ब्लॉग: राजनीति की भाषा को लेकर बढ़ती चिंताएं

By Amitabh Shrivastava | Published: December 2, 2023 11:44 AM2023-12-02T11:44:40+5:302023-12-02T11:44:47+5:30

यह स्थिति दु:खद है और परेशान करने वाली है। बयानबाजी का अदालत से पहले पुलिस तक पहुंचना, किसी नेता का किसी नेता को अपशब्द कहने पर गिरफ्तार होना, राजनीति के भविष्य के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं।  

india Growing concerns regarding the language of politics | ब्लॉग: राजनीति की भाषा को लेकर बढ़ती चिंताएं

फाइल फोटो

पिछले कुछ दिनों से महाराष्ट्र में सार्वजनिक जीवन की भाषा के पतन पर सवाल उठने लगे हैं। मुंबई के पूर्व महापौर दत्ता दलवी अपशब्द कहने के लिए गिरफ्तार किए गए और उसके बाद जमानत पर रिहा हो गए हैं मगर मूल चिंता पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की राज्य सरकार पर टिप्पणी के बाद उठी है, सामान्यत: जिन्हें शालीन राजनीतिज्ञ के रूप में राज्य में पहचाना जाता है।

मूल मुद्दा यही है कि राजनीति या सार्वजनिक जीवन की भाषा या मर्यादा क्या इस दौर में चर्चा का विषय बन सकते हैं या केवल उन्हें विवादस्पद बयानबाजी की अगली कड़ी से जोड़कर देखा जा सकता है। महाराष्ट्र की राजनीति में भाषा का विषय अतीत में भी अच्छा नहीं रहा है। अनेक नेताओं की केवल इसलिए पहचान बनी कि वे कितने निचले स्तर पर जाकर टिप्पणी कर सकते हैं।

अनेक सभाओं में महिलाओं की उपस्थिति में भी ऐसे-ऐसे शब्द बोले गए हैं, जिन्हें सुनकर लोगों को दाएं-बाएं देखने पर मजबूर होना पड़ा। किंतु उस भाषा को भी आक्रामक, तीखी टिप्पणी, सीधा प्रहार, गर्जना जैसे विशेषणों के सहारे लोगों के समक्ष तर्कसंगत रूप में प्रस्तुत किया गया। आज यदि अपशब्दों के उपयोग के लिए किसी दल विशेष का नाम लिया जाए तो वह बाकी के साथ अन्याय ही है, क्योंकि हर दल में सीमा लांघने वाले नेताओं की कमी नहीं है।

अब चूंकि सोशल मीडिया के माध्यम से बयानों के टुकड़े लोगों के बीच घूमते रहते हैं, इसलिए एक अच्छा दूसरा बुरा दिखाई देता है। यदि किसी एक ने टिप्पणी में खराब शब्दों का उपयोग किया है तो दूसरा उससे आगे बढ़कर ही कुछ कहेगा तभी उसकी सोशल मीडिया पर चर्चा होगी यही परिपाटी बन चुकी है।

महाराष्ट्र के राजनीतिक इतिहास पर नजर दौड़ाई जाए तो पूर्व मुख्यमंत्री वसंतराव नाईक, सुशील कुमार शिंदे, वी.एन. गाडगिल, बापू कालदाते, जार्ज फर्नांडीस से लेकर विलासराव देशमुख जैसे अनेक नाम हैं, जिन्हें अच्छे वक्ता के रूप में जाना जाता रहा है। इनके विचारों या वक्तव्यों से कभी कोई विवाद नहीं हुआ, किसी की भावनाएं आहत नहीं हुईं लेकिन इन जैसे कुछ नेताओं के अलावा अधिकतर ने किसी न किसी मंच से राजनीतिक मर्यादाओं का उल्लंघन किया।

किसी ने चुनाव के नाम पर, किसी ने भीड़ को रिझाने के नाम पर अपनी भाषा से नियंत्रण खोया। किसी ने चुनौती देने के लिए आपा खोया मगर हर नेता की बात कुछ समय बाद आई-गई हो गई इसलिए अगली गलती का अवसर भी खुल गया। वर्तमान दौर में शिवसेना हो या राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा), सभी तरफ फूट की कुंठा स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। मूल शिवसेना के उद्धव ठाकरे राजनीति में एक शालीन व्यक्तित्व के रूप में पहचान रखते हैं।

