विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: लखीमपुर खीरी के आपराधिक कांड से उठते सवाल
By विश्वनाथ सचदेव | Published: October 6, 2021 12:13 PM2021-10-06T12:13:50+5:302021-10-06T12:25:04+5:30
हमें पूछना होगा अपनी निर्वाचित सरकारों से कि लखीमपुर खीरी जैसे कांड के समय वे विपक्ष के नेताओं को हिरासत में लेना क्यों जरूरी समझती हैं? आज सवाल भाजपा की सरकार से पूछे जा रहे हैं, क्या ऐसे ही किसी मौके पर पहले कभी भाजपा के नेता पीड़ितों से मिलने नहीं गए थे?
लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश के एक शहर का नाम है, पर आज यह नाम कई और चीजों का भी प्रतीक बन गया है. प्रदेश के उपमुख्यमंत्री के एक कार्यक्रम में विरोध-प्रदर्शन के लिए देश में चल रहे किसान-आंदोलन से जुड़े कुछ कार्यकर्ता वहां पहुंचे थे. कुछ लोगों ने उन्हें अपनी गाड़ियों से रौंदने की कोशिश की, जिसके चलते चार किसानों समेत नौ लोगों की मृत्यु हो गई, जिनमें एक पत्नकार भी है.
आरोप यह है कि गाड़ी से रौंदने वालों में एक केंद्रीय मंत्री के बेटे का भी हाथ था. कुछ अज्ञात व्यक्तियों द्वारा अपराध किए जाने के खिलाफ शिकायत दर्ज कर दी गई है और पुलिस मामले की तहकीकात कर रही है.
यूं तो यह बात यहीं खत्म हो जाती है, पर खत्म होनी नहीं चाहिए. पुलिस की जांच में क्या सामने आता है (पढ़िए सामने लाया जाता है) यह तो आने वाला कल ही बताएगा, पर आज जितना कुछ सामने आया है, वह कुछ गंभीर सवाल खड़े कर रहा है.
ज्ञातव्य है कि लखीमपुर खीरी के इस घोर आपराधिक कांड के तीन-चार दिन पहले ही केंद्रीय गृह राज्य मंत्री ने एक सार्वजनिक सभा में खुलेआम धमकी दी थी. इसका वीडियो सोशल मीडिया में काफी वायरल हुआ. ऐसा कहा जा रहा है कि मंत्रीजी की इस धमकी और उनके बेटे पर गाड़ी से किसानों को रौंदने के आरोप को अलग-अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए.
मंत्री महोदय की धमकी अपने आप में किसी अपराध से कम नहीं है और नैतिकता का तकाजा है कि मामले की जांच होने तक और निरपराध घोषित किए जाने तक, संबंधित मंत्री पद पर न रहें. इससे दो लाभ होंगे.
एक तो यह कि मंत्रीजी पर जांच-कार्य में किसी तरह की दखलंदाजी करने का आरोप नहीं लग पाएगा और दूसरे, हमारे मंत्रियों तक यह संदेश भी जाएगा कि उनसे सार्वजनिक जीवन में एक संयम बरतने की अपेक्षा की जाती है. एक अर्से से यह संयम लगातार बिखरता दिख रहा है.
यहां यह जानना महत्वपूर्ण है कि केंद्रीय मंत्री द्वारा मिनटों में कुचल देने वाले आपराधिक बयान के बाद हरियाणा के मुख्यमंत्री ने भी 'जैसे को तैसा' का संदेश अपने कार्यकर्ताओं को दिया था. यदि यह सही है तो यह भी अपने आप में किसी अपराध से कम नहीं है.
दुर्भाग्य की बात यह है कि आज हमारी राजनीति में इस तरह के अपराध करने वालों को खुलकर खेलने के मौके दिए जाते हैं. पश्चिम बंगाल ताजा उदाहरण है इस तरह की राजनीतिक हिंसा का. इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि किस पक्ष ने पहले अपराध किया और किसने बाद में.
अपराध तो अपराध होता है. हर अपराधी को सजा मिलनी चाहिए, यही न्याय का तकाजा है. और न्याय तभी होता है, जब वह होते हुए दिखे भी.
जैसा कि हम अक्सर देखते हैं, अब भी यही कहा जाएगा कि लखीमपुर खीरी में केंद्रीय मंत्री के भाषण और हरियाणा के मुख्यमंत्री के चर्चित वीडियो में छेड़छाड़ की गई है. होती है छेड़छाड़, इससे इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन राजनीतिक नैतिकता का तकाजा है कि संबंधित केंद्रीय मंत्री और हरियाणा के मुख्यमंत्री को आगे आकर यह प्रमाणित करवाना चाहिए कि उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा, जैसा उन्हें कहते हुए बताया जा रहा है.
यदि इन दोनों वीडियो में छेड़छाड़ नहीं हुई है और संबंधित केंद्रीय मंत्री और एक राज्य के मुख्यमंत्री ने वह कहा है जैसा वे कहते हुए दिख रहे हैं, तो यह किसी गंभीर आपराधिक कृत्य से कम नहीं है.
पर दुर्भाग्य से, हमारी राजनीति की एक सच्चाई यह भी है कि हमारे राजनेता यह मान कर चलते हैं कि उन्हें कुछ भी कहने-करने का अधिकार है. इस प्रवृत्ति पर लगाम लगनी ही चाहिए.
और लगाम लगाने का यह काम यदि व्यवस्था नहीं करती तो जनतंत्र में यह काम करने का दायित्व नागरिक का होता है. वे अपने वोट से अपनी सरकार चुनते हैं, इसलिए चुने हुए नेताओं के व्यवहार पर नजर रखने का अधिकार भी उनका है. यह सिर्फ अधिकार नहीं है, कर्तव्य भी है.
इसीलिए, आज लखीमपुर खीरी के संदर्भ में जो कुछ हुआ है, उस पर सवालिया निशान लगाने का काम हर जागरूक नागरिक का है.
समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा था कि जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करतीं. पांच साल बाद चुनाव होते हैं हमारे यहां. यह वह अवसर होता है जब मतदाता अपनी सरकार चुनता है.
पर इसका अर्थ यह नहीं है कि एक बार वोट देने के पांच साल बाद ही मतदाता अपने प्रतिनिधियों से उनके कहे-किए का हिसाब मांग सकता है. जनतंत्र में हिसाब मांगने की यह प्रक्रिया लगातार चलनी चाहिए. यही जिंदा कौम की पहचान है. हिसाब मांगो, सवाल उठाओ.
हमें पूछना होगा अपनी निर्वाचित सरकारों से कि लखीमपुर खीरी जैसे कांड के समय वे विपक्ष के नेताओं को हिरासत में लेना क्यों जरूरी समझती हैं?
पंजाब या छत्तीसगढ़ का मुख्यमंत्री गैरजिम्मेदार क्यों लगता है उत्तर प्रदेश की सरकार को? एक राष्ट्रीय दल की महामंत्री या प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री का पीड़ित किसानों से मिलना किसी सरकार को क्यों स्वीकार्य नहीं होता?
आज सवाल भाजपा की सरकार से पूछे जा रहे हैं, क्या ऐसे ही किसी मौके पर पहले कभी भाजपा के नेता पीड़ितों से मिलने नहीं गए थे? जो काम उनके लिए सही और जरूरी था, वैसा ही काम यदि उनके विरोधी कर रहे हैं या करना चाहते हैं, तो वह गलत क्यों है?