कपिल सिब्बल का ब्लॉग: सीमित हाथों तक न सिमटें आर्थिक संसाधन
By कपील सिब्बल | Published: November 6, 2020 12:05 PM2020-11-06T12:05:34+5:302020-11-06T12:07:00+5:30
आज हम अमीरों और गरीबों के बीच व्यापक असमानता देखते हैं. वर्ष 2019 में दस प्रतिशत अमीर लोगों में भी एक प्रतिशत लोगों के पास देश की 42.5 प्रतिशत दौलत थी, जबकि आर्थिक रूप से कमजोर 50 प्रतिशत लोगों के पास मात्र 2.8 प्रतिशत धन था.
प्राकृतिक संसाधनों के वितरण को लेकर हमें विकास के एक नए आर्थिक मॉडल की आवश्यकता है. एक नीति के रूप में, सरकारें निजी क्षेत्रों को इन संसाधनों का व्यापक सार्वजनिक हित के लिए दोहन करने की अनुमति दे रही हैं. लेकिन हम क्रोनी कैपिटलिज्म के एक अलग ही रूप की ओर बढ़ रहे हैं.
प्रमुख सार्वजनिक संपत्ति और संसाधनों को उन चुनिंदा लोगों द्वारा मुट्ठी में किया जा रहा है, जिन्हें सत्ताधीशों का करीबी माना जाता है. हम एक आर्थिक कुलीनतंत्र बन रहे हैं जहां प्राकृतिक संसाधन, जो सार्वजनिक संपत्ति हैं, पर कुछ लोगों का एकाधिकार हो रहा है, जो बदले में खुद मुनाफा कमाने के साथ अपने राजनीतिक आकाओं को लाभान्वित करते हैं.
आर्थिक समृद्धि के बिना, कमजोर वर्ग का जीवन स्तर ऊपर नहीं उठाया जा सकता है. लेकिन इसके लिए विकास के एक ऐसे मॉडल की आवश्यकता है जिसमें उन सभी लोगों को जगह मिले जो विभिन्न आर्थिक उद्यमों में हिस्सा लेते हैं.
आज हम अमीरों और गरीबों के बीच व्यापक असमानता देखते हैं. वर्ष 2019 में दस प्रतिशत अमीर लोगों में भी एक प्रतिशत लोगों के पास देश की 42.5 प्रतिशत दौलत थी, जबकि आर्थिक रूप से कमजोर 50 प्रतिशत लोगों के पास मात्र 2.8 प्रतिशत धन था. इसी तरह, सबसे अमीर 10 प्रतिशत आबादी के पास कुल राष्ट्रीय संपत्ति का 74.3 प्रतिशत है, जबकि शेष 90 प्रतिशत के पास मात्र 25.7 प्रतिशत है.
जनवरी में जारी ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार, इंडिया में सबसे अमीर एक प्रतिशत लोगों के पास 95.3 करोड़ लोगों से चार गुना अधिक संपत्ति है. भारत में लगभग 80 करोड़ लोग महीने में 10000 रु. से कम कमाते हैं. यह एक सफल आर्थिक मॉडल की नींव नहीं हो सकता. हमें क्षेत्रवार रणनीति अपनाने की जरूरत है.
उदाहरण के लिए, दूरसंचार क्षेत्र ने संचार में क्रांति ला दी और इसे लगभग एक अरब लोगों के घरों तक पहुंचा दिया. लेकिन यह क्षेत्र समायोजित सकल राजस्व बकाया को छोड़कर 31 मार्च तक 4.4 लाख करोड़ से अधिक के ऋण में डूबा हुआ है. अल्फ्रेड नोबल की याद में दिया जाने वाला ‘द स्वेरिग्स रिक्सबैंक प्राइज इन इकोनॉमिक साइंस’ इस बार पॉल आर मिलग्रॉम और रॉबर्ट विल्सन को नीलामी के सिद्धांत में सुधार और नए नीलामी प्रारूपों में नवाचार के लिए दिया गया है.
