गांधी के रास्ते से ही बचेगा दुनिया में लोकतंत्र, राजेश बादल का ब्लॉग

By राजेश बादल | Published: December 30, 2020 11:31 AM2020-12-30T11:31:41+5:302020-12-30T11:33:19+5:30

संसार के सरपंच अमेरिका से लेकर उत्तर कोरिया तक अपने तौर-तरीके बदल रहे हैं. अफसोस यह है कि किसी भी देश की प्राथमिकताओं में अवाम की समस्याएं सुलझाना नहीं रहा है.

mahatma gandhi Democracy in the world will be saved from Gandhi's path Rajesh Badal's blog | गांधी के रास्ते से ही बचेगा दुनिया में लोकतंत्र, राजेश बादल का ब्लॉग

विश्व की लोकतांत्रिक शिखर संस्थाओं को नए सिरे से रचने और गढ़ने की आवश्यकता आ गई है. (file photo)

Highlightsप्राचीन गणतंत्न के रूप में प्रतिष्ठित देशों ने हताशा भरी तस्वीर प्रस्तुत की है. लोकतंत्न पर यह बड़े राष्ट्र अमेरिका और भारत कुछ समय पहले तक शेखी बघारते नजर आते थे.राष्ट्र तो तेजी से उदार और आधुनिक लोकतंत्न की ओर कदम बढ़ा चुके थे.

भयावह दौर है. दुनिया के तमाम हिस्सों में लोकतांत्रिक सरोकार सिकुड़ रहे हैं. मुल्कों की हुकूमतों और उनके शिखर पुरुषों के जाती हित समूची व्यवस्था में प्रधान होते जा रहे हैं. सामुदायिकता और समाजों की बेहतरी हाशिये पर चली गई है. जिस मकसद से शासन प्रणालियों के विविध रूपों की रचना होती है, वही गहरे कुहासे में छिपते जा रहे हैं.

एक सदी से जिन मूल्यों और सियासत के सिद्धांतों की वकालत की जाती रही है, अब उनकी निरंतर उपेक्षा पर सहानुभूति व्यक्त करने वालों का टोटा है. संसार के सरपंच अमेरिका से लेकर उत्तर कोरिया तक अपने तौर-तरीके बदल रहे हैं. अफसोस यह है कि किसी भी देश की प्राथमिकताओं में अवाम की समस्याएं सुलझाना नहीं रहा है. इक्का-दुक्का अपवादों के जुगनू टिमटिमा रहे हैं, मगर वे इस बात की गारंटी नहीं देते कि आने वाले दिन जम्हूरियत और मानव अधिकारों की चकाचौंध से कायनात को भर देंगे. सवालों के कठघरे में खड़े हम सबके लिए यह आत्ममंथन का दौर है.

इस बरस विश्व मंच पर दो विराट और प्राचीन गणतंत्न के रूप में प्रतिष्ठित देशों ने हताशा भरी तस्वीर प्रस्तुत की है. अपने-अपने लोकतंत्न पर यह बड़े राष्ट्र अमेरिका और भारत कुछ समय पहले तक शेखी बघारते नजर आते थे. अब इनकी अंदरूनी हालत ने पेशानी पर बल डाल दिए हैं. यह राष्ट्र तो तेजी से उदार और आधुनिक लोकतंत्न की ओर कदम बढ़ा चुके थे. पर अब इन देशों में आंतरिक हालात अफसोसनाक हैं.

तमाम हदें पार कर दिन-प्रतिदिन विकराल हो रही कट्टरता और विकृत राष्ट्रवाद ने आने वाली नस्लों के लिए शासन प्रणाली का एक खतरनाक स्वरूप प्रस्तुत किया है. यह लंबे समय तक दमकने वाली उम्मीद की किरण नहीं जगाता. लगता है कि विश्व की लोकतांत्रिक शिखर संस्थाओं को नए सिरे से रचने और गढ़ने की आवश्यकता आ गई है.

इस काम को करने वाले नए शिल्पी या विश्वकर्मा के लिए जरूरी सामान हमने जुटा दिया है. अब वह संसार के नक्शे में जिस नई कृति को तैयार करेगा, उसमें रौब गांठते, मूंछों पर ताव देते किसी सनकी राजा का अक्स दिखाई देगा. यह कुछ-कुछ मध्यकाल के बर्बर शासक की याद दिलाने जैसा होगा. आज के विश्व में शासन पद्धति के लिए विचारधाराओं की आवश्यकता नहीं रही है.

