शोभना जैन का ब्लॉगः अफगान शांति वार्ता से भारत के सरोकार
By शोभना जैन | Published: September 19, 2020 10:04 AM2020-09-19T10:04:45+5:302020-09-19T10:04:45+5:30
अफगान तालिबान शांति वार्ता में भारत के सरोकारों को लेकर उस की सम्बद्धता की महत्ता इस बात से समझी जा सकती है कि अफगानिस्तान में सुलह शांति कराने के प्रयासों के लिए नियुक्त अमेरिका के विशेष प्रतिनिधि और मूल रूप से अफगान मूल के खलीलजाद वार्ता के शुरुआती दौर के बाद पाकिस्तान की यात्ना के बाद भारतीय नेताओं को बातचीत की प्रगति से अवगत कराने हाल ही में भारत आए.
उन्नीस बरस तक एक दूसरे से युद्ध और भारी खून-खराबे के बाद कतर में पिछले सप्ताह अफगान सरकार के प्रतिनिधि और तालिबान जब अफगानिस्तान में स्थायी शांति स्थापित करने की मुहिम के तहत एक कमरे में आमने-सामने बैठे तो सभी के चेहरों पर तनाव था. माहौल में अनिश्चितता और चिंता थी. न केवल इस प्रक्रि या से सीधे तौर पर जुड़े उपरोक्त दोनों पक्ष बल्किवार्ता के मध्यस्थ अमेरिका व भारतीय शिष्टमंडल सहित बातचीत में शामिल अन्य अनेक पक्षों के प्रतिनिधियों के चेहरों पर भी स्थायी शांति के लिए प्रयासरत होने के साथ ही सवालिया निशान थे.
भारत पहली बार अंतरअफगान बातचीत में विदेश मंत्नालय स्तर पर हिस्सा ले रहा है क्योंकि भारत का अभी तक यही कहना रहा है कि तालिबान जब तक मुख्य राजनीतिक धारा में शामिल नहीं होते हैं, वह तालिबान से संपर्क नहीं रखेगा. इस वार्ता के उद्घाटन समारोह में भारतीय शिष्टमंडल की मौजूदगी से भारत ने संकेत दिया कि इस क्षेत्न के एक प्रमुख पात्न के नाते वह इस आधिकारिक बातचीत में शामिल हो रहा है, जो कि अफगानिस्तान के साथ-साथ इस क्षेत्न की शांति, सुरक्षा और स्थिरता से जुड़ी है.
दूसरी तरफ पाकिस्तान अमेरिका के सम्मुख तालिबान के साथ अपनी गहरी पैठ होने का दावा करते हुए अफगान वार्ता में हावी होता रहा. निश्चय ही वार्ता के मध्यस्थ अमेरिका को पाकिस्तान का तालिबान से जुड़ाव होने की वजह से उस का साथ भारत के मुकाबले ज्यादा हितकारी लगा क्योंकि माना यही जाता है कि तालिबान पाकिस्तान सेना और पाक गुप्तचर इकाई आईएसआई के प्रतिनिधि हैं.
सही बात है भी यही कि पाकिस्तान ने हमेशा ही अफगानिस्तान स्थित तालिबान के पाकिस्तान परस्त गुटों को भारत के खिलाफ आतंकी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल किया है. विशेष तौर पर तालिबान के अतिवादी गुट हक्कानी के जरिये वह अफगानिस्तान स्थित भारतीय प्रतिष्ठानों पर आतंकी हमले करता रहा है. पाकिस्तान इसी ‘तालिबान हैंडल’ के जरिये भारत को अफगान शांति वार्ताओं से दूर रखने की मुहिम चलाता रहा है. इस बार भी वह इस बात की जुगत में लगा था कि इस वार्ता में भारत की हिस्सेदारी न हो. लेकिन इस बार भारत ने इस क्षेत्न की गतिविधियों में अपनी प्रमुख भूमिका की जिम्मेदारी निभाते हुए बातचीत से जुड़ने का फैसला किया. अमेरिका और अफगानिस्तान भी चाहते थे कि भारत इस बातचीत में हिस्सेदार बने. भारत अब वार्ता में उपस्थित के साथ साथ सतर्क भी है और आगे के घटनाक्र म पर नजर रखे हुए है.
अफगान तालिबान शांति वार्ता में भारत के सरोकारों को लेकर उस की सम्बद्धता की महत्ता इस बात से समझी जा सकती है कि अफगानिस्तान में सुलह शांति कराने के प्रयासों के लिए नियुक्त अमेरिका के विशेष प्रतिनिधि और मूल रूप से अफगान मूल के खलीलजाद वार्ता के शुरुआती दौर के बाद पाकिस्तान की यात्ना के बाद भारतीय नेताओं को बातचीत की प्रगति से अवगत कराने हाल ही में भारत आए. अफगानिस्तान मसले पर भारतीय नेताओं को बातचीत की प्रगति से अवगत कराने के लिए खलीलजाद का पिछले वर्ष से अब तक भारत का यह पांचवां दौरा था. इस बातचीत में विदेश मंत्नी डॉ. जयशंकर ने अफगानिस्तान में भारत का पक्ष एक बार फिर स्पष्ट रूप से रखा. साथ ही दोनों नेताओं ने अफगानिस्तान को लेकर क्षेत्नीय और अंतरराष्ट्रीय सहयोग के साथ अफगान शांति प्रक्रिया में भारत और अमेरिका का सहयोग और बढ़ाने की संभावनाओं पर चर्चा की.
समझा जाता है कि खलीलजाद ने भारतीय नेताओं को यह भी बताया कि उन्होंने पाकिस्तान से कहा है कि वह अपनी सेना से कहे कि वह ऐसे कदम उठाए जिससे तालिबान शांति वार्ता पर कायम रहे. अब तक माना जाता रहा है कि तालिबान अगर अमेरिका के सैन्य दबाव में नहीं होता तो वह सैन्य रूप से देश पर कब्जा कर लेता. अहम बात यह है कि एक कैदी की अदला-बदली और काबुल में कई बड़ी शख्सियतों पर तालिबान के लगातार हमलों के कारण ये यात्ना अपने तय समय के छह महीने बाद हो रही है.
यह वार्ता ऐसे समय में हो रही है जब आगामी तीन नवंबर को अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव होने हैं और अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी पर जोर दे रहे हैं. अनिश्चितताओं के बावजूद उम्मीदों से भरी अफगान शांति वार्ता का परिणाम क्या रहेगा, इस पर सब की निगाहें हैं. अगर शांति वार्ता के बाद सुलह समझौता होता है तो निश्चय ही अफगानिस्तान के लिए यह बहुत अच्छी बात होगी लेकिन भारत के सरोकारों को समङों तो इस से भारत का पक्ष और क्षेत्न में उसकी स्थिति मजबूत होगी.
तालिबान वहां एक मजबूत ताकत बन चुके हैं इसीलिए माना जा रहा है कि भारत अपने हितों को बरकरार रखते हुए तालिबान के मध्यममार्गी तत्वों के साथ मिल कर काम करेगा. भारत चाहता है कि वहां लोकतंत्न, लोकतांत्रिक संस्थाओं की मजबूती और अल्पसंख्यकों व महिलाओं के अधिकारों के क्षेत्न में जो कदम आगे बढ़े हैं, उन्हें पीछे हर्गिज नहीं खींचा जाए. अफगान शिष्टमंडल में चार महिलाओं की मौजूदगी एक अच्छा संकेत माना जा सकता है.