संतोष देसाई का ब्लॉगः वोटरों की चुप्पी से गूढ़ होता चुनाव
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: May 15, 2019 10:19 AM2019-05-15T10:19:07+5:302019-05-15T10:19:07+5:30
सोशल मीडिया भी पहले से ज्यादा शक्तिशाली हुआ है. लेकिन वह जनता के वास्तविक मूड को सामने नहीं ला पा रहा. मुख्य धारा का मीडिया विशिष्ट विचारों से प्रेरित होता है, क्योंकि उसका अपना एक नजरिया होता है. इसलिए वर्तमान चुनावों के परिणामों का अनुमान लगा पाना कठिन है.
संतोष देसाई
कुछ माह पूर्व तक मुख्य धारा के मीडिया के अनुसार चुनाव एकतरफा दिखाई दे रहे थे. लेकिन पिछले कुछ हफ्तों में इसमें काफी बदलाव आया है. पुलवामा में हुए आतंकी हमले के जवाब में बालाकोट की एयर स्ट्राइक के बाद जिस तरह से मीडिया में प्रधानमंत्री छाए हुए थे, उससे चुनावों में उनका पलड़ा भारी होने का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता था. लेकिन अब चुनावों में ऊंट किस करवट बैठेगा, इस बारे में कोई भी पूर्णत: आश्वस्त नहीं है और ऐसा लगता है कि चित्र 23 मई को ही स्पष्ट हो सकेगा.
भारत में चुनाव परिणामों की भविष्यवाणी करना कभी भी आसान नहीं रहा है. दस वर्ष पूर्व माना जाता था कि टेलीविजन सीमित लोगों का ही प्रतिनिधित्व करता है और अखबार समाज के बौद्धिक वर्ग का दृष्टिकोण पेश करते हैं. शेष भारत का बड़ा हिस्सा मीडिया की नजरों से ओझल ही रहता है. नेताओं को लगता था कि टीवी पर होने वाली बहसों से कुछ खास फर्क नहीं पड़ता.
लेकिन 2014 के चुनाव ने मीडिया की सामथ्र्य के बारे में धारणा को बदल दिया. भाजपा के चुनाव प्रचार के केंद्र में तब मोदी थे. उन्होंने मीडिया का अत्यंत कुशलता के साथ उपयोग किया. तब तक टेलीविजन के स्वरूप में भी बदलाव आ चुका था. उस समय मोदी को जो प्रसिद्धि मिली, उससे उनका प्रादेशिक नेता से राष्ट्रीय नेता में रूपांतरण होते देर नहीं लगी. सोशल मीडिया ने भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उसके बाद के पांच वर्षो में मीडिया के परिदृश्य में भारी बदलाव आया है और इस क्षेत्र में अनेक नए खिलाड़ियों का आगमन हुआ है.
सोशल मीडिया भी पहले से ज्यादा शक्तिशाली हुआ है. लेकिन वह जनता के वास्तविक मूड को सामने नहीं ला पा रहा. मुख्य धारा का मीडिया विशिष्ट विचारों से प्रेरित होता है, क्योंकि उसका अपना एक नजरिया होता है. इसलिए वर्तमान चुनावों के परिणामों का अनुमान लगा पाना कठिन है. मुख्यधारा का मीडिया हमें वास्तविक तस्वीर दिखा सकता है लेकिन वह स्वनिर्मित वास्तविकता को भी लोगों पर थोप सकता है. इसलिए हम दावे के साथ कुछ नहीं कह सकते. एक तरह से कह सकते हैं कि हम सब कुछ जानते हैं और फिर भी कुछ नहीं जानते!