गुरचरण दास का ब्लॉग: भारत के मध्यमार्गी मतदाताओं की त्रासदीपूर्ण दुविधा
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: April 7, 2019 09:25 AM2019-04-07T09:25:50+5:302019-04-07T09:25:50+5:30
मोदी बहुमत का फायदा उठाते हुए बदलाव नहीं ला पाए. वे किसानों की हालत सुधार नहीं पाए. वे बैंकिंग संकट का उपयोग सार्वजनिक क्षेत्र के सबसे खराब प्रदर्शन वाले बैंकों का निजीकरण करने में कर सकते थे.
जब मैंने 2014 में मोदी के लिए वोट किया तो अपने वामