महाराष्ट्र महागठबंधन सरकारः मजबूत सरकार की कम नहीं हो रहीं कमजोरियां
By Amitabh Shrivastava | Updated: January 25, 2025 07:07 IST2025-01-25T07:05:36+5:302025-01-25T07:07:06+5:30
Maharashtra Grand Alliance Government: भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) दूसरे दलों के नेताओं को शामिल करने का कोई अवसर चूक नहीं रही है, यद्यपि अब उसके अध्यक्ष चंद्रशेखर बावनकुले कहने लगे हैं कि भविष्य में नेताओं का आगमन सोच-समझ कर किया जाएगा.

file photo
Maharashtra Grand Alliance Government: यह आश्चर्यजनक ही कहा जाएगा कि 232 विधायकों के साथ महाराष्ट्र में बनी महागठबंधन की सरकार अभी-भी शिवसेना के उद्धव ठाकरे गुट के विधायकों को तोड़ने के प्रयास में है. वहीं दूसरी ओर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के दोनों गुटों के चाचा-भतीजे जब भी नजदीक आते हैं तो सत्ताधारियों के बीच चर्चा आरंभ हो जाती है. उधर, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) दूसरे दलों के नेताओं को शामिल करने का कोई अवसर चूक नहीं रही है, यद्यपि अब उसके अध्यक्ष चंद्रशेखर बावनकुले कहने लगे हैं कि भविष्य में नेताओं का आगमन सोच-समझ कर किया जाएगा. यूं देखा जाए तो बीते वर्ष नवंबर माह में सम्पन्न विधानसभा चुनावों में अपेक्षा से कहीं अधिक मत मिले और विपक्ष की हालत दयनीय हुई.
बावजूद इसके सत्ता पक्ष दूसरे दलों के भीतर ताक-झांक में परेशान है. हालांकि भाजपा के नेतृत्व में बनी सरकार को यह अच्छे से मालूम है कि गठबंधन का कोई भी दल साथ देना बंद कर दे तो भी सरकार के लिए कोई खतरा पैदा नहीं होगा. फिर भी कोई विदेश और कोई देश में बैठकर प्रतिपक्ष को दुर्बल करने की कोशिश में है.
हाल के राज्य विधानसभा चुनाव में शिवसेना के शिंदे गुट ने 57 सीटें जीतीं, जो जमीनी अपेक्षाओं से बहुत अधिक थीं. उसने मुख्य रूप से 81 सीटों पर चुनाव लड़ा था. जिसके मुकाबले शिवसेना ठाकरे गुट ने 95 सीटों पर चुनाव लड़कर 20 सीटों पर सफलता पाई. निश्चित ही उसके लिए यह अप्रत्याशित था, मगर चुनाव बाद दोनों दल अपनी ताकत दिखाने के लिए दोबारा मैदान में हैं.
इस दिशा में शिवसेना शिंदे गुट की रणनीति शिवसेना ठाकरे गुट के सांसद, विधायक, पदाधिकारी आदि को तोड़ने की तो दूसरी ओर शिवसेना ठाकरे गुट की स्थानीय निकाय के चुनावों में शक्ति प्रदर्शन कर राज्य में अपनी वापसी करने की है. शिवसेना के शिंदे गुट के पास सात सांसद हैं, जबकि ठाकरे गुट के पास नौ सांसद हैं.
यदि लोकसभा के स्तर पर तोड़-फोड़ होती है तो केंद्र की सरकार को मजबूती मिलेगी. किंतु राज्य में यदि टूट हुई तो शिवसेना शिंदे गुट भाजपा पर कोई दबाव बना नहीं पाएगा. ऐसे में लगातार तोड़-फोड़ की तैयारी दिखा कर शिवसेना के ठाकरे गुट को कमजोर साबित करने से अधिक लाभ नहीं है.
वहीं दूसरी ओर लोकसभा में एक सांसद और विधानसभा में 41 विधायकों के साथ राकांपा के अजित गुट का सरकार के साथ रहना और अलग होना अधिक मायने नहीं रखता है. यदि वह राकांपा शरद पवार गुट से तोड़ कर कुछ विधायकों को लाता है तो भी सत्ताधारी गठबंधन को कुछ अधिक असर नहीं पड़ेगा. यहां तक कि वह कोई लाभ लेने की स्थिति में भी नहीं होगा.
दोनों दलों के अलावा भाजपा के समक्ष सवाल यह है कि वह किसे और कहां से अपनी ओर खींचे. इसलिए उसने अपने सुरों को बदल नेताओं की आवक के मुद्दे पर सोच-विचार को जोड़ दिया है. हालांकि दूसरे दलों के पदाधिकारी और पूर्व विधायक आदि के शामिल करने पर कोई बड़ा असर दिख नहीं रहा है.
दरअसल महाराष्ट्र में आने वाले माह में स्थानीय निकायों के चुनाव होने हैं. लोकसभा चुनाव के बाद विधानसभा चुनाव में महागठबंधन के नेताओं ने अपने पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं की महत्वाकांक्षा को भलीभांति देखा है. अनेक स्थानों पर बगावत, कहीं मित्रतापूर्ण मुकाबला जैसे समझौतावादी रास्तों से विधानसभा चुनाव की गाड़ी निकली.
यह स्थिति स्थानीय निकायों के चुनावों में अधिक गंभीर हो सकती है. ऐसे में महाविकास आघाड़ी में शिवसेना ठाकरे गुट हो या फिर महागठबंधन का राकांपा अजित पवार गुट क्यों न हो, सभी स्थानीय निकाय चुनावों में अकेले उतरने की मानसिकता बना रहे हैं. इस स्थिति में दोनों ही गठबंधन के बाकी घटक दलों को अपने-अपने बारे में विचार करना होगा.
यदि सभी की अलग-अलग चुनाव लड़ने की स्थिति बनी तो मजबूत संगठन आवश्यक है. सभी स्थानों पर उम्मीदवारों की फौज जरूरी है. कुछ ऐसी ही भविष्य की चिंता गठबंधन के हर दल को परेशान कर रही है. वह आनन-फानन में आवक गति बढ़ाने में जुट गए हैं. यह आना-जाना कुछ इसलिए भी है कि विपरीत विचारधारा के गठबंधन में एक विचार कितने दिन जिंदा रखे जा सकेंगे?
सत्ताधारी महागठबंधन में शामिल तीनों दल अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा रखते हैं. भाजपा के समक्ष लक्ष्य वर्ष 2029 में अकेले सत्ता संभालना है तो शिवसेना के शिंदे गुट का अस्तित्व तब तक सवालों के घेरे में है, जब तक उसका शिवसेना पर एकछत्र राज नहीं हो जाता है. यही कुछ स्थिति राकांपा अजित पवार गुट की है.
दोनों को अपने दलों में नए नेताओं के आगमन से वापसी का डर अधिक लगता है. हालांकि अब लौटने की परिस्थितियां ज्यादा अनुकूल नहीं हैं. फिर भी भय अपनी जगह बना हुआ है. भाजपा पर स्वार्थी होने का आरोप होने के कारण दूसरे दलों के मन में सदा चिंताओं की लकीरें होती ही हैं.
यही कारण है कि उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के गठबंधन को लेकर पूर्व में दिए ‘फेविकॉल का जोड़’ जैसे कई बयानों पर पक्का भरोसा नहीं होता है. आंकड़ों से दिखने में राज्य सरकार मजबूत मानी और बताई जा सकती है, लेकिन महागठबंधन के दिल की बात दिल ही जानता है. इसीलिए ऐसे ही नहीं कोई दावोस या फिर महाराष्ट्र के किसी स्थान से दूसरे दलों के नेताओं से संपर्क में होने की बात करता है.
फिलहाल राज्य में टूट-फूट की राजनीति भले ही दलों के प्रतिष्ठा का मुद्दा बन चुकी हो, लेकिन स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपराओं के लिए ये धब्बे ही हैं, जो आसानी से मिट नहीं पाएंगे. यदि मतदाता ने दिल खोलकर समर्थन दिया है तो कहीं न कहीं संतुष्टि के भाव के साथ समाधान की ओर बढ़ना चाहिए. केवल दूसरों का घर तोड़ कर अपना घर मजबूत करने का लगातार सपना नहीं देखना चाहिए.