ब्लॉग: लोकतंत्र में परिवारवादी परंपरा के निहितार्थ
By गिरीश्वर मिश्र | Updated: February 24, 2024 13:09 IST2024-02-24T13:07:09+5:302024-02-24T13:09:52+5:30
पीछे मुड़ कर देखें तो आधुनिक भारत में स्वतंत्रता संग्राम के चलते राजनीति का रिश्ता देश-सेवा और देश के लिए आत्मदान से जुड़ गया था।

फाइल फोटो
पीछे मुड़ कर देखें तो आधुनिक भारत में स्वतंत्रता संग्राम के चलते राजनीति का रिश्ता देश-सेवा और देश के लिए आत्मदान से जुड़ गया था। इस पृष्ठभूमि के अंतर्गत राजनीति में आने वाले आदमी में निजी हित स्वार्थ से ऊपर उठ कर समाज के लिए समर्पण का भाव प्रमुख था। ‘सुराजी’ ऐसे ही होते थे। वे अपना खो कर सबका हो जाने की तैयारी से राजनीति में आते थे। स्वतंत्रता मिलने के साथ सरकार में भागीदारी ने राजनीति का चरित्र और उसका चेहरा-मोहरा बदलना शुरू किया।
देखते-देखते नेता नामक जीव की वेश-भूषा, रहन-सहन आदि में बदलाव शुरू हुआ और जीवन की राह तेजी से आभिजात्य की ओर मुड़ती गई। विधायक या सांसद राजपुरुष होने की ओर बढ़ने लगे। मंत्री होना राजसी ठाट-बाट का पर्याय सा हो गया। नेताओं का भी दरबार लगने लगा और वे प्रजा की सेवा से दूर होते चले गए। राजनीति सेवा की जगह धन उगाही के व्यापार का रूप लेती गई और राजनेताओं की संपत्ति दिन-दूनी रात-चौगुनी बढ़ने लगी।
इसी के साथ एक पक्ष और प्रबल होने लगा कि राजनेता के परिवार और परिजन भी राजनीति में अवांछित दखल देने लगे। जन-सेवा और लोक संग्रह से कोसों दूर ये नए नवेले अगली पीढ़ी के राजनेता ज्यादातर अपनी कर्मठ जन-सेवा की बदौलत नहीं बल्कि वंशधर होने के कारण उसमें शामिल होने लगे। अपने विश्वस्त की तलाश करते वरिष्ठ या ‘सीनियर’ राजनेताओं की आंखें घूम-फिर कर अपने बेटी-बेटे, पत्नी, भाई, भतीजे और नाते-रिश्तेदारों पर टिकने लगीं।
सच कहें तो राजनीति में भागीदारी उसके किरदारों को कुछ निजी या पारिवारिक पेशा, खेती-बारी, दुकानदारी या पुश्तैनी व्यापार जैसा लगने लगा। फलतः जब एक राजनेता अपना उत्तराधिकारी खोजने लगा तो उसे जनता भूल-बिसर गई और वह अक्सर जनता की ओर नहीं बल्कि अपने परिवार की ओर देखने लगा. कुछ को इसमें सफलता भी मिलने लगी।
आज के भारतीय राजनैतिक परिदृश्य में खानदानी नेताओं की जमात बढ़ती ही जा रही है। राजनैतिक दल पारिवारिक दल में रूपांतरित हो जाता है और सत्ता का बंटवारा किया जाता है. असंतुष्ट होने पर परिवार टूटने के तर्ज पर पार्टी टूटती है। यह एक अजीब बदलाव है जो जनतंत्र की मूल प्रकृति और चरित्र के उल्टा बैठता है।
जनतंत्र तो जन से चलता है, प्रजा में ही उसकी आत्मा बसती है और प्रजा-जन एक समान होते हैं परंतु नेताओं का प्रजा से न उभरना चिंताजनक हो रहा है। सारी लाज-हया छोड़ राजनीतिक वंशों का आधिपत्य बनाए रखने की घटनाएं राजनीति और लोकतंत्र दोनों के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं कही जा सकतीं। लोकतंत्र के लिए वंशवाद खतरनाक है और राजनेताओं को इस पर विचार करना होगा।