एन. के. सिंह का ब्लॉग: आर्थिक विकास केवल कृषि से ही संभव

By एनके सिंह | Published: May 19, 2020 12:56 PM2020-05-19T12:56:11+5:302020-05-19T12:56:11+5:30

ये अर्थशास्त्री अलग-अलग गुणक को तरजीह देकर ऐसे निष्कर्ष पर पंहुच रहे हैं. लेकिन शायद उन्हें ग्रामीण भारत में हो रहे एक नए परिवर्तन का अहसास नहीं है जो करोड़ों प्रवासी मजदूरों के गांवों में पहुंचने से हुआ है.

N. K. Singh's blog: Economic development is possible only through agriculture | एन. के. सिंह का ब्लॉग: आर्थिक विकास केवल कृषि से ही संभव

एन. के. सिंह का ब्लॉग: आर्थिक विकास केवल कृषि से ही संभव

अगर अमल में पूरी तरह आ सकें और अफसरशाही के परंपरागत उंनीदेपन और भ्रष्टाचार का शिकार न हों तो सरकार द्वारा घोषित योजनाएं कृषि क्षेत्र में व्यापक और चिर-अपेक्षित सुधार का आगाज कर सकती हैं. और देश कोरोना संकट से न केवल उबर सकता है बल्कि दुनिया में नई भूमिका निभा सकता है.

परंपरागत वी-आकृति की आर्थिक रिकवरी के मायने हैं - जितनी तेजी से ह्रास हुआ उससे अधिक तेजी से अर्थ-व्यवस्था मजबूती पक ड़े. कुछ अर्थशास्त्री यह मान रहे हैं भारत में इसी आकृति के ग्राफ के साथ बदलाव होगा जबकि कुछ मानते हैं यह एल-आकृति का यानी लंबे ठहराव और फिर बेहद धीमी गति से होगा. एक तीसरा वर्ग है जिसके अनुसार यह यू-आकृति वाला होगा यानी कुछ ठहराव के बाद तेजी. 

ये अर्थशास्त्री अलग-अलग गुणक को तरजीह देकर ऐसे निष्कर्ष पर पंहुच रहे हैं. लेकिन शायद उन्हें ग्रामीण भारत में हो रहे एक नए परिवर्तन का अहसास नहीं है जो करोड़ों प्रवासी मजदूरों के गांवों में पहुंचने से हुआ है. चूंकि भारतीय अर्थ-व्यवस्था में गरीब-अमीर के बीच खाई शहरों में ही नहीं गांवों में भी बढ़ी है. लिहाजा मजदूरों की उपलब्धता से पूरे उत्तर भारत के राज्यों में संपन्न वर्ग बड़ी तादाद में मकान बनवाने लगे हैं और अन्य निर्माण के कार्य शुरू हो गए हैं. साथ ही एक और परिवर्तन हुआ है बड़े ही नहीं, छोटे किसानों की मानसिकता में भी. 

अभी तक खेतिहर मजदूरों के अभाव में बड़े किसान अपनी खेती बटाई पर दे देते थे जिस पर गरीब सीमांत किसान पैसे के अभाव में कम लागत लगा कर खेती करते थे जिससे उत्पादकता कम होती थी. मजदूरों की उपलब्धता अचानक बढ़ने से अब जमीन मालिक खुद ही अच्छी उपज की उम्मीद में भरपूर खाद-पानी और अच्छे बीज के साथ खेती में कूद पड़े हैं. रबी की चल रही व्यापक सरकारी खरीद से सभी किसानों में उत्साह है. उधर लॉकडाउन के बाद की बेरोजगारी और अन्य त्रासदी की याद करके प्रवासी मजदूर खुशी से इन खेतों पर समुचित मजदूरी पर अपना श्रम दे रहा है. 

कृषि को समझने वाले समाजशास्त्री मानते हैं कि अगले छ: माह से एक साल तक इन श्रमिकों के शहर वापस जाने की उम्मीद नहीं है क्योंकि लॉकडाउन का डर उनकी रूह कंपा देता है. उधर तमाम राज्यों में उद्यमियों के दबाव में श्रम-कानून में बदलाव की खबर भी उनको फिर ठेकेदारों के शिकंजे में फंसने से रोकेगी. इस व्यापक परिवर्तन का ही असर है कि भारत सरकार की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार खरीफ की बोवाई में खेती का रकबा अचानक 35 फीसदी बढ़ गया है जो सरकार के वर्षों के तमाम उपक्र मों के बावजूद नहीं बढ़ा था. 

कृषि से जुड़ी अन्य गतिविधि जैसे डेयरी, मत्स्य व कुक्कुट पालन और खाद्य प्रसंस्करण के उद्योगों में भी ये मजदूर या तो योगदान दे रहे हैं या उससे आजीविका हासिल कर रहे हैं. लिहाजा अगर आर्थिक विकास को अचानक उछाल देकर कृषि, दुग्ध व फल के वैश्विक बाजार में धाक जमानी है तो सरकार को इस परिवर्तन को समझना होगा.  

किसान संगठनों की यह मांग काफी समय से रही है कि आवश्यक वस्तु अधिनियम की बंदिशों से किसानों और उनकी उपज को छुटकारा दिया जाए क्योंकि यह कानून स्टॉक रखने, कृषि उपज को अपनी मर्जी से बेचने पर अंकुश लगाता है. तर्क यह था कि यह कानून उस समय का है जब इन वस्तुओं का बेहद कम उत्पादन होता था और कई बार जखीरेबाजी से इन जिंसों के दाम आस्मां पर पहुंच जाते थे. आज खपत से ज्यादा उत्पादन हो रहा है. लिहाजा किसानों को जहां भी अच्छा मूल्य मिले अपना माल बेचने की छूट दी जाए. 

वर्तमान सरकार  इस कानून को खत्म करने जा रही है. सरकारी घोषणाओं के तीसरे दिन केंद्र में किसान रहा. अनाज, फल और मत्स्य-पालन से लेकर पशुपालन और मधुमक्खी पालन तक सबके लिए कुछ ‘गुलाबी तस्वीर’ पेश की गई. वित्त मंत्री ने माना कि कुछ योजनाएं पिछले बजट में बताई जा चुकी हैं और इस संकट में उन्हें रफ्तार दी जा रही है. बहरहाल ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि आज की घोषणाओं के बाद कानून में बदलाव सरकार अध्यादेश के जरिये करेगी.

किसानों की अभी तक मजबूरी थी कि वे मंडी समिति के जरिये ही अपना उत्पाद बेच सकते थे और उन्हें मंडी शुल्क भी देना होता था. उत्पाद सस्ते दामों में बिकता था. इसके ठीक उलट दूध उत्पादन को इस कानून की सीमा से बाहर रखा गया था लिहाजा डेयरी किसान अपना उत्पाद अपनी मर्जी से और अपनी ही को-आॅपरेटिव सोसायटी के जरिये बेचता था और कीमत तय करने में भी उसकी भूमिका होती थी.  

यह सही है कि इन घोषणाओं से किसानों और मजदूरों को तत्काल कोई आर्थिक पैकेज नहीं मिला लेकिन आने वाले कुछ महीनों में इसके लाभ दिखने लगेंगे.  ये सभी योजनाएं अगर अमल में आर्इं, तो भविष्य को भले ही सुनहरा करती हों लेकिन लॉकडाउन के 55 दिन के कारण ठप हुई अर्थ-व्यवस्था से खतरे में पड़े जीवन को उबारने का फौरी उपक्र म नहीं मिलता.   

वैश्विक बाजार में अपना दूध और अनाज लेकर खड़ा होने के लिए भारतीय किसानों को उत्पादकता बढ़ानी होगी. बाजार उपलब्ध है लेकिन अन्य ‘खिलाड़ी’ जैसे न्यूजीलैंड (दूध) और आॅस्ट्रेलिया (गेहूं) और चीन और सिंगापुर अन्य जींस भारत से काफी सस्ती दरों पर ले कर खड़े होंगे. ऐसे में सरकार को उत्पादकता अभियान भी समानांतर रूप से चलाना होगा. 

Web Title: N. K. Singh's blog: Economic development is possible only through agriculture

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