उन्होंने नीलामी के खिलाफ की गई आलोचनाओं का विेषण किया और बताया कि नीलामी की प्रवृत्ति अक्सर खरीदारों को बढ़-चढ़कर बोली लगाने को प्रेरित करती है जिसके बिना उनके उद्यम जीवित नहीं रह सकते. ऐसे संसाधन उनके लिए कच्चे माल की तरह हैं. इस परिणाम को विजेता का अभिशाप कहा जाता है.
इसलिए, नीलामी को इस तरह से डिजाइन किया जाना चाहिए कि विजेता इकाई के ऋण दायित्वों का निर्वहन करने के लिए मुनाफा हासिल कर सके. स्पष्ट रूप से, भारत में स्पेक्ट्रम की नीलामी को खराब तरह से डिजाइन किया गया था, फलस्वरूप दो प्रमुख खिलाड़ी बाजार को नियंत्रित कर रहे थे.
कोयला ब्लॉकों की नीलामी ने सरकारी दावों के बावजूद बोली लगाने वालों को उत्साहित नहीं किया है, जबकि निजी क्षेत्र की भागीदारी के साथ कोयला उत्पादन तेजी से बढ़ेगा. इस प्रक्रिया में, सरकार को यह भी उम्मीद थी कि ये नीलामी उसके लिए पर्याप्त आय का स्नेत होगी.
ये सभी आशाएं झूठी साबित हुई हैं. इससे बिजली और अर्थव्यवस्था के अन्य प्रमुख क्षेत्रों पर असर पड़ा है. कोयले का हमारा स्वदेशी उत्पादन बाजार की मांग को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है. निजी उद्यमों को कोयला ब्लॉकों की नीलामी नहीं करने के कारण उच्च लागत पर कोयला आयात करना उद्योग को नुकसान पहुंचा रहा है.
हमें पहले प्राकृतिक संसाधनों के वितरण के पीछे के उद्देश्य को निर्धारित करना चाहिए, जिसमें खनिज, वायु तरंगें या अन्य परिसंपत्तियां शामिल हैं जो जनता की भलाई के लिए हैं. यदि उद्देश्य सरकार को समृद्ध करना होगा तो परिणाम बदल जाएगा और सार्वजनिक हित को नुकसान होगा.
यदि अस्पतालों और शैक्षणिक संस्थानों के लिए बाजार मूल्य पर भूमि की नीलामी की जाती है तो कुछ लोग ही निवेश कर पाएंगे क्योंकि परिसंपत्ति की कीमत उद्यम को अलाभकर बना देगी.
बेशक, सार्वजनिक संपत्ति को मिट्टी के मोल नहीं बांटा जा सकता है क्योंकि यह भी सार्वजनिक हित के खिलाफ है. जरूरत इस बात की है कि एक ऐसा आर्थिक मॉडल तैयार किया जाए जिसमें सरकार उद्योग द्वारा कमाए गए मुनाफे में हिस्सेदारी करे, क्योंकि वह सार्वजनिक संपत्ति का सार्वजनिक भलाई के लिए इस्तेमाल करता है.
इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर सरकार को निजी उद्यमों को सार्वजनिक संपत्ति के दोहन की अनुमति देने वाली नीतियों को अपनाना चाहिए. सरकार के साथ मुनाफे को साझा करने, क्योंकि उद्यम लगातार समृद्ध हो रहे हैं, की अपनी चुनौतियां होंगी. लेकिन खराब डिजाइनों के आधार पर सार्वजनिक संपत्ति की आनन-फानन में नीलामी उद्योग के लिए मौत की घंटी साबित होगी.
समय आ गया है कि राजनीतिक व्यवस्था और अधिक मजबूत और पारदर्शी हो. आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर वर्ग में समृद्धि पैदा करने के संदर्भ में सार्वजनिक उद्देश्य के साथ एक आर्थिक मॉडल की तत्काल आवश्यकता है. इस समय, हम एक ऐसे देश में रहते हैं जो लगता है कि अपना रास्ता भूल गया है; एक ऐसा देश जहां निजी हित सार्वजनिक भलाई पर हावी रहते हैं.