आशुतोष अस्थाना का ब्लॉग: आज़ाद होती प्रकृति, बंदिशों में मानवता

By आशुतोष अस्थाना | Published: March 30, 2020 11:49 AM2020-03-30T11:49:41+5:302020-03-30T11:49:41+5:30

ये अंत है...अंत ही तो है! लग रहा है प्रकृति करवट ले रही है। सालों तक मानवता ने उसका बलात्कार किया है। शायद अब उसने हिसाब चुकता करने का प्रण लिया है।

Lock down effect on nature, nature reviving during lock down, effect on air pollution during lock down | आशुतोष अस्थाना का ब्लॉग: आज़ाद होती प्रकृति, बंदिशों में मानवता

आशुतोष अस्थाना का ब्लॉग: आज़ाद होती प्रकृति, बंदिशों में मानवता

जिस आसमान को अब तक आग बरसाना शुरू कर देना चाहिए था वो पानी बरसाए जा रहा है। बादलों में जैसे बरस जाने की होड़ लगी है। जिस हवा से अब तक होंठों पर पपड़ियां पड़ जानी चाहिए थीं उसकी सोहबत बदली सी लग रही है। सड़क पर पड़ी नीम की पत्तियां ही एक मात्र सबूत हैं कि पतझड़ बीत रहा है। 

सड़कें किसी विधवा की मांग की तरह सूनी हो चुकी हैं। घरों के अंदर सुगबुगाहट तो है मगर इंसानी शोर शून्य हो चुका है। लग रहा है मानो मुर्दों की बस्ती है। शोर है, कुत्तों का, जो अब रोड पर अपना मालिकाना हक समझने लगे हैं। किसी घर के अंदर से बर्तन गिरने की आवाज़ आती है तो लगता है कोई अपशकुन होने वाला है। ये दौर अपशकुन का है।

ये अंत है...अंत ही तो है! लग रहा है प्रकृति करवट ले रही है। सालों तक मानवता ने उसका बलात्कार किया है। शायद अब उसने हिसाब चुकता करने का प्रण लिया है। हर दिन मौत की खबर आ रही है,...इंसान की, यहां से, वहां से...उन जगहों से भी जहां लोगों ने मौत पर विजय पा लेने का दावा किया था। इंसान के बीच दायरे बन चुके हैं। अब कोई किसी से नहीं मिलता। हाथ मिलाने से भी कतराते हैं। हर कोई फिक्रमंद है। 

ये दौर फिक्र करने का है, अपनों की फिक्र। हर सुबह उठकर लगता है कि बस आज का दिन गुज़र जाए। गुज़र रहे हैं, दिन और उसके साथ वो लोग भी जो किसी न किसी के अपने थे। घरों में कैद, कमरे में बंद, बाहर कोई दुर्गा का पाठ कर रहा है। मगर दुर्गा सब देख रही है। हंस रही है। उसकी बूढ़ी धरती फिर जवान हो रही है।

कूड़ा ले जाने वाली गाड़ी अब भारत को स्वच्छ रखने के गीत नहीं गाती। मौत से बचने के उपाय दे जाती है। चौकीदार गेट के कोने पर दुबका बैठा रहता है। अब वो रात को सीटियां बजाता, घर की खिड़कियों से अंदर नहीं झांकता है। अंदर झांकती है अब लाचारी, असहाय होने की लाचारी। 

लोग अपने अंदर मौत लिए घूम रहे हैं। वो मौत जो एक एक कर के सबको निगलती जा रही है। किसी के मुंह से होकर किसी के हाथ के सहारे भीतर घुसती जा रही है। मंदिर की घंटी, अज़ानें शांत हैं, चर्च की लॉ बुझ चुकी, गुरुद्वारे की अरदासें शांत हैं। शांत वो हंगामा भी है जो धर्म और समुदाय में बंधे लोग करते थे। सियासत घुटनों पर आ चुकी है। ट्रेनें न जाने किस स्टेशन पर गुमसुम सी खड़ी हैं। बसें भी सवारी का रस्ता देख रही हैं। 

मज़दूर सर पर मुफलिसी की गठरी उठाये निकल पड़े हैं...अपने घरों की ओर,जो मीलों दूर से, बहुत दूर से उन्हें बुला रहे हैं। उनके चेहरे पर खौफ है...खौफ है मर जाने का...खौफ है इस बात का कि वो मर गए तो उनके परिवार का पेट कौन भरेगा।

ये दौर खौफ का है...और ये खौफ उन लोगों में भी है, जिनकी रगों में अमीरी खून बनकर बहती थी, जो हर मर्ज़ पर दौलत से मरहम लगा सकते थे। हर चेहरा खौफ को नकाब से ढके, चरमराई हिम्मत से सड़कों पर निकलने की कोशिश कर रहा है, पर हार जा रहा है।

चिड़ियों का कलरव, नीला आसमां और लहराते हरे पेड़ देखकर लग रहा है, जैसे प्रकृति झूम रही है, जैसे अरसे बाद अपने प्रियतम से मिल रही है। मगर इंसान, इंसान बेचैन है। मौत सर पर खड़ी नाच रही है और इंसानों को अपनी उंगलियों को पर नचा रही है। रातें उदास मालूम हो रही हैं और दिन चहकते हुए से लग रहे हैं। 

लग रहा है जैसे अस्तित्व मिटने वाला है, मानव का, मानवता का और उस अहंकार का जिसने मानव को अन्य जीवों से बेहतर प्राणी घोषित कर दिया था। हर कोई एक दूसरे को हौसला दिलाये जा रहा है, मगर वो खुद अंदर से खोखला हो चुका है और हौसला, पंख लगाकर बादलों के पार उड़ गया है।

तभी एक रोज़ बारिश थम जाती है। सूरज निकलने लगता है। किरणे चेहरे को छूती हैं, फिर मन को। बेचैनी थम जाती है। दिल स्थिर हो जाता है। हौसला रखो। कानों में एक आवाज़ गूंजती है...हौसला रखो!

Web Title: Lock down effect on nature, nature reviving during lock down, effect on air pollution during lock down

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