अपने सज्जन स्वभाव के कारण ही वह सार्वजनिक जीवन में काफी देरी से आए और बीते चुनाव के बाद हुई राजनीति ने उन्हें अचानक ही मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचा दिया। चूंकि सरकार और विपक्ष को संभालना था, इसलिए अनेक सलाहकार और रणनीतिकार भी मिल गए। यहीं से उनके रुख को आक्रामक बनाने की कोशिशें हुईं, जो उनके व्यक्तित्व से सीधे तौर पर मिलान नहीं करती हैं। इसी बात का लाभ विपक्ष और अनेक राजनीतिक दलों ने उठाना आरंभ किया।

मगर अब भाषा का स्तर और छींटाकशी इतने निचले स्तर पर पहुंच गई है कि उसे संभाल पाना मुश्किल होता जा रहा है। पहले प्रवक्ता ही टिप्पणी के लिए अधिकृत होते थे। अब कोई भी अपनी टिप्पणी को सोशल मीडिया पर वायरल कर रहा है। कोई भी किसी का जवाब देने के लिए तैयार है।

सार्वजनिक जीवन में भाषा की मर्यादा आवश्यक शर्त के रूप में मानी जाती है। आम जनता के लिए एक-एक शब्द के मायने होते हैं। किंतु मीडिया के प्रभाव और निरंतरता के चलते भाषा की सीमाओं को तोड़ना चलन बन चुका है, जिसे राजनीति के पतन के रूप में देखा जा रहा है. इसी में कहीं राजनीति को, कहीं शैक्षणिक योग्यता के महत्व को रेखांकित किए जाने की बात आरंभ हो रही है किंतु तथ्यों पर यदि नजर दौड़ाई जाए तो शिक्षा भी एक सीमा तक ही साथ देती है।

अनेक मामलों में आपत्तिजनक टिप्पणियां शिक्षित नेताओं के मुंह से भी सुनी गई हैं इसलिए नियम-कायदों से परे निजी व्यक्तित्व और उसकी राजनीतिक जरूरत भाषा की मर्यादा को तय करती है। इसे न तो इतिहास के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है, न ही वर्तमान के संदर्भों में देखा जा सकता है।

विवादास्पद टिप्पणियों में सबसे बड़ी अड़चन राजनीतिक दलों की ‘सिलेक्टिव एप्रोच’ को लेकर है। किसी व्यक्ति विशेष को लगातार निशाना बनाना और उसमें बात बढ़ने पर किसी अन्य पर आरोप जड़ना नियमित बात हो चली है। यदि एक नेता गलतबयानी करता है तो दूसरा उससे निचले स्तर पर टिप्पणी करता है, क्योंकि पहले के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। अनेक दलों ने तो कुछ नेताओं को विवादस्पद बयान देने का ‘लाइसेंस’ तक दे रखा है, जो समय मिलते ही गलतबयानी करते हैं।

हैरानी इस बात की है कि किसी भी दल से इस विषय में संयम या सीमाओं में रहने के लिए कोई बात नहीं कही जाती, जो आम सहमति से लिए सबके लागू हो। हालांकि अदालत का चक्कर लगाने के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सबकी तैयारी बनी हुई है। कई नेताओं को अदालत की फटकार भी सुननी पड़ी है। बात माफी से लेकर सजा तक भी पहुंची है। किंतु उसका न तो व्यापक असर हुआ है और न ही किसी को कार्रवाई को लेकर कोई चिंता नजर आती है।

बयानों का सिलसिला न तो सत्ता पक्ष से कम हो रहा है और न ही विपक्ष की ओर से उसमें कोई कमी देखी जा रही है। ‘ईंट का जवाब पत्थर से’ की तरह हर नेता का रुख है। कुछ नेताओं के लिए टीवी चैनल सहारा हैं तो कुछ के लिए यू-ट्‌यूब का लाभ है। बाकी सोशल मीडिया पर सबका अपना नेटवर्क है।

यह स्थिति दु:खद है और परेशान करने वाली है। बयानबाजी का अदालत से पहले पुलिस तक पहुंचना, किसी नेता का किसी नेता को अपशब्द कहने पर गिरफ्तार होना, राजनीति के भविष्य के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं।  इस पर आत्म नियंत्रण-संयम से राजनीति के पतन को रोका जा सकता है। अन्यथा नई पीढ़ी के लिए राजनीतिज्ञों के प्रति देखने का नजरिया बदलते देर नहीं लगेगी, जो काफी कुछ बदल चुका ही है। 

Web Title: india Growing concerns regarding the language of politics

भारत से जुड़ीहिंदी खबरोंऔर देश दुनिया खबरोंके लिए यहाँ क्लिक करे.यूट्यूब चैनल यहाँ इब करें और देखें हमारा एक्सक्लूसिव वीडियो कंटेंट. सोशल से जुड़ने के लिए हमारा Facebook Pageलाइक करे