ब्लॉग: खालसा मेरो रूप है खास, खालसे में हऊ करों निवास

By नरेंद्र कौर छाबड़ा | Published: April 13, 2024 09:54 AM2024-04-13T09:54:39+5:302024-04-13T09:57:45+5:30

जब गुरु गोविंद सिंह जी ने देखा कि उनके पिता गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान के बावजूद भी औरंगजेब पर कुछ असर नहीं पड़ रहा तथा उसके जुल्म एवं अत्याचार दिन-प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे हैं, लोग लुक-छिप कर दिन व्यतीत कर रहे हैं

Khalsa my form is special I reside in Khalsa | ब्लॉग: खालसा मेरो रूप है खास, खालसे में हऊ करों निवास

फाइल फोटो

Highlights13 अप्रैल सन्‌ 1699 को प्रातः के शबद कीर्तन के पश्चात गुरु जी ने दरबार में दाहिने हाथ में तलवार लेकर ललकारती हुई ध्वनि में संगत को संबोधित करते हुए कहागुरु जी ने अपने शिष्यों को शक्ति दी, अत्याचार एवं जुल्म का सामना करने के लिएसिखों ने दुश्मनी के लिए तलवार नहीं उठाई बल्कि स्वयं की रक्षा तथा अन्याय का सामना करने के लिए शस्त्र का प्रयोग किया

जब गुरु गोविंद सिंह जी ने देखा कि उनके पिता गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान के बावजूद भी औरंगजेब पर कुछ असर नहीं पड़ रहा तथा उसके जुल्म एवं अत्याचार दिन-प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे हैं, लोग लुक-छिप कर दिन व्यतीत कर रहे हैं, तब गुरु गोविंद सिंह जी ने कहा मैं एक ऐसे पंथ की स्थापना करूंगा जो लुक-छिपकर, डरकर दिन व्यतीत नहीं करेगा, अपितु हजारों लाखों की गिनती में से ऐसा होगा जो अपने न्यारेपन तथा श्रेष्ठता से पहचाना जाएगा।

13 अप्रैल सन्‌ 1699 को प्रातः के शबद कीर्तन के पश्चात गुरु जी ने दरबार में दाहिने हाथ में तलवार लेकर ललकारती हुई ध्वनि में संगत को संबोधित करते हुए कहा- है कोई सिख बेटा जो करे सीस भेटा, पंडाल में सन्नाटा छा गया। गुरु जी ने फिर एक बार गूंजती हुई आवाज में अपनी मांग को दोहराया तब भाई दयाराम ने जो कि लाहौर निवासी खत्री था खड़े होकर इस प्रकार कहा- मेरा मुझ में कुछ नहीं जो कुछ है सो तेरा उसके पश्चात धर्मचंद ( दिल्ली का जाट) मोहकम चंद ( द्वारका का धोबी) हिम्मत राय (जगन्नाथ का कहार )तथा साहब चंद (नाई) आगे आए।

तब गुरुजी उन्हें पंडाल के भीतर ले गए तथा कुछ देर बाद जब वे बाहर आए तो उनके साथ पांच सिख थे जिन्होंने गुरु जी को अपने शीश भेंट किए थे। उन्होंने एक ही प्रकार की वर्दी पहनी हुई थी. प्रत्येक ने अपनी कमर में तलवार धारण की हुई थी। गुरुजी ने उन्हें पांच प्यारे की उपाधि दी। गुरु जी ने अपने शिष्यों को शक्ति दी, अत्याचार एवं जुल्म का सामना करने के लिए। सिखों ने दुश्मनी के लिए तलवार नहीं उठाई बल्कि स्वयं की रक्षा तथा अन्याय का सामना करने के लिए शस्त्र का प्रयोग किया।

इस बात का स्पष्टीकरण करते हुए गुरुजी ने अपनी वाणी जफरनामा में लिखा है कि तलवार तो हमारा अंतिम हथियार है। जब हमारे सब उपाय निष्फल हो जाते हैं तब अपनी रक्षा के लिए एवं धर्म युद्ध के लिए हमें तलवार उठानी पड़ती है। किसी शस्त्रहीन अथवा टूटे हुए शस्त्र वाले एवं कायर व्यक्ति पर आक्रमण करने की उन्होंने सख्त मनाही की थी।

गुरु जी ने अपनी सेना के वैद्यों को भी आदेश दे रखा था कि घायल शत्रु की भी उसी भांति चिकित्सा एवं देखभाल की जाए जिस प्रकार अपनी सेना के घायल सिपाहियों की की जाती है। उनके निजी तीरों के साथ कुछ सोना लगा रहता था जिसका तात्पर्य यह था कि यदि गुरु जी के तीर से कोई शत्रु घायल हो जाए तो वह सोने को बेचकर प्राप्त धन से अपनी चिकित्सा कर सके। कितना आश्चर्य होता है यह जानकर कि वे अपने शत्रुओं के लिए भी इस प्रकार की शुभकामनाएं रखते थे। 

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