दोराहे पर पहुंच गया है किसान आंदोलन, अभय कुमार दुबे का ब्लॉग
By अभय कुमार दुबे | Published: February 17, 2021 11:25 AM2021-02-17T11:25:14+5:302021-02-17T11:26:59+5:30
केंद्र के तीन नए कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के आंदोलन के अब तीन महीने होने को हैं, आंदोलन में शामिल होने के लिए अधिक लोग जुट रहे हैं.
दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे किसान आंदोलन की खबरें लगातार सुर्खियों में हैं, लेकिन इस आंदोलन के प्रभाव से राजनीति के अन्य पहलुओं पर क्या असर पड़ रहा है, इसके बारे में जानकारी कम ही है.
इसका एक नमूना पंजाब में स्थानीय निकायों के चुनावों के रूप में देखा जा सकता है. वहां के आठ नगर निगमों और 109 नगर परिषदों/नगर पंचायतों के लिए वोट पड़ चुके हैं. अकाली दल और भाजपा के गठजोड़ ने पिछली बार हुए चुनाव में जबर्दस्त जीत हासिल की थी. अकाली दल से भी बेहतर नतीजे भाजपा ने निकाले थे.
भाजपा को दो-तिहाई सीटों पर खड़े करने के लिए उम्मीदवार ही नहीं मिले
लेकिन इस बार किसान आंदोलन के कारण हालात एकदम उलट गए हैं. भाजपा को दो-तिहाई सीटों पर खड़े करने के लिए उम्मीदवार ही नहीं मिले. न ही उसके प्रादेशिक और स्थानीय नेता बाकी सीटों पर चुनाव-प्रचार करने की स्थिति में हैं. इस संदर्भ में मोहाली की घटना उल्लेखनीय है. नगर कौंसिल टांडा के वार्ड नंबर आठ के भाजपा उम्मीदवार बलजीत सिंह पर दबाव डाल कर कुछ नौजवान किसानों ने उनकी उम्मीदवारी वापस करवा दी. बलजीत ने अपने हाथों से अपने पोस्टर उतारे.
डेढ़ सौ के आसपास किसान मौजूद रहते हैं
उनके साथ भाजपा के तीन उम्मीदवारों ने भी चुनाव न लड़ने का ऐलान किया. पंजाब भाजपा के तीस से ज्यादा नेताओं के घर के सामने किसानों ने पिछले चार महीने से पक्के धरने लगा रखे हैं. इस कारण से उन्हें अपने घर में ही बंद रहना पड़ता है. एक-एक टेंट के नीचे एक बार में डेढ़ सौ के आसपास किसान मौजूद रहते हैं. बीस से ज्यादा भाजपा नेता पार्टी छोड़ चुके हैं. इनमें मालविंदर सिंह कंग का नाम उल्लेखनीय है, क्योंकि वे पार्टी की केंद्रीय कमेटी में अकेले सिख उपस्थित थे. इनमें से कुछ ने अकाली दल का दामन थाम लिया है.
कंग के बाद पंजाब भाजपा में सबसे बड़ी सिख उपस्थिति हरजीत सिंह ग्रेवाल की है. दिसंबर मध्य में ग्रेवाल ने एक बयान में आंदोलनकारी किसानों को ‘अरबन नक्सल’ करार दिया. नतीजे के तौर पर तभी से ग्रेवाल को सिख किसानों के सामाजिक बायकॉट का सामना करना पड़ रहा है. हालत यह है कि किसानों ने चुनौती दी है कि ग्रेवाल गांव में अपनी जमीन को खेती के लिए इस बार कॉन्ट्रेक्ट पर उठा सकते हैं तो उठा कर दिखाएं. दूसरे, अगर उनमें हिम्मत है तो वे किसी नगर पालिका का चुनाव तक लड़ कर देखें. स्थिति यह है कि ग्रेवाल 28 नवंबर से ही दिल्ली में अपना डेरा डाले हुए हैं.
अकाली दल को भी उनका रोष झेलना पड़ रहा
पक्के धरने के कारण घरों में बंद भाजपा नेता अगर हिम्मत करके कहीं जाते भी हैं तो किसान उनके पीछे-पीछे जा कर उनके खिलाफ प्रदर्शन करते हैं, उनका घेराव होता है. दरअसल, किसान स्थानीय निकायों के चुनावों के आयोजन को लेकर नाराज हैं. भाजपा की गतिविधियों को तो उन्होंने शून्य कर दिया है, लेकिन अकाली दल को भी उनका रोष झेलना पड़ रहा है.
28 दिसंबर को सुखबीर सिंह बादल को फतेहगढ़ साहब गुरुद्वारे में कृषि कानूनों पर भाषण देना था. लेकिन किसानों ने उनकी जबर्दस्त हूटिंग की, और उन्हें पिछले दरवाजे से पलायन करना पड़़ा. 3 फरवरी को सुखबीर बादल के एक वाहन को फाजिल्का निर्वाचन क्षेत्र में इसलिए घेर लिया गया कि उसमें एक अकाली उम्मीदवार को पर्चा भरवाने ले जाया जा रहा था. किसान कांग्रेस सरकार की भी इसलिए आलोचना कर रहे हैं कि जब किसानों का प्रदर्शन चल रहा था तो इन चुनावों को घोषित करने की आवश्यकता ही क्या थी.
किसानों की नाराजगी 1982 में हुए असम विधानसभा चुनावों की याद दिला देती
निकाय चुनावों से किसानों की नाराजगी 1982 में हुए असम विधानसभा चुनावों की याद दिला देती है. इंदिरा गांधी की तत्कालीन सरकार ने बहिरागतों के खिलाफ चल रहे छात्र-युवा आंदोलन की मांगों की उपेक्षा करते हुए ये चुनाव करवाए थे. असमी जनता ने इनका बायकॉट किया, और इनमें कई निर्वाचन-क्षेत्रों में मतदान का प्रतिशत दो के आसपास रहा था. जाहिर है कि पंजाब में निकायों के चुनावों का स्तर वह नहीं है, न ही चुनाव बायकॉट की कोई अपील की गई है. लेकिन जनरोष का चरित्र लगभग वैसा ही है.
वस्तुत: अपनी मांगों के बारे में राजनीतिक दलों के रवैये से किसानों में बहुत क्षोभ है. उनके सामने यह सवाल भी है कि अगर वे राजनीतिक दलों को अपने मंच पर आने देते हैं, तो उससे उनके आंदोलन को क्या लाभ होगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार आंदोलन के साथ जुड़ने वाले विपक्षी दलों के बहाने उनके दमन पर उतर आएगी?
किसानों का नेतृत्व फूंक-फूंक कर कदम रख रहा है. लाल किले की घटना के बाद वह सरकार को अपने खिलाफ पेशबंदी करने का कोई मौका नहीं देना चाहता. लेकिन, किसान नेताओं की भाषा पहले के मुकाबले उत्तरोत्तर आक्रामक होती जा रही है. वे अब खुलकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मंचों से आलोचना करने लगे हैं. गैर-राजनीतिक किसान आंदोलन एक ऐसे दोराहे पर खड़ा है जिसका एक रास्ता सरकार और भाजपा विरोधी राजनीति की तरफ जाता है.