एन. के. सिंह का ब्लॉग: किसानों की कमर तोड़ सकती हैं गलत नीतियां
By एनके सिंह | Published: June 26, 2020 11:33 AM2020-06-26T11:33:17+5:302020-06-26T11:33:17+5:30
बिहार के गया जिले के एक गांव में एक महिला ने अपने तीन बच्चों के साथ जहर खा लिया. वह और उसकी एक बेटी मर गए लेकिन एक बेटा और एक बेटी मौत से जूझ रहे हैं. कारण : पति लॉकडाउन में दूसरे राज्य में काम न मिलने के कारण घर आया और खेती करने लगा जबकि पत्नी उसके फिर से बाहर जाकर कमाने पर जोर दे रही थी. जाहिर है पत्नी जानती थी कि खेती या गांव में रह कर वह पांच लोगों का पेट नहीं पाल सकेगा. उधर प्रधानमंत्नी ने 50 हजार करोड़ रु. दे कर ‘गरीब कल्याण रोजगार अभियान’ शुरू किया, यह कहते हुए कि इससे शहरों से वापस हुई ‘प्रतिभाओं’ को उनके घर के पास रोजी दे कर ग्रामीण भारत का विकास किया जाएगा. इस योजना में मात्न 202 रुपए रोजाना मजदूरी मिलती है और वह भी साल में मात्न 100 दिन.
लोकसभा में सरकार द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार वर्ष 2018-19 में देश भर में श्रमिकों को केवल 51 दिन ही काम मिला. क्या सरकार को यह समझ है कि साल में मात्न दस हजार रु. की कमाई (हर माह करीब 800 रु. की आय) पांच लोगों को गरीबी की किस स्थिति में ला देगी? केरल, पंजाब या दिल्ली में उसी मजदूर को रोजाना 600 से 800 रु. मिलते हैं. एक आंकड़े से किसानों की दुर्दशा समझ में आएगी. सन 1970 में गेहूं का समर्थन मूल्य 76 रु. प्रति क्विंटल था और 50 साल बाद बड़ी जद्दोजहद के बाद 1930 रु. यानी 25.3 गुना हुआ. इसी कालखंड में केंद्रीय कर्मचारियों की आय 140 गुना, अध्यापकों की 330 से 400 गुना, कॉर्पोरेट सेक्टर के मध्यम मैनेजमेंट की 420 से 1200 गुना बढ़ी. गैर-अनाज उपभोक्ता सामान की कीमतें बेतहाशा बढ़ीं. लिहाजा किसानों को अपनी जरूरतों के लिए, बच्चे की शिक्षा और स्वास्थ्य पर आज लगभग 500 गुना ज्यादा खर्च करना पड़ता है. वह महिला इस बात से वाकिफ थी कि खेती पर परिवार को जिंदा रखना मुश्किल होगा. अगर सरकार को वाकई ग्रामीण भारत के विकास में दिलचस्पी है तो अनाज का समर्थन मूल्य बढ़ाना होगा ताकि खेती लाभ का व्यवसाय बने. लेकिन सरकार इस डर से अनाज के मूल्य नहीं बढ़ने देती कि इससे मध्यम वर्ग नाराज होगा और महंगाई बढ़ेगी तो सरकार पर दबाव पड़ेगा.
सरकार के पास दो ही विकल्प हैं - या तो खेती को लाभकारी बनाए या मजदूरों के बाहर जाने पर आय, आवास व आजीविका सुरक्षित करे. अगर सरकार उनकी ‘प्रतिभा’ की इतनी कायल है तो उनके जीवन को बेहतर बनाना भी भारत के विकास के लिए अपरिहार्य होगा.
