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राष्ट्रपति चुनाव: किंतु-परंतु खत्म! द्रौपदी मुर्मू की उम्मीदवारी ने यशवंत सिन्हा की हार भी तय कर दी है

By लोकमित्र | Updated: June 24, 2022 10:13 IST

भाजपा ने आदिवासी कार्ड चलकर नवीन पटनायक को चुनावों के पहले ही खुद सामने आकर समर्थन देने की घोषणा करने के लिए मजबूर कर दिया.

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द्रौपदी मुर्मू का देश का अगला राष्ट्रपति बनना एक तरह से तय ही है. यशवंत सिन्हा एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं क्योंकि द्रौपदी मुर्मू को अगले महामहिम के रूप में चुने जाने के सारे किंतु-परंतु खत्म हो चुके हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि बीजू जनता दल के मुखिया और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने खुद मुर्मू के समर्थन की घोषणा कर दी है, जिससे न केवल भाजपा के उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित हो गई है बल्कि चुनाव भी अब महज औपचारिकता है. 

देश में जिस तरह से समीकरणों की राजनीति का चलन है, उसके आईने में अब कोई दुविधा नहीं है कि 25 जुलाई 2022 को हमें महामहिम के रूप में द्रौपदी मुर्मू मिल रही हैं.

हालांकि यह तो पहले से ही तय था कि जीतना भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के उम्मीदवार को ही है और यह भी तय था कि भाजपा राष्ट्रपति के रूप में रामनाथ कोविंद को रिपीट नहीं करेगी. लेकिन मीडिया को अपने फैसलों से चकमा देने वाली भाजपा इस बार ऐसा नहीं कर पाई क्योंकि मीडिया जिन कुछ चेहरों को भाजपा के अगले राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों के रूप में देख रही थी, उनमें मुर्मू प्रमुख थीं और भाजपा ने अंततः इस अनुमान पर मुहर लगाई.

हाल-फिलहाल में प्रधानमंत्री मोदी और उनके दाएं हाथ समझे जाने वाले गृह मंत्री अमित शाह की जोड़ी की यह खूबी रही है कि ये अपने फैसलों से चौंकाते रहे हैं. लेकिन द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी ने नहीं चौंकाया. पहले से ही माना जा रहा था कि भाजपा आदिवासी, मुस्लिम, दलित, महिला और दक्षिण भारतीय में से किसी एक पर दांव लगाएगी और देखा जाए तो इस अनुमान में करीब-करीब 90 फीसदी समूची सामुदायिकता भी सिमट रही थी.

जिन लोगों का राजनीतिक गलियारे से निकट का रिश्ता है, उन्हें पता था कि एक आदिवासी को छोड़कर सभी समुदायों को एक न एक बार राष्ट्रपति के रूप में अवसर मिल चुका है. मसलन मुस्लिम, दक्षिण भारतीय और दलित राजनीतिक समुदायों से अब तक राष्ट्रपति हो चुके हैं. महिलाओं का प्रतिनिधित्व भी अपवाद के तौर पर ही सही एक बार हो चुका है. 

ऐसे में सिर्फ आदिवासी समुदाय ही बचता था, जिस पर राष्ट्रपति बनाने का पहली बार का श्रेय लिया जा सकता था इसलिए आदिवासी समुदाय से राष्ट्रपति का बनना बाकी समुदायों के मुकाबले ज्यादा अनुमानित था और वही हुआ. लेकिन इसमें सिर्फ पहली बार का श्रेय लेने की मंशा ही नहीं है, इस निर्णय के पीछे चुनाव जीतने संबंधी जबरदस्त समीकरणों का भी योगदान है. मसलन साल 2022-23 में होने वाले कई विधानसभा चुनावों और 2024 के लोकसभा चुनाव को भी इस फैसले से साधने की कोशिश की गई है.

