अविश्वास प्रस्ताव: खुद का एसिड टेस्ट 

By पुण्य प्रसून बाजपेयी | Published: July 20, 2018 08:15 AM2018-07-20T08:15:12+5:302018-07-20T08:15:12+5:30

ये किसी पर्दे के उठने के समान है. जब मांगे गए साठ महीनों में से 50 महीने गुजर चुके हैं और वही मुद्दे सामने आ खड़े हुए हैं जिनका जिक्र 2014 में था. और सामने 2019 हर किसी को नजर आ रहा है.  

Journalist Punya Prasun Bajpai Blog on no no confidence motion | अविश्वास प्रस्ताव: खुद का एसिड टेस्ट 

अविश्वास प्रस्ताव: खुद का एसिड टेस्ट 

ये किसी पर्दे के उठने के समान है. जब मांगे गए साठ महीनों में से 50 महीने गुजर चुके हैं और वही मुद्दे सामने आ खड़े हुए हैं जिनका जिक्र 2014 में था. और सामने 2019 हर किसी को नजर आ रहा है.  2014 में घोटालों की बात थी, महंगाई का जिक्र था. बढ़ते बलात्कार की चिंता थी. किसान-मजदूरों के हक के सवाल थे. कश्मीर में आतंक का जिक्र  था. पाकिस्तान से दो-दो हाथ करने की बात थी. रोजगार का सवाल था. चीन कीघुसपैठ पर गुस्सा था. स्टैपल वीजा को लेकर परेशानी थी. ब्लैक मनी का जिक्र था. स्विस बैंक का नारा था. लोकपाल की मांग थी. तो सत्ता पलट गई और 2019 की तरफ बढ़ते कदम फिर से मुद्दों का वही चक्रव्यूह लेकर सामने आ खड़े हुए हैं. किसान की हालत सुधरी नहीं. रेप बढ़ गए. मजदूरों के रोजगार छिन गए. पेट्रोल-डीजल की कीमतों ने जेब ढीली कर दी है. महंगाई हर दिन की है. कश्मीर के हालात और बिगड़ चुके हैं. पाकिस्तान संभल नहीं रहा. चीन-जापान-रूस अमेरिका के साथ संबंधों के बीच देश झूल रहा है. स्विस बैंक फिर से दरवाजा खटखटा रहा है.

लोकपाल की मांग है और भीड़तंत्न को लेकर गुस्सा है. और संसद में गृहमंत्नी ये कहने से नहीं चूकते कि लिंचिंग तो पहले भी हो रही थी. ये कोई नई चीज नहीं है. पर हम चिंतित हैं. तो क्या ये माना जाए कि 60 महीनों में से 50 महीने बीतने के बाद उसी चौखट पर देश खड़ा है. और कमोबेश हर मुद्दे पर सुनने को मिल रहा है कि ये तो पहले भी था. और संसद तैयार है उस पहले अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा और वोटिंग के लिए, जिसके जरिए हर किसी को लग रहा है कि वह अपनी बातों से देश में विश्वास पैदा कर लेगा. और 2019 उसका होगा. इसी बिसात पर 2019 के लिए नए गठबंधन बनने को तैयार हैं और 2019 के जरिए क्षत्नप अपने ताज को खोजने के लिए तैयार हैं. क्योंकि हर किसी को पता है संसद के अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा 2019 की उस जमीन को तैयार करेगी जो उसकी ताकत या कमजोरी को उभारेगा. सत्ता को लगता है वह अपनी चार बरस की उपलब्धियों से विपक्ष में सेंध लगा लेगी. तो दूसरी तरफ विपक्ष को लगता है कि वह सत्ता की उपलब्धियों को तार-तार कर देगा. यानी हर कोई मान कर चल रहा है कि अविश्वास प्रस्ताव के जरिए संसद पहली और शायद इस लोकसभा में आखिरी बार एक ऐसा मंच है जहां से एक-दूसरे को खारिज कर जनता का विश्वास पाने का आखिरी मौका है. यानी है अविश्वास प्रस्ताव, पर  जनविश्वास का एसिड टेस्ट बन चुका है.

इसीलिए अविश्वास पर चर्चा से पहले का हंगामा हो या शोर - सच यही है कि दावे-प्रतिदावे के बीच शुक्रवार को जब लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा शुरू होगी तो सवाल जीत-हार का नहीं होगा. सवाल सत्ता जाने या गंवाने का भी नहीं होगा. सवाल विपक्ष की एकजुटता का भी नहीं होगा. सवाल सिर्फ तीन होंगे. पहला, इस बहस में विपक्ष का कौन सा चेहरा उभरेगा जो ताकतवर नजर आए, जो सत्ता को चुनौती देने में सक्षम हो. दूसरा भाजपा के सहयोगी जिन सवालों को उठाएंगे और सत्ता पर चोट होगी तो उसे कैसे संभालेगी भाजपा. तीसरा, भाजपा के 100 से ज्यादा सांसदों को एहसास है इस बार उनका टिकट कटेगा. वे मुखर होंगे या खामोश रहेंगे, नजरें इस पर भी हर किसी की होंगी. 

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पर कल्पना कीजिए इस अविश्वास प्रस्ताव को रखने वाले क्षत्नप चंद्रबाबू नायडू हैं. चाहते हैं कि आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा मिले. लेकिन ये अविश्वास प्रस्ताव शायद संसदीय इतिहास में अपने तरह का अनूठा होगा. क्योंकि चर्चा में ढहते कानूनी तंत्न पर हावी होते भीड़तंत्न का जिक्र  होगा. संवैधानिक संस्थाओं के तार-तार होने का जिक्र होगा. सुप्रीम कोर्ट के भीतर से उठते सवालों का जिक्र  होगा. असंगठित क्षेत्न की खस्ता हालत का जिक्र  होगा. बढ़ते बलात्कार, सामाजिक असुरक्षा का जिक्र  होगा. दलित-मुस्लिम पर होते हमले और पनपती घृणा की राजनीति का जिक्र होगा. पेट्रोल-डीजल की कीमतें और ईरान-अमेरिका के बीच झूलती नीतियों का जिक्र  होगा. बढ़ती बेरोजगारी और यूनिवर्सिटी के राजनीतिकरण का जिक्र होगा. कश्मीर के बिगड़े हालात और पड़ोसियों से बिगड़े रिश्तों का जिक्र होगा. बैंकों को चूना लगाकर फरार होते रईसों का जिक्र  होगा. यानी एनपीए का भी और क्रोनी कैपिटलिज्म का भी जिक्र  होगा. यानी देश के सामने जितने मुद्दे फन काढ़ कर खड़े हैं जिक्र  सबका होना है. और इस कड़ी में क्षत्नपों की अपनी परेशानी है तो राज्यों से जुड़े सवाल जो संघीय ढांचे को लेकर उठेंगे उनका जिक्र  होगा. खासकर दिल्ली, प. बंगाल, केरल और ओडिशा में चार अलग-अलग पार्टियों की सरकार है और चारों को लगता है कि उनके हक को केंद्र की सत्ता मार रही है. दिल्ली में केजरीवाल को लगता है उन्हें काम करने नहीं दिया जा रहा है तो केरल के सीएम विजयन तो पीएम के दरवाजे से चार बार बिना मिले लौटा दिए गए. ममता और नवीन पटनायक का गुस्सा राज्यों को मिलने वाली केंद्र की मदद को लेकर है. तो इतने सवालों से घिरी सत्ता अविश्वास प्रस्ताव में कौन सी बात रखेगी यह सवाल तो है. 

जाहिर है तीन रास्ते सत्ता के सामने होंगे. पहला, निशाने पर सीधे कांग्रेस, अतीत की सत्ता जितनी करप्ट थी उससे हम बेहतर हैं. दूसरा, राष्ट्रीय भावना का उभार, पहले देश होना चाहिए उसके बाद कोई मुद्दा. तीसरा हिंदुत्व की सोच को उभारना, थरूर सरीखे वक्तव्य पर सीधी चोट और हर मुद्दे से जोड़ा जाएगा. यानी सात घंटे की बहस सुनने के बाद जनता में किसको लेकर कौन सा विश्वास जागेगा ये तो कोई नहीं जानता लेकिन इतना जान लीजिए कि सारी बहस पर आखिर में होने वाली वोटिंग हावी हो जाएगी. ठीक वैसे जैसे तमाम मुद्दे चुनावी जीत के साथ काफूर हो जाते हैं. और इंतजार 2019 का हर कोई करने लगेगा. 

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