देश की राजधानी दिल्ली में परवल 50-60 रु. किलो बिक रही है जबकि बिहार की राजधानी पटना में दस रुपए किलो. यानी इस बड़ी कीमत का लाभ किसानों को नहीं, बिचौलियों को मिल रहा है क्योंकि देश के किसानों के पास आज भी ‘कोल्ड–चेन’ की व्यवस्था नहीं है. दूध-उत्पादक किसान लॉकडाउन के बाद से लगातार गिरते रेट से बेहाल हैं. देश की सबसे बड़ी आबादी वाला उत्तर प्रदेश, जो सबसे बड़ा अनाज उत्पादक भी है, राज्य सरकार की अकर्मण्यता के कारण इस सीजन में निर्धारित लक्ष्य का 45 प्रतिशत अनाज भी किसानों से नहीं खरीद पाया है. उधर देश में आबादी के हिसाब से दूसरा सबसे बड़ा राज्य बिहार भी प्रशासनिक अक्षमता के कारण अनाज की खरीद में पीछे है. लेकिन उत्साहवर्धक बात यह है कि अन्य राज्यों ने अद्भुत क्षमता दिखाते हुए अनाज की रिकॉर्ड खरीद की है. गरीबी में आटा गीला करते हुए भारत सरकार ने अजीब असंवेदनशीलता के तहत दूध और मक्के सहित कई जिंसों के आयात का फैसला किया है, वह भी आयत-शुल्क 50 फीसदी से घटा कर 15 फीसदी करते हुए.
हाथों में पैसे के अभाव के कारण लॉकडाउन के दौरान खपत कम होने लगी. चूंकि दूध के भंडारण का कोई मुकम्मल इंतजाम नहीं है, लिहाजा किसानों के लिए कम कीमत पर दूध बेचना मजबूरी बन गया. नतीजतन, दूध आधे दामों पर बिकने लगा. आज कोआपरेटिव डेयरियों के पास करीब 1.25 लाख टन पाउडर-दूध का स्टॉक है और अब गर्मी भी खत्म होने लगी है, लिहाजा आगे इसकी खपत की गुंजाइश कम है. ऐसे में सरकार का 10000 मीट्रिक टन दूध पाउडर आयात का फैसला भारतीय डेयरी में लगे लोगों की ही नहीं, किसानों की भी कमर तोड़ने वाला है.
यही स्थिति मक्के को लेकर हुई. बिहार देश के कुल मक्का उत्पादन (60-70 लाख टन) का 80 फीसदी पैदा करता है लेकिन इस समय मक्के का भाव पिछले साल के 2000-2400 रु पए प्रति क्विंटल से घट कर 1000-1200 रह गया है. ऐसे में केंद्र सरकार का पांच लाख टन मक्का आयात करने का फैसला बिहार के पहले से ही गरीब किसानों के लिए एक बड़ा झटका होगा. सरकारी मशीनरी की अकर्मण्यता का यह आलम है कि मक्के का समर्थन मूल्य कहने को तो 1760 रु . प्रति क्विंटल है लेकिन बहुत कम मक्का ही सरकारी खरीद के जरिये यानी 1760 रु. प्रति क्विंटल के भाव में किसान बेच सके. उधर सरकारी खरीद के अभाव में चालाक आढ़तियों ने खुले बाजार में मक्के की कीमत जमीन पर ला दी. यह भी पता चला है सरकार ने तिलहन के आयात का भी फैसला लिया है. वैसे सरकार का अपने बचाव में कहना है कि यह आयात व आयात शुल्क में कटौती वैश्विक टैरिफ रेट कोटा स्कीम के अपरिहार्य प्रावधान के तहत की गई है.
केंद्र सरकार ने रिकॉर्ड खरीद के जरिये किसानों के हाथ करीब 1.16 लाख करोड़ रु. पहुंचाए हैं और किसान सम्मान निधि के 2000 रु. की किस्त व मनरेगा में काम से स्थिति कुछ बेहतर होगी. पर जब तक कृषि को लाभकारी नहीं बनाया जाता, किसान इसी तरह प्रवासी मजदूर बनता रहेगा और पुख्ता कानून के अभाव में लॉकडाउन में घर की ओर हर तकलीफ ङोलते हुए भागेगा. इन मजदूरों के सस्ते श्रम से उद्योगों को लाभ मिलता है, लिहाजा सरकार-उद्यमी इनके लिए मुकम्मल नौकरी, रहने की व्यवस्था और स्वास्थ्य सुविधाएं दें, तभी उद्योगों को भी श्रमिकों की शाश्वत आपूर्ति बनी रहेगी और गांवों पर आबादी का भार कम होगा.