कृष्ण प्रताप सिंह का ब्लॉग: भगत सिंह और लोहिया को एक साथ कैसे याद करें?
By कृष्ण प्रताप सिंह | Published: March 23, 2021 11:55 AM2021-03-23T11:55:43+5:302021-03-23T11:55:43+5:30
23 मार्च: आज शहीद दिवस है। भगत सिंह समेत राजगुरु और सुखदेव को अंग्रेजों ने फांसी दे दी थी। वहीं, आज राम मनोहर लोहिया की भी जयंती है।
हमारे देश के आधुनिक इतिहास में कई ऐसे दिन हैं, जिन्हें हमारे एक से ज्यादा नायकों की जयंतियां या शहादत दिवस होने का श्रेय हासिल है. जब भी ऐसा कोई दिन आता है, हमें उसे उन सभी नायकों के बीच ‘बांटने’ की असुविधा का सामना करना पड़ता है. आज की यानी 23 मार्च की तारीख भी उनमें से एक है.
1910 में उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले के अकबरपुर कस्बे में, जो अब आंबेडकर नगर जिले का मुख्यालय है, इसी दिन प्रख्यात समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया का जन्म हुआ था.
स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान 1931 में क्रूर अंग्रेजों ने इसी दिन शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह और उनके राजगुरु व सुखदेव जैसे क्रांतिकारी साथियों को शहीद कर डाला, तो यह उनका शहादत दिवस भी हो गया.
साफ कहें तो डॉ. लोहिया भारतीय राजनीति के संभवत: अकेले ऐसे नेता थे, जिनके पास इसको लेकर एक सुविचारित सिद्धांत था. वे हर हाल में शहादत दिवसों को जयंतियों पर तरजीह देने के पक्ष में थे.
उनका मानना था कि जन्म पर हमारा कतई वश नहीं होता और हम पैदा होते हैं तो सिर्फ उन माता-पिता या परिजनों-प्रियजनों के होते हैं, जो हमारा या हम उनका चुनाव नहीं होते. लेकिन शहादतें बिना हमारे कुछ कहे, हमारे पक्ष, उसूलों व मान्यताओं का ऐलान कर देती हैं.
यह भी बता देती हैं कि हम अपनी शहादत तक वास्तव में किनके लिए जीते-मरते रहे? यकीनन, हमारे पास अपने देश या समाज को देने के लिए जान से बढ़कर कुछ नहीं होता. दिल की बात बीच में लाएं तो वह भी जान की सलामती तक ही सलामत रहता है.
ऐसे में कोई देश के लिए अपनी जान लुटा दे तो शहादत दिवस पर उसे सलाम करने के लिए हजार जन्मदिन या जयंतियां कुर्बान की जा सकती हैं.
इसीलिए 1931 में 23 मार्च को भगत सिंह और उनके साथियों की शहादतों के बाद डॉ. लोहिया ने खुद तो अपना जन्मदिन मनाना बंद कर ही दिया था, अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को भी उसे मनाने से मना कर दिया था. कोई बहुत आग्रह करता तो उससे साफ कह देते थे कि अब 23 मार्च सरदार भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव का शहादत दिवस है और उसे उसी रूप में याद किया जाना चाहिए.
अपने बारे में उनका कहना था : ‘लोग मेरी बात सुनेंगे, पर शायद मेरे मरने के बाद’ और जयंतियों की बाबत यह कि किसी भी विभूति की जयंतियां मनाना या प्रतिमाएं लगाना तब तक शुरू नहीं किया जाना चाहिए, जब तक इतिहास पूरी तरह निरपेक्ष होकर उसके योगदान की समीक्षा करने में सक्षम न हो जाए.
उन्होंने इसके लिए बाकायदा एक समय सीमा तय की थी, जो दशकों में नहीं शताब्दियों में थी. यह और बात है कि आज की तारीख में वह समय सीमा उनके अनुयायी तक स्वीकार नहीं कर रहे.