आतंकवाद के मामले में ऐतिहासिक फैसला, वेदप्रताप वैदिक का ब्लॉग
By वेद प्रताप वैदिक | Published: June 17, 2021 03:39 PM2021-06-17T15:39:09+5:302021-06-17T15:40:12+5:30
दिल्ली की एक अदालत ने उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगे से जुड़े एक मामले में जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्र आसिफ इकबाल तनहा और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की छात्रा देवांगना कालिता और नताशा नरवाल को तत्काल जेल से रिहा करने का बृहस्पतिवार को ओदश दिया.
दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने ताजा फैसले से सरकार और पुलिस को कड़ा संदेश दिया है. दिल्ली पुलिस ने पिछले साल मई में तीन छात्न-छात्नाओं को गिरफ्तार कर लिया था.
एक साल उन्हें जेल में रखा गया और जमानत नहीं दी गई. अब अदालत ने उन तीनों को जमानत पर रिहा कर दिया है. जामिया मिलिया के आसिफ इकबाल तनहा, जवाहरलाल नेहरू विवि की देवांगना कालिता और नताशा नरवाल पर आतंकवाद फैलाने के आरोप थे.
उन्हें कई छोटे-मोटे अन्य आरोपों में जमानत मिल गई थी लेकिन आतंकवाद का यह आरोप उन पर आतंकवाद-विरोधी कानून (यूएपीए) के अंतर्गत लगाया गया था. ट्रायल कोर्ट में जब यह मामला गया तो उसने इन तीनों को जमानत देने से मना कर दिया लेकिन दिल्ली उच्च न्यायालय ने उन्हें न सिर्फ जमानत दे दी बल्कि सरकार और पुलिस पर कड़ीे टिप्पणी भी की.
जजों ने कहा कि इन तीनों व्यक्तियों पर आतंकवाद का आरोप लगाना संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों का हनन है. ये लोग न तो किसी प्रकार की हिंसा फैला रहे थे, न कोई सांप्रदायिक या जातीय दंगा भड़का रहे थे और न ही ये किन्हीं देशद्रोही तत्वों के साथ हाथ मिलाए हुए थे. वे तो नागरिक संशोधन कानून (सीएए) के विरोध में भाषण और प्रदर्शन कर रहे थे.
यदि वे कोई विशेष रास्ता रोक रहे थे और उस पर आप कार्रवाई करना ही चाहते थे तो भारतीय दंड संहिता के तहत कर सकते थे लेकिन आतंकवाद-विरोधी कानून की धारा 43-डी (5) के तहत आप उनकी जमानत रद्द नहीं कर सकते हैं. दिल्ली उच्च न्यायालय अपने इस ऐतिहासिक फैसले के लिए बधाई का पात्न है. उसने न्यायपालिका की इज्जत में चार चांद लगा दिए हैं.
लेकिन इससे कई बुनियादी सवाल भी खड़े हुए हैं. पहला तो यही कि उन तीनों को साल भर फिजूल जेल भुगतनी पड़ी, इसके लिए कौन जिम्मेदार है? दूसरा, इन तीनों व्यक्तियों को फिजूल में जेल काटने का कोई हर्जाना मिलना चाहिए या नहीं? तीसरा सवाल सबसे महत्वपूर्ण है. वह यह कि देश की जेलों में ऐसे हजारों लोग सालों सड़ते रहते हैं, जिनका अपराध सिद्ध नहीं हुआ है और जिन पर मुकदमे चलते रहते हैं.
शायद उनकी संख्या सजायाफ्ता कैदियों से कहीं ज्यादा है. बरसों जेल काटने के बाद जब वे निर्दोष रिहा होते हैं तो वह रिहाई भी क्या रिहाई होती है? क्या हमारे सांसद ऐसे कैदियों के लिए कुछ करेंगे? वे अदालती व्यवस्था इतनी मजबूत क्यों नहीं बना देते कि कोई भी व्यक्ति दोष सिद्ध होने के पहले जेल में एक माह से ज्यादा न रहे.