कृष्ण प्रताप सिंह का ब्लॉग: सरकार और किसानों के बीच अविश्वास घटाना जरूरी
By कृष्ण प्रताप सिंह | Published: October 7, 2021 04:37 PM2021-10-07T16:37:12+5:302021-10-07T16:37:12+5:30
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि वहां जो कुछ हुआ, उसके पीछे न सिर्फ आंदोलित किसानों की लंबी अनसुनी और उनके आक्रोश के गलत आकलन बल्कि उन्हें बार-बार उकसाने की सत्ताधीशों की कार्रवाइयां भी हैं.
अच्छी बात है कि उत्तर प्रदेश स्थित लखीमपुर खीरी में प्रशासन ने थोड़ा लचीलापन दिखाकर रविवार को हुए बवाल से पीड़ित किसानों को इंसाफ के प्रति आश्वस्त कर उनसे समझौता कर लिया है.
इस समझौते में तय हुआ है कि जान गंवाने वाले किसानों के आश्रितों को 45-45 लाख रुपयों का मुआवजा और एक परिजन को नौकरी दी जाएगी. साथ ही, फसाद की जड़ बताए जा रहे केंद्रीय गृह राज्यमंत्नी अजय मिश्र टेनी के बेटे आशीष मिश्र को जल्द से जल्द गिरफ्तार किया जाएगा और सारे मामले की हाईकोर्ट के जज से जांच कराई जाएगी.
निस्संदेह, इससे पीड़ितों के उद्वेलन घटेंगे और उनसे जुड़े संघर्षो के नए मोर्चे खुलने के अंदेशे कम होंगे. प्रशासन ने ऐसा ही रवैया थोड़ा पहले अख्तियार कर लिया होता तो बात उतनी बिगड़ती ही नहीं, जितनी बिगड़ गई और जिसके कारण चार किसानों समेत नौ लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा.
यह प्रशासन के समय रहते सक्रिय न होने का ही नतीजा था कि किसानों द्वारा केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्र टेनी, जो वहां के सांसद भी हैं और उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशवप्रसाद मौर्य को काले झंडे दिखाने के सिलसिले में इतनी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं घटीं, जिनका किसी भी तरह समर्थन नहीं किया जा सकता.
लेकिन इससे भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि वहां जो कुछ हुआ, उसके पीछे न सिर्फ आंदोलित किसानों की लंबी अनसुनी और उनके आक्रोश के गलत आकलन बल्कि उन्हें बार-बार उकसाने की सत्ताधीशों की कार्रवाइयां भी हैं.
इसे यों भी समझ सकते हैं कि लखीमपुर खीरी में बात हद से आगे बढ़ गई और किसान गृह राज्यमंत्री के काफिले की गाड़ी से कुचल दिए गए अपने साथियों के शवों का तब तक अंतिम संस्कार न करने पर अड़ गए, जब तक उनकी मांगें नहीं मान ली जातीं, तो उत्तर प्रदेश सरकार ने अपनी पूरी ताकत लगाकर लखीमपुर खीरी को किले में बदल डाला. सारे विपक्षी दलों के नेताओं को जहां-तहां गिरफ्तार कर वहां जाने से रोक दिया, सो अलग.
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और पंजाब के उपमुख्यमंत्री सुखजिन्दर एस. रंधावा के विमानों को लखनऊ में अमौसी स्थित चौधरी चरणसिंह अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उतरने तक से रोक दिया गया. लेकिन गत 26 सितंबर को केंद्रीय गृह राज्यमंत्री ने उन्हें काले झंडे दिखाने वाले किसानों को खुलेआम चुनौती देते हुए सामने आने या सुधर जाने की धमकी दे रहे थे तो वह हालात से अनजान-सी हाथ पर हाथ धरे बैठी हुई थी.
इन मंत्री महोदय का कहना था कि कृषि कानूनों के खिलाफ केवल दस-पंद्रह लोग शोर मचा रहे हैं, जो नहीं सुधरे तो दो मिनट से भी कम में सुधार दिए जाएंगे. इतना ही नहीं, दावा कर रहे थे कि वे सिर्फ मंत्री या सांसद नहीं हैं और जब उन्हें काले झंडे दिखाए जा रहे थे, वे कार से उतर जाते तो दिखाने वालों को भागने का रास्ता नहीं मिलता.
उन्हीं के शब्दों में कहें तो 'जो लोग मेरे विषय में जानते हैं, उनको पता होगा कि मैं किसी चुनौती से भागता नहीं. जिस दिन मैंने चुनौती स्वीकार कर ली, उस दिन मुङो काला झंडा दिखाने वालों को लखीमपुर खीरी छोड़ना पड़ जाएगा.'
इसके बावजूद उपमुख्यमंत्री के दौरे के वक्त पुलिस बल की पर्याप्त तैनाती भी नहीं की गई. इस कारण बात बिगड़ गई तो अचानक कुछ करते नहीं बना. जिले के दो थानों की पुलिस के बारे में तो यह तक खबर आई कि वह डर के मारे अपने थाने ही छोड़कर चली गई.
अब प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इन घटनाओं को दु:खद करार देते हुए आश्वस्त कर रहे हैं कि उनके दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा. लेकिन इस वक्त सबसे बड़ी जरूरत यह है कि आंदोलनकारी किसानों व सरकारों के बीच, न सिर्फ उत्तर प्रदेश बल्कि केंद्र और दूसरे भाजपाशासित राज्यों में भी लगातार बढते जा रहे अविश्वास को घटाने के गम्भीर प्रयत्न किए जाएं.
इसके लिए सबसे पहले सत्ताधीशों को वैसी धमकियां व चुनौतियां देने से बाज आना होगा जैसी केंद्रीय गृह राज्यमंत्नी ने लखीमपुर खीरी के किसानों को नाहक ही दीं.
वैसे भी उनका काम आंदोलित समुदायों की समस्याओं को धैर्यपूर्वक सुनना और लोकतांत्रिक ढंग से सुलझाना होता है, न कि उन्हें धमकाना या सामने आकर मुकाबला करने को कहना. उनमें से कोई ऐसा करता है तो कर्तव्यच्युत तो होता ही है, जनविश्वास भी खोता है.