने का दावा कर रही है, आर्थिक मंदी के गहरे दलदल में फंसने जा रहा है?

तो फिर जब 2008-09 में ऐसे ही संकट से अमेरिका और यूरोप ही नहीं पूरी दुनिया जूझ रही थी तो भारत कैसे इससे लगभग अछूता रहा? कैसे इस कालखंड में युवाओं को सबसे ज्यादा रोजगार मिले और कैसे आर्थिक विकास माइक्रो और मैक्रो पैरामीटर्स पर भी बेहतर प्रदर्शन करता रहा? आज भी इसका पुनर्प्रदर्शन देखने में आता है जब अर्थशास्त्रियों के अनुसार सारे मैक्रो-इकोनॉमिक पैरामीटर्स नीचे जा रहे हों, सेंसेक्स और निफ्टी असाधारण रूप से ऊपर भाग रहे हों.

शायद निवेशकों को भरोसा है कि सरकार स्थिति बेहतर करने के लिए आने वाले बजट में कुछ नए उपाय करेगी जैसे कि उद्योगों को नई छूट या जीएसटी का सरलीकरण. मैक्रो-इकोनॉमी के नीचे आने के संकेत के बावजूद मोतीलाल ओसवाल वेल्थ क्रिएशन रिपोर्ट, 2019 के अनुसार पिछले पांच वर्षो में देश की पूंजी पैदा करने वाली 100 प्रमुख कंपनियों ने 49 लाख करोड़ रु. का पूंजी-निर्माण  किया है.      

जरा बेबाकी से सोचें. किसानों को अगर आलू, प्याज के बढ़े दामों में 50 फीसदी भी मिल सके और अगर यही स्थिति दूध की दरों में अचानक हुई वृद्धि में भी हो तो उनकी क्र य शक्ति बढ़ेगी और वे अपनी जरूरियात के सामान खरीदना शुरू कर देंगे जिससे उद्योग उत्पादन में लग जाएंगे और तब युवाओं को रोजगार मिलना शुरू हो जाएगा और उनकी भी क्रयशक्ति बढ़ेगी जिससे और उत्पादन होगा.

नतीजतन मकान खरीदने और बनाने का काम चलेगा या घरेलू पर्यटन बढ़ेगा और फिर यह देश आर्थिक मंदी की दलदल से निकल जाएगा. लेकिन इसके लिए सरकार की भूमिका क्या होगी? वह यह कि इन बढ़ी कीमतों का लाभ किसानों तक पहुंचाने के प्रयास करे जो अभी सुस्त पड़े हैं. हां, इसमें राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है. कीमतें बढ़ें लेकिन वे जखीरेबाज व्यापारियों की जेब में न जाकर किसानों को मिलें.

उसी तरह उपभोक्ता मूल्य सूचकांक बढ़ने से संभव है शहरी उपभोक्ता नाराज हों लेकिन किसान खुश होगा. चूंकि अभी आम चुनाव नहीं हैं और सरकार पूरी तरह मजबूत है लिहाजा राजनीतिक तराजू को किनारे रख कर इस संकट का समाधान खोजे.  

यहां कुछ तथ्य बताना जरूरी है. भारत दूध और सब्जियों के उत्पादन में दुनिया में अव्वल है. यहां तक कि दो साल पहले दूध का कुल उत्पादन अनाज के कुल उत्पादन से ज्यादा हो गया. लेकिन चूंकि सब्जियों के बढ़े दाम में केवल एक-तिहाई ही किसानों को मिलता है लिहाजा आज जरूरत है कि सरकार प्याज, आलू की कीमतों का कम से कम 50 से 60 प्रतिशत किसानों को दिलवाए.

सब्जियों और अनाज बेचने के लिए किसानों को मंडी की शोषणकारी व्यवस्था से गुजरना होता है जबकि दूध के लिए ऐसी कोई कानूनी पाबंदी नहीं है लिहाजा दूध की कीमत बढ़ती है तो उसका 60 से 70 प्रतिशत हिस्सा दूध बेचने वाले किसान को मिलता है.

कृषि विशेषज्ञों की तीन प्रमुख मांगें हैं-कृषि उत्पादों को जीएसटी से बाहर किया जाए, प्रधानमंत्नी फसल बीमा योजना को बेहतर बनाया जाए और न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण कृषि भूमि के किराये को शामिल करने के बाद किया जाए.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि बेरोजगारी बढ़ी है. कोई कारण नहीं कि जब कृषि का क्षेत्न इस साल घट गया हो तो उसमें लगे लोगों की संख्या बढ़ जाए. यह स्पष्ट संकेत देता है कि शहरों में रोजगार खत्म होने के कारण लोग फिर गांवों की ओर जा रहे हैं. मनरेगा में बढ़ती युवाओं की संख्या भी इस तथ्य को पुष्ट करती है.

लिहाजा मोदी सरकार की सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए कि कृषि में लगे लोगों की जेब में पैसे डाले ताकि वे खर्च करें और उद्योग फिर से जिंदा हो जाएं. उद्योगों को भी सहज कर्ज और कर में छूट देना होगा तभी इस संकट से उबर सकेंगे.

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