शायद ज्यादातर राजनीतिक विश्लेषकों का ध्यान भाजपा की इस ताकत की तरफ नहीं जाता कि उसने हाल के सालों में देश के आरक्षित समुदायों पर बहुत जबरदस्त काम किया है, जिस कारण साल 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में ही नहीं बल्कि इस दौरान हुए तमाम विधानसभा चुनावों में भी उसकी जीत का एक बड़ा और गुप्त हथियार राजनीति में ये आरक्षित समुदाय रहे हैं. 

लोकसभा की 543 सीटों में से 41 से लेकर 47 सीटें तक चुनाव आयोग अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित कर सकता है. पिछले लोकसभा चुनाव में एसटी श्रेणी के लिए 47 सीटें रिजर्व थीं और इन 47 सीटों में से भाजपा ने 37 सीटों में चुनाव लड़कर 30 सीटें जीती थीं. यह आदिवासियों के बीच भाजपा की बहुत मजबूत पकड़ होने का सबूत था जबकि अनुसूचित जातियों के लिए साल 2019 के लोकसभा चुनावों में आरक्षित 79 सीटों में से 44 सीटें भाजपा ने जीतीं. 

इस तरह कुल 131 रिजर्व सीटों में से भाजपा ने साल 2019 में 74 सीटें जीती थीं. यह आंकड़ा अगर गहराई से देखें तो भाजपा के तथाकथित सवर्ण वोटों से जीती गई सीटों से ज्यादा है. इसके पहले साल 2014 के लोकसभा चुनाव में भी भाजपा ने लोकसभा की आरक्षित सीटों में जबरदस्त प्रदर्शन किया था. तब भाजपा ने 131 सीटों में से 66 सीटें जीती थीं यानी साल 2014 में भी भाजपा ने अकेले 50 फीसदी से ज्यादा सीटें जीती थीं और शेष 50 फीसदी से कम सीटों में सारी पार्टियों का हिस्सा था.

ऐसे में भला अगले लोकसभा चुनावों और इस साल होने वाले कई विधानसभा चुनावों में अपने रणनीतिक समीकरण को ध्यान में रखते हुए भाजपा आदिवासी कार्ड खेलने से कैसे चूकती? गौरतलब है कि सुनने में और सहज तौरपर दिमाग में भले न आता हो, लेकिन देश में आदिवासी समुदाय की एक बड़ी राजनीतिक ताकत है. 

देश में 60 ऐसी लोकसभा सीटें हैं जहां चुनावी नतीजे को आदिवासी पूरी तरह से प्रभावित करते हैं. इनमें मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, झारखंड और छत्तीसगढ़ शामिल हैं. फिलहाल इन पांच प्रदेशों में से सिर्फ गुजरात और मध्य प्रदेश में ही भाजपा की सरकार है, तो भला अन्य प्रदेशों में विपक्षी सरकारों को ध्यान में रखते हुए भाजपा ऐसा कोई राजनीतिक दांव क्यों न खेलती जिससे इन प्रदेशों का आदिवासी वोटर भाजपा की तरफ देखने को मजबूर होता.

जिस तरह से ओडिशा के मुख्यमंत्री ने भाजपा को राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए के उम्मीदवार को समर्थन देने के नाम पर रूखा सा जवाब दिया था कि पहले उम्मीदवार की घोषणा हो, फिर देखेंगे, उसके चलते संभव नहीं था कि 100 फीसदी मान ही लिया जाता कि नवीन पटनायक भाजपा का समर्थन करेंगे. लेकिन भाजपा ने आदिवासी कार्ड चलकर नवीन पटनायक को चुनावों के पहले ही खुद सामने आकर समर्थन देने की घोषणा करने के लिए मजबूर कर दिया. वे भाजपा द्वारा द्रौपदी मुर्मू को उम्मीदवार चुनने के तुरंत बाद मीडिया के सामने आए और इसे अपने प्रदेश के लिए गौरव बताया और कहा कि वो इसका समर्थन करेंगे. 

टॅग्स :द्रौपदी मुर्मूयशवंत सिन्हानरेंद्र मोदीअमित शाहराष्ट्रीय रक्षा अकादमीनवीन पटनायकओड़िसाबीजू जनता दल (बीजेडी)भारतीय जनता पार्टी
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