आलोकशिल्पी तापस सेन ने जब गंगा को मंच पर उतारा, कृपाशंकर चौबे का ब्लॉग

By कृपाशंकर चौबे | Published: September 11, 2020 01:49 PM2020-09-11T13:49:45+5:302020-09-11T13:49:45+5:30

नाटक के एक दृश्य में दर्शकों ने देखा कि मंच पर गंगा नदी प्रकट हो गईं. वह दृश्य देखकर सभागार में मौजूद तत्कालीन मुख्यमंत्नी बुद्धदेव भट्टाचार्य, फिल्मकार मृणाल सेन, गौतम घोष, साहित्य समालोचक नामवर सिंह और स्वयं कथाकार काशीनाथ सिंह अभिभूत हो उठे थे. उसी नाटक में एक और दृश्य अविस्मरणीय था.

Kripa Shankar Chaubey's blog when Alokshilpi Tapas Sen brought Ganga to the stage | आलोकशिल्पी तापस सेन ने जब गंगा को मंच पर उतारा, कृपाशंकर चौबे का ब्लॉग

उजास सुबह का दृश्य, विशु-नंदिनी की अंतरंग बतकही का दृश्य अनोखे ढंग से उन्होंने रचा था.

Highlightsनाटक में सपने में शंकर भगवान के प्रकट होने के पहले त्रिशूल की छाया दिखती है और उसके ठीक बाद त्रिशूल लिए शंकर भगवान दिखते हैं. उजाले की छाया का कमाल. उन दृश्यों को जिसने मंच पर संभव किया था, उस आलोकशिल्पी से आज आपको मिला रहा हूं.उषा गांगुली निर्देशित ‘काशीनामा’ नाटक के मंचन के दौरान गंगा का अवतरण हो गया और शंकर के प्रकट होने के पहले त्रिशूल की छाया दिखी.

आज से सत्नह साल पहले की बात है. वर्ष 2003 की. कोलकाता के अकादमी आफ फाइन आर्ट्स सभागार में काशीनाथ सिंह की कहानी ‘पांड़े कौन कुमति तोंहि लागि’ पर आधारित ‘काशीनामा’ नाटक का मंचन हो रहा था.

नाटक के एक दृश्य में दर्शकों ने देखा कि मंच पर गंगा नदी प्रकट हो गईं. वह दृश्य देखकर सभागार में मौजूद तत्कालीन मुख्यमंत्नी बुद्धदेव भट्टाचार्य, फिल्मकार मृणाल सेन, गौतम घोष, साहित्य समालोचक नामवर सिंह और स्वयं कथाकार काशीनाथ सिंह अभिभूत हो उठे थे. उसी नाटक में एक और दृश्य अविस्मरणीय था.

नाटक में सपने में शंकर भगवान के प्रकट होने के पहले त्रिशूल की छाया दिखती है और उसके ठीक बाद त्रिशूल लिए शंकर भगवान दिखते हैं. उजाले की छाया का कमाल. उन दृश्यों को जिसने मंच पर संभव किया था, उस आलोकशिल्पी से आज आपको मिला रहा हूं. वे थे तापस सेन. उन्होंने प्रकाश और अंधकार का ऐसा संयोजन किया कि उषा गांगुली निर्देशित ‘काशीनामा’ नाटक के मंचन के दौरान गंगा का अवतरण हो गया और शंकर के प्रकट होने के पहले त्रिशूल की छाया दिखी.

तापस सेन (11 सितंबर, 1924-28 जून, 2006) बंगाल में कला की दुनिया के ऐसे रोशनदान थे, जिन्होंने छह दशकों से ज्यादा समय तक मंच को आलोकित किए रखा. ‘सेतु’ नाटक में ट्रेन दुर्घटना का दृश्य हो या ‘अंगार’ में खान के भीतर पानी के घुसने का दृश्य, अपनी प्रकाश रचना से तापस सेन ने इन दृश्यों को जीवंत कर दिया था. ये दृश्य अंतरराष्ट्रीय मान की क्लासिक रचनाएं मानी जाती हैं. ‘रक्तकरबी’ में तापस दा ने एक असंभव मंच प्रयास को संभव किया था. उजास सुबह का दृश्य, विशु-नंदिनी की अंतरंग बतकही का दृश्य अनोखे ढंग से उन्होंने रचा था.

उन्होंने स्थान और परिवेश के लिए अलग-अलग प्रकाश की रचना की थी. वह रचना दृश्य से दृश्यांतर को जाती थी. पाश्र्व में रहकर भी तापस सेन ने प्रकाश-परिकल्पना को कला के दर्जे तक पहुंचाया, उसका मूल्य और महत्व प्रतिष्ठित किया. प्रकाश परिकल्पना को स्वतंत्न कला की गरिमा और ऊंचाई दी.

स्थितियों और प्रसंगों के अनुकूल प्रकाश रचने में उन्हें महारत हासिल थी. उन्होंने हिंदी, बांग्ला व अन्य भाषाओं के अनेक नाटकों, नृत्य सभा मंचों और फिल्मों के लिए प्रकाश-परिकल्पना कर भाषा सेतु बंधन भी किया. रंगमंच में विजन भट्टाचार्य, शंभु मित्न, ऋ त्विक घटक और उत्पल दत्त जब बांग्ला रंगमंच के नए रहनुमा बनकर दर्शकों के सामने आए तो उन सबके रंगमंच को आलोकित करने का काम तापस सेन ने ही किया. उन्होंने सत्यजित राय, मृणाल सेन, रविशंकर, उदयशंकर, हबीब तनवीर जैसे दिग्गजों के साथ भी काम किया.

उदय शंकर की नृत्य रचना ‘छाया नृत्य’ में तापस दा की प्रकाश परिकल्पना को आज भी याद किया जाता है. उसमें तापस दा ने दिखाया था कि प्रकाश की छाया में चेहरा, रूप, किस तरह बदलता है और शैडो की कितनी महती भूमिका होती है. तापस सेन मौलिक सूझबूझ के साथ रोशनी रचते थे. तापस दा अंधेरे की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते थे. उन्होंने इस धारणा को तोड़ा कि रोशनी द्वारा ही भावों को व्यक्त किया जा सकता है. उन्होंने अपने सृजन कर्म से दिखाया कि अंधेरा भी बहुत कुछ कहता है, अंधेरा भी रचना है.

तापस दा अंधेरे को काली रोशनी मानते थे. उनकी हर प्रकाश-परिकल्पना में प्रकाश और अंधकार का यथोचित संयोजन होता था. इस संयोजन को यानी कला के मर्म को उन्होंने किशोरावस्था में ही महसूस कर लिया था और यह मर्म उन्होंने बचपन के परिवेश से पाया था. वे बंगाली थे पर जन्मे थे असम के धुबड़ी में. जब वे थोड़े बड़े हुए तो जिस परवेश से उनका सामना हुआ, वह अंधेरे और उजाले का छुपा-छुपाईवाला खेल था. उस परिवेश का वर्णन वे अक्सर करते थे- तब बिजली नहीं हुआ करती थी.

रात में नदी पर आते-जाते स्टीमरों की सर्चलाइट दूर-दूर तक जाती थी. वह प्रकाश हटता तो अंधेरा दिखता. जुगनुओं को देखकर भी मन खिल उठता. उस परिवेश का उन पर जो असर पड़ा उसी से पॉलिटेक्निक इंजीनियरिंग करने के बाद भी उन्होंने आलोकशिल्प का चयन किया.

कला व साहित्य की गहरी समझ थी, इसलिए कला, साहित्य व टेक्नोलॉजी में संश्लेषण को सम्भव किया. उनकी रंग यात्ना पंद्रह वर्ष की उम्र में ‘राजपथ’ नाटक से शुरू हुई थी और मरने के कुछ दिनों पूर्व तक वे डॉली बसु व उषा गांगुली के नाटकों की प्रकाश-परिकल्पना में व्यस्त थे. रंगमंच में उल्लेखनीय अवदान के लिए तापस दा संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार और कालिदास सम्मान समेत देश-विदेश के कई पुरस्कारों से नवाजे गए.

Web Title: Kripa Shankar Chaubey's blog when Alokshilpi Tapas Sen brought Ganga to the stage

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