एन. के. सिंह का ब्लॉग: दोहरे मापदंडों का दौर और जनता का टूटता भरोसा

By एनके सिंह | Published: March 22, 2020 12:56 PM2020-03-22T12:56:25+5:302020-03-22T12:56:25+5:30

एक व्यक्ति किसी विचारधारा से प्रभावित होकर किसी राजनीतिक दल से जुड़ता है. वह दल कुछ वर्षो में उस व्यक्ति को एक ऐसा ओहदा देता है जिसे हासिल करना करोड़ों की सबसे बड़ी तमन्ना होती है.  लेकिन उस पद पर आने के साथ उसके लिए संवैधानिक नैतिकता का तकाजा होता है कि ‘अब’ वह उस विचारधारा से विरत हो निष्पक्षता से काम करेगा. क्या यह संभव है?

N. K. Singh Blog: double standards time and crumbling public's trust | एन. के. सिंह का ब्लॉग: दोहरे मापदंडों का दौर और जनता का टूटता भरोसा

भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई। (फाइल फोटो)

न्यायपालिका वह अंतिम किला है जिस पर जनता का भरोसा रहता है कि यह न्याय करेगी चाहे कुछ भी हो जाए. यह उद्गार जस्टिस रंजन गोगोई ने भारत के प्रधान न्यायाधीश के रूप में एक सभा में व्यक्त किए थे. आज से एक साल पहले इन्हीं न्यायमूर्ति ने पद पर रहते हुए एक मामले की सुनवाई के दौरान इस राय पर बल दिया था कि ‘‘रिटायरमेंट के बाद जजों की सरकारी पदों पर पुनर्नियुक्ति न्यायपालिका पर एक बदनुमा दाग है.’’

अब इन्हीं न्यायमूर्ति ने पद छोड़ने के मात्न चंद हफ्तों बाद सरकार द्वारा राज्यसभा सदस्य के रूप में नामित होने पर कहा, ‘‘मैंने यह पद इसलिए स्वीकारा क्योंकि मेरा निश्चित मत है कि एक काल-खंड में न्यायपालिका और कार्यपालिका को राष्ट्रनिर्माण के लिए एक साथ आना होगा. मेरी उपस्थिति से विधायिका न्यायपालिका के विचार और न्यायपालिका विधायिका के विचार समझ सकेगी.’’

इन्हीं न्यायमूर्ति ने राम मंदिर, राफेल डील आदि मामलों में भी फैसले दिए थे जिनमें से एक से सरकार को राजनीतिक लाभ मिला और दूसरे से कानूनी और राजनीतिक. फैसलों के बाद सरकार ने खुशी जाहिर की थी.  लेकिन यह नहीं समझ में आ रहा है कि कब  बदनुमा दाग राष्ट्र-निर्माण का कारण बन जाता है और कैसे जन-विश्वास का आखिरी किला - न्यायपालिका - ढह जाता है. लेकिन यह समझने के लिए कि किस कारण से एक व्यक्ति नैतिकता के दो विरोधी पैरामीटर्स पर एक सिरे से दूसरे सिरे तक झूलता हुआ पहुंच जाता है, आम जनता को आइंस्टीन का दिमाग नहीं चाहिए.    

संविधान-सभा में हुई चर्चा से समझ में आता है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने भावी समाज के नैतिक तंतुओं पर कुछ ज्यादा ही भरोसा कर लिया था. इसके दो उदाहरण देखें. राज्यपाल की संस्था पर केंद्र सरकार अपनी पसंद का व्यक्ति रखती है. अक्सर राजनीतिक वनवास के लिए भी सत्ताधारी दल इसका इस्तेमाल करता है यानी जिस नेता को हाशिये पर लाना होता है या जिसके जरिये उस राज्य के काबिज सत्ताधारी दल की सरकार की राह में रोड़े खड़े करने होते हैं उसकी नियुक्ति राज्यपाल के रूप में की जाती है. लेकिन संविधान-सभा में जब के.टी. शाह ने राज्यपाल को अधिक शक्ति न देने की सलाह दी तो बाबासाहब ने उसे तत्काल खारिज करते हुए राज्यपाल पद पर बैठे व्यक्ति के नैतिक आचरण पर भरोसा जताया.

इसी सभा में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों को लेकर शाह ने सलाह दी कि जजों के लिए रिटायरमेंट के बाद कोई सरकारी पद वर्जित किया जाए, तो बाबासाहब ने इसे यह कहकर खारिज किया था कि न्यायपालिका अधिकांश वे फैसले लेती है जिनमें सरकार की दिलचस्पी कम ही होती है. संविधान बनने के एक साल बाद ही बाबासाहब की राय गलत हुई और संसद द्वारा पारित 45 कानूनों में से लगभग 40 को सुप्रीम कोर्ट ने गलत करार दिया. तनाव इतना बढ़ा कि नेहरू ने संसद में कहा, ‘‘ये काले कोट पहने लोग राज्य के भीतर एक अलग राज्य चलाना चाहते हैं.’’

एक व्यक्ति किसी विचारधारा से प्रभावित होकर किसी राजनीतिक दल से जुड़ता है. वह दल कुछ वर्षो में उस व्यक्ति को एक ऐसा ओहदा देता है जिसे हासिल करना करोड़ों की सबसे बड़ी तमन्ना होती है.  लेकिन उस पद पर आने के साथ उसके लिए संवैधानिक नैतिकता का तकाजा होता है कि ‘अब’ वह उस विचारधारा से विरत हो निष्पक्षता से काम करेगा. क्या यह संभव है? देश की सरकारें बदलती हैं और उनका मुखिया अपने हिसाब से पसंदीदा पार्टी के लोगों को राज्यपाल या स्पीकर बनाता है. क्या उनसे अचानक महज एक शपथ के बूते उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता छोड़ने की अपेक्षा रखना जमीनी हकीकत से दूर होना नहीं कहा जाएगा?

Web Title: N. K. Singh Blog: double standards time and crumbling public's trust

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