एक स्थिति में आकर वे दम तोड़ देती हैं. चाहे वामपंथ हो या समाजवाद, कोई मध्यम राष्ट्रीय मार्ग हो अथवा पूंजीवाद. जिन प्रणालियों को इंसान ने अपनी सहूलियतों या सुविधाओं के लिए आकार दिया था, वे अब उसी इंसान को चला रही हैं. उनका अस्तित्व नाममात्न के लिए ही रह गया है. संसार में सबसे बड़ी आबादी वाले चीन का चरित्न अब वामपंथी नहीं रहा है.

सबसे अधिक मानव श्रम का शोषण उसी देश में होता है. वहां लोकतंत्न और अपने अधिकारों की बात करना जुर्म है. समूची शासक पार्टी एक व्यक्ति के हाथों में सिमट गई है. अमेरिका में भी राष्ट्रपति नामक आला राजनेता अपनी सनक भरी जिद से देश को अराजकता के कगार तक ले जाने से ङिाझकता नहीं है. भारत के राजनीतिक मंच पर भी अब सामूहिक नेतृत्व बीते दिनों की बात हो गई है.

संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता खतरे में पड़ती जा रही है. कमोबेश दक्षिण एशिया, मध्य एशिया, अफ्रीका और यूरोप के अनेक राष्ट्रों में भी इसी तरह के हालात बनने लगे हैं. यानी अधिकतर देशों का लोकतांत्रिक ढांचा चरमराने की स्थिति में पहुंच गया है. बांझ होती जम्हूरियत में छिपी चेतावनी के संदेश यदि हम नहीं पकड़ पा रहे हैं तो यह दुर्भाग्यजनक है.

तो इस बिखरते लोकतंत्न और लड़खड़ाती शासन पद्धतियों में आज क्या चेतावनी छिपी है? एक किस्म की वैश्विक अराजकता की तरफ हम बढ़ते जा रहे हैं. यह एक तरह का लोकतांत्रिक ग्रहण ही तो है? इन तमाम विषमताओं और जटिलताओं से उबरने के लिए क्या किया जाए? यह एक गंभीर और सार्थक बहस की मांग करता है. जब तक आम आदमी की शासन प्रबंध में सक्रि य भागीदारी नहीं होगी, तब तक किसी भी सुधार की अपेक्षा बेकार है.

यह तभी संभव है जब एकदम स्थानीय स्तर पर अधिकारों का विकेंद्रीकरण हो, स्थानीय संस्थाएं मजबूती से अपने पैरों पर खड़ी हों और एक तरह से सहकारिता - सिद्धांत लागू किया जाए. गांधी के ग्राम स्वराज की संकल्पना यही तो थी. गांधीजी की स्पष्ट धारणा थी कि आदर्श समाज एक राज्य रहित लोकतंत्न है. प्रबुद्ध और जागृत अराजकता की अवस्था है, जिसमें सामाजिक जीवन इतनी पूर्णता पर पहुंच जाता है कि वह स्वयं शासित और स्वयं नियंत्रित बन जाता है. आदर्श अवस्था में कोई राजनीतिक सत्ता नहीं होती, क्योंकि किसी राज्य का अस्तित्व नहीं होता.

हालांकि महात्माजी यह भी मानते थे कि आदर्श की संपूर्ण सिद्धि असंभव है, फिर भी ग्राम स्वराज राज्य रहित लोकतंत्न के समीप पहुंचता है. राज्य वही उत्तम है, जो कम से कम शासन करे. इसका अर्थ यह नहीं कि किसी देश में सरकार नामक कोई व्यवस्था ही नहीं हो. वरन उनका मतलब शासन एक ऐसे तंत्न में बदल जाए, जिसमें सब काम समाज का हर अंग स्व प्रेरणा से करे.

आज की भाषा में हम उसे ऑटो मोड में डालना कह सकते हैं. असल में उस फरिश्ते की सुन ली गई होती तो आज यह दुर्गति नहीं होती. महात्मा गांधी के रास्ते पर ही शासन संचालन के वैचारिक कल पुर्जो को ढालना होगा. उसके बाद ही हम सामूहिक नेतृत्व पर बात कर सकते हैं अन्यथा तो अपने हाथों विनाश की इबारत हम लिख ही चुके हैं.

Web Title: mahatma gandhi Democracy in the world will be saved from Gandhi's path Rajesh Badal's blog

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