अपने आप संपर्क भाषा बनती जा रही है हिंदी
By अभय कुमार दुबे | Published: June 12, 2019 08:31 AM2019-06-12T08:31:11+5:302019-06-12T08:31:11+5:30
मैं अक्सर हैरत में भरकर सोचता हूं कि क्या मेरी भाषा हिंदी किसी पर थोपी जा रही है, या उसे किसी पर थोपा जाना चाहिए?
मैं अक्सर हैरत में भरकर सोचता हूं कि क्या मेरी भाषा हिंदी किसी पर थोपी जा रही है, या उसे किसी पर थोपा जाना चाहिए? हाल ही में प्रसारित आंकड़ों के अनुसार करीब 53 करोड़ से कुछ कम लोग हिंदी को अपनी पहली भाषा मानते हैं, करीब चौदह करोड़ लोग उसे अपनी दूसरी भाषा के तौर पर प्राथमिकता देते हैं, और तकरीबन ढाई करोड़ लोगों ने उसे अपनी तीसरी भाषा के तौर पर अपना रखा है. यानी कोई 70 करोड़ लोग हिंदी बोल सकते हैं, समझ सकते हैं और पढ़ सकते हैं. क्या ये सारे के सारे लोग उत्तर भारत के हैं? दरअसल, अन्य भाषाई समुदायों से भी हिंदी के रिश्ते लंबे अरसे से बेहतरीन और उल्लेखनीय हैं.
अगर राष्ट्रीय स्तर पर विकसित हो रही संपर्क भाषा के तौर पर देखा जाए तो हिंदी यहां अंग्रेजी के साथ न केवल मुकाबला करती नजर आती है,
बल्कि उसे पीछे छोड़ती हुई भी दिखती है. कुछ वर्ष पहले मैंने 1968 से 2001 के बीच भाषाई जनगणना के आधिकारिक आंकड़ों से जुड़ी एक विश्लेषणात्मक कवायद की थी. मेरा मकसद यह पता लगाना था कि गैर-¨हंदीभाषी इलाकों में द्विभाषापन की प्रकृति क्या है? क्या यह अंग्रेजी-प्रधान है, या फिर यह हिंदी-प्रधान है? दक्षिण और पूर्वी भाषाओं में हुए द्विभाषिता संबंधी परिवर्तनों के विश्लेषण ने मुङो बताया कि भूमंडलीकरण द्वारा अंग्रेजी को मिले कथित उछाल के बावजूद इन क्षेत्रों में हिंदी-द्विभाषिता का प्रतिशत कमोबेश दस साल पहले जितना ही बना हुआ है. असम में हिंदी अभी भी आगे है, बंगाल में लोग हिंदी के और नजदीक आए हैं, तमिल में ¨हंदी ने अपनी जो उपस्थिति दर्ज कराई थी उसमें अंग्रेजी की बढ़ी हुई प्रतिष्ठा कटौती नहीं कर पाई है, कन्नड़ में अंग्रेजी-द्विभाषिता हिंदी से केवल मामूली अंतर से ही आगे रह गई है, मलयालम क्षेत्र में हिंदी-द्विभाषिता का मजबूत प्रदर्शन जारी है और तेलुगु क्षेत्र में हिंदी-द्विभाषिता की स्थिति पहले की तरह आश्वस्तिकारक बनी हुई है. ओड़िया क्षेत्र में दोनों द्विभाषिताएं करीब-करीब बराबरी की स्थिति में हैं.
दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि जिन क्षेत्रों में ¨हंदी अंग्रेजी से बहुत आगे थी, जैसे मराठी, गुजराती, उर्दू, पंजाबी, सिंधी, नेपाली, मैथिली और डोगरी, उनमें अंग्रेजी-द्विभाषिता अपनी स्थिति सुधारने में विफल रही है. देश में प्रथम भाषा के तौर पर अंग्रेजी को अपनाने वाले लोगों की संख्या केवल ढाई लाख है. दूसरी भाषा के तौर पर उसे करीब सवा आठ करोड़ लोग अपनाते हैं और तीसरी भाषा के तौर पर साढ़े चार करोड़. इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि दूसरी और तीसरी भाषा के तौर पर हिंदी अपनाने वालों की संख्या (सत्रह करोड़) के मुकाबले अंग्रेजी कहीं नहीं ठहर सकती.
तमिलनाडु एक ऐसा राज्य है जहां 2009-10 तक हिंदी को ऐच्छिक विषय के रूप में पढ़ा जा सकता था. पर इसके बाद लागू हुए समाचीर कालवी यानी समरूप शिक्षा कानून के बाद छात्र अरबी, उर्दू, संस्कृत, मलयालम, फ्रेंच और अन्य भारतीय भाषाएं तो पढ़ सकते हैं, पर हिंदी नहीं. वहां हिंदी पढ़ने के लिए या तो सीबीएसई के तहत आने वाले विद्यालय का आसरा लेना पड़ता है, या फिर हिंदी प्रचार सभाओं द्वारा चलाए जाने वाले हिंदी विद्या निकेतनों का. इस लगभग स्पष्ट राजकीय प्रतिबंध के बावजूद हिंदी विद्या निकेतनों में भर्ती होने वालों की संख्या में दिन-दूनी रात-चौगुनी वृद्धि हो रही है (2009 में 2,18,000 और 2018 में 5,70,000). एक तरह से प्रतिबंध के बाद यह संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. सीबीएसई के स्कूलों में एक विषय के तौर पर हिंदी लेने वालों की संख्या भी तेजी से बढ़ी है. हिंदी के तमिलनाडुई प्रचार-प्रसार से पहला संदेश यह निकलता है कि सरकार पक्ष में हो या विपक्ष में, हिंदी की दुनिया अपनी गति से आगे बढ़ रही है. इस गतिशीलता की प्रमुख चालक शक्तियों में से एक है बाजार की ताकत. दूसरी है हिंदी के दृश्य-श्रव्य मीडिया (जिसकी निर्मिति और संरचनाएं मुद्रित मीडिया से अलग हैं) का भारत-व्यापी स्वरूप. तीसरी है हिंदी-आंदोलन का स्वयंसेवी चरित्र. दक्षिण भारत के अन्य राज्यों में हिंदी को लेकर कोई विरोधी राजनीति नहीं है. खासकर आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में तो हिंदी सभी स्कूलों में पढ़ाई जाती है.
समाज के लगातार बढ़ते राजनीतिकरण की प्रक्रिया ने भी हिंदी को उन मंचों पर आसीन कर दिया है जहां पहले उसकी आवाज अंग्रेजी की अदाबाजी में दब जाती थी. ये मंच हैं विधायिकाओं के, यानी लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभाओं के. सत्तर के दशक से ही यह सिलसिला धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है. पिछड़ी और दलित जातियों के राजनीतिक उभार ने हमारी विधायिकाओं में हिंदी बोलने वाले भर दिए हैं. जिस भाषा का सामाजिक क्षेत्र इतना प्रबल हो, जो लोगों की स्वेच्छा पर सवार हो कर अपना विकास करती रही है और कर रही है, उसे कहीं भी सरकारी आदेश से अनिवार्य बनाने का प्रयास अनावश्यक है.
आज हमारे प्रधानमंत्री हिंदी में भाषण करते हैं. अंग्रेजी में भाषण करने वाले देवेगौड़ा भी हमारे प्रधानमंत्री रह चुके हैं. हिंदी का विकास न तब रुका था, न अब रुकेगा, न कभी रुक सकता है, क्योंकि वह इस देश की संरचनागत स्थिति की उपज है.