महाराष्ट्र की राजनीति में इस वक्त भाषा को लेकर विवाद पैदा करने की कोशिश की जा रही है. दरअसल महाराष्ट्र सरकार ने अंग्रेजी और मराठी माध्यम के स्कूलों में पांचवीं कक्षा तक के विद्यार्थियों के लिए हिंदी को तीसरी भाषा बनाने का आदेश जारी किया. इसे एक अच्छे कदम के रूप में देखा जाना चाहिए क्योंकि भारत में करीब 53 करोड़ लोग हिंदी का व्यापक उपयोग करते हैं.
ऐसे में यदि महाराष्ट्र में मराठी और अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को थोड़ी-बहुत हिंदी सीखने को मिलती है तो यह उनके भविष्य के लिए बेहतर ही साबित होने वाला है लेकिन राजनीति को इससे क्या मतलब? राजनीति तो केवल वोट बैंक देखती है और यही कारण है कि राज्य सरकार के इस आदेश का विरोध करने वाले हल्ला मचाने लगे! यह समझ से परे है कि किसी भी भाषा को सीखना, जानना या बोलना अन्य भाषाओं को कमतर करने की कोशिश के रूप में कैसे देखा जा सकता है?
हिंदी की व्यापकता सबको मालूम है. मंदारिन, स्पेनिश और अंग्रेजी के बाद दुनिया में सबसे ज्यादा हिंदी ही बोली जाती है. भारत की खासियत यह है कि यहां जितनी भी भाषाएं हैं, वो भौगोलिक रूप से अपने क्षेत्रों में न केवल व्यापक तौर पर बोली जाती हैं बल्कि भौगोलिक संस्कृति का प्रतिनिधित्व भी करती हैं. करीब पौने दस करोड़ लोग बांग्ला और साढ़े आठ करोड़ से ज्यादा लोग मराठी बोलते हैं. इसी तरह आठ करोड़ से ज्यादा लोग तेलुगु और करीब 7 करोड़ लोग तमिल बोलते हैं.
साढ़े पांच करोड़ से ज्यादा लोग गुजराती बोलने वाले हैं तो उर्दू बोलने वालों की संख्या भी पांच करोड़ से ज्यादा है. भारत में बोली जाने वाली सभी भाषाओं की अपनी खासियत है, उनका अपना सौंदर्य और लावण्य है. किसी को भी एक-दूसरे से कमतर नहीं माना जा सकता. सभी भाषाओं में बेहतरीन साहित्य रचे गए हैं. लोग दूसरी भाषाओं का साहित्य पढ़ना चाहते हैं इसीलिए भारतीय भाषाओं में व्यापक तौर पर अनुवाद होता रहा है. मराठी भाषा में रची गई बहुत सारी पुस्तकें हिंदी पाठकों की पसंदीदा पुस्तकें रही हैं.
इसलिए भाषा को लेकर विवाद पैदा करना ठीक बात नहीं है. जब यह बात उठती है कि महाराष्ट्र में रहने वाले गैरमराठियों को मराठी भाषा जाननी चाहिए तो अमूमन हर व्यक्ति इस बात का समर्थन करता है क्योंकि स्थानीय भाषा जाने-समझे बगैर संबंधित क्षेत्र की संस्कृति को बेहतर तरीके से नहीं समझा जा सकता.
इसी तरह जब महाराष्ट्र के बच्चे अधिकारी बनकर या काम के सिलसिले में हिंदी इलाके में जाते हैं तो उन्हें सीखी गई हिंदी से मदद ही मिलेगी. इसलिए महाराष्ट्र में यदि पहली से पांचवीं तक तीसरी भाषा के रूप में हिंदी पढ़ाई जाती है तो इसे मराठी भाषा के खिलाफ कैसे माना जा सकता है? वैसे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यदि स्कूल के 20 से अधिक विद्यार्थी तीसरी भाषा के रूप में हिंदी के अलावा और कोई विषय पढ़ना चाहते हैं तो उन्हें यह सुविधा मिलेगी.
उस भाषा के लिए अलग से एक शिक्षक की व्यवस्था की जाएगी. इसे इस तरह समझ सकते हैं कि यदि किसी मराठी या अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में तीसरी भाषा के रूप में 20 या उससे अधिक बच्चे तमिल सीखना चाहते हैं तो उस स्कूल में एक तमिल शिक्षक की नियुक्ति की जा सकती है. इस तरह की व्यवस्था सरकार करने जा रही है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए. सरकार के इस कदम को जो लोग मराठी भाषा के खिलाफ प्रचारित कर रहे हैं, उन्हें या तो सरकार की योजना समझ में नहीं आई है या फिर वे जानबूझ कर अपनी राजनीति चमकाने के लिए भाषा का विवाद खड़ा कर रहे हैं. बेवजह का विवाद खड़ा कर रहे राजनेताओं को समझना चाहिए कि इस तरह के विवाद समाज के लिए बहुत हानिकारक होते हैं.
इन नेताओं से यह भी पूछा जाना चाहिए कि उन्हें हिंदी से यदि इतना परहेज है तो वे अपने बच्चों को अंग्रेजी क्यों पढ़ाते हैं. अंग्रेजी तो हमारे देश की भाषा भी नहीं है फिर उसे इतना सम्मान क्यों देते हैं? कारण यही है कि यदि वे अंग्रेजी का विरोध करेंगे तो अंग्रेजी की जरूरत को समझने वाली जनता तत्काल उनका विरोध करने लगेगी. नेताओं को समझना चाहिए कि गैर हिंदी भाषी लोग भी हिंदी की महत्ता समझते हैं. जनता उनके राजनीतिक कुचक्र में फंसने वाली नहीं है.