डॉ. विजय दर्डा का ब्लॉग: लोकतंत्र के महापर्व में ये उदासीनता क्यों ?
By विजय दर्डा | Published: April 22, 2024 06:29 AM2024-04-22T06:29:28+5:302024-04-22T06:31:21+5:30
यदि आप वोट नहीं देते हैं तो सरकार की आलोचना का अधिकार भी आप खो देते हैं। मुझे तो लगता है कि बगैर किसी महत्वपूर्ण कारण के यदि कोई व्यक्ति वोट नहीं डालता है तो सरकारी तौर पर उसे मिलने वाली सुविधाओं पर भी विचार किया जाना चाहिए।
लोकसभा चुनाव के पहले चरण में 102 सीटों पर मतदान पूरा हो चुका है। राजनीति के विश्लेषणकर्ता इस जोड़-घटाव में लगे हैं कि किसके जीतने की संभावनाएं प्रबल हैं और किसके निपट जाने की आशंकाएं पैदा हो गई हैं? पार्टियों के भीतर किस तरह का भितरघात हुआ है और किस नेता ने अपने ही दल के प्रत्याशी को निपटाने की कैसी जुगत भिड़ाई! किस क्षेत्र में कितना मतदान हुआ, पिछले चुनाव में कितना मतदान हुआ था। इस बार यदि कम मतदान हुआ है तो किसे फायदा होगा...वगैरह...वगैरह!
इस तरह का विश्लेषण निश्चय ही स्वाभाविक ही है और 4 जून को परिणाम आने तक चर्चा के लिए मसाला भी तो चाहिए! तो ये चर्चाएं फिलहाल चलती रहेंगी लेकिन मेरी चिंता इस बात को लेकर है कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के नागरिक हैं। चुनाव लोकतंत्र का महापर्व है और इस बार चुनाव आयोग ने मतदाताओं को जागरूक करने के लिए हर संभव कोशिश की, फिर भी मतदान का प्रतिशत कम क्यों रहा?
पहले चरण के चुनाव के ठीक पहले मैंने दो दिनों में सड़क मार्ग से करीब 1400 किलोमीटर की यात्रा की। इसके अलावा विभिन्न राज्यों में घूमा। आम आदमी से बातचीत की और उनका मूड समझने की कोशिश की। मैंने महसूस किया कि खासकर हमारे युवा मतदाताओं में वो जोश नहीं दिख रहा है जिस जोश ने नरेंद्र मोदी को 2014 में सत्ता दिलाई थी। आखिर मतदाताओं का जोश कहां गया?
ये युवा ही तो देश के भविष्य हैं और इनमें यदि उदासीनता आ जाए जो यह हमारे लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है। नए भारत के निर्माण में ये युवा ही तो प्रमुख भूमिका निभाने वाले हैं! मुझे महसूस हो गया था कि वोटिंग प्रतिशत में कमी आ सकती है। यही हुआ है। दो से तीन प्रतिशत मतदान कम हुआ।
मतदाता मूलत: दो तरह के हैं, शहरी और ग्रामीण। मैं इस बात में नहीं जाऊंगा कि सत्ताधारी पार्टी और विपक्ष एक दूसरे पर क्या आरोप-प्रत्यारोप कर रहे हैं लेकिन यह सच है कि दोनों ही तरह के मतदाताओं में मुझे उत्साह नजर नहीं आया। आप नागपुर का ही उदाहरण देखिए, यहां विकास पुरुष की उपाधि के साथ नितिन गडकरी चुनाव लड़ रहे थे और सामने विकास ठाकरे खुद को आम आदमी का जनप्रतिनिधि बता रहे थे लेकिन मतदाताओं में उत्साह बिल्कुल ही नहीं दिखा। कई वार्डों में तो केवल 42 या 43 प्रतिशत ही वोटिंग हुई!
भारत में हुए पहले आम चुनाव की तुलना में देखें तो निश्चित ही वोटिंग प्रतिशत के मामले में हमारी उन्नति हुई है, लेकिन क्या इस उन्नति पर हमें संतोष कर लेना चाहिए? लोकसभा की 489 तथा विभिन्न विधानसभाओं की 4011 सीटों पर पहले चुनाव की प्रक्रिया अक्तूबर 1951 में प्रारंभ हुई थी और फरवरी 1952 तक चली। तब 17 करोड़ 32 लाख वोटर्स में से करीब 44 फीसदी ने मतदान किया था। उस चुनाव में कांग्रेस ने लोकसभा की 364 सीटें जीती थीं।
सवाल यह है कि पहले चुनाव के सात दशक बाद भी हम औसतन 70 प्रतिशत मतदान के नीचे ही क्यों रह जाते हैं? हां, हमारे कुछ राज्यों में, खासकर पूर्वोत्तर के राज्यों में मतदान का प्रतिशत भारत के मैदानी इलाकों से ज्यादा रहता है लेकिन ऐसा सभी राज्यों में क्यों नहीं होता? चुनाव के ताजा आंकड़ों पर ही नजर डालें तो त्रिपुरा एकमात्र ऐसा राज्य है जहां 80 प्रतिशत से ज्यादा वोटिंग हुई। इसके अलावा पश्चिम बंगाल, मेघालय, असम, सिक्किम और पुडुचेरी में ही वोटिंग प्रतिशत 70 के पार जा पाया।
मैंने महसूस किया है और शायद आपने भी महसूस किया होगा कि मतदान के दिन को छुट्टी का दिन समझ लेने की गंभीर गलतफहमी कई लोग पाल लेते हैं। वे यह सोचते हैं कि केवल उनके वोट से क्या होगा? दरअसल ऐसी ही सोच के कारण बहुत से लोग मतदान केंद्र पर नहीं पहुंचते हैं। यदि 30 प्रतिशत लोगों ने वोट नहीं किया तो इसका मतलब है कि देश के संचालन में उनकी भूमिका नहीं रह जाती है।
यदि आप वोट नहीं देते हैं तो सरकार की आलोचना का अधिकार भी आप खो देते हैं। मुझे तो लगता है कि बगैर किसी महत्वपूर्ण कारण के यदि कोई व्यक्ति वोट नहीं डालता है तो सरकारी तौर पर उसे मिलने वाली सुविधाओं पर भी विचार किया जाना चाहिए। एक बात और देखने में आती है कि आदिवासी क्षेत्रों में वोटिंग का प्रतिशत हमेशा ही ज्यादा रहता है।
दूसरी ओर राजनीतिक रूप से स्वयं को ज्यादा समझदार समझने वाले लोग वोटिंग के लिए नहीं जाते हैं। बिहार को राजनीतिक रूप से अति सक्रिय माना जाता है लेकिन पहले चरण में वहां 50 प्रतिशत भी वोटिंग नहीं हुई। कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो नोटा पर वोट कर आते हैं। पिछले चुनाव में ऐसे वोटर्स की संख्या 1 प्रतिशत से ज्यादा थी। वैसे वोटिंग प्रतिशत में कमी का एक बड़ा कारण और है।
उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति अपने मतदान केंद्र से दूर निजी क्षेत्र के प्रतिष्ठान में नौकरी कर रहा है तो उसके लिए वोट डालना कठिन हो जाता है। उसे भी यदि बैलेट वोट की सुविधा दी जाए तो वोट प्रतिशत में इजाफा हो सकता है। तकनीक के युग में यह कोई असंभव काम नहीं है।
इस चुनाव में मुझे सबसे ज्यादा खुशी इस बात की हुई है कि अंडमान निकोबार द्वीप समूह में शोम्पेन जनजाति के सात सदस्यों ने पहली बार अपने मताधिकार का प्रयोग किया। मैं भारतीय लोकतंत्र के लिए उस दिन की मंगलकामनाएं करता हूं जिस दिन चुनाव में एक भी वोटर ऐसा न हो जो वोट न डाले. तब हम और शिद्दत के साथ कहेंगे...जय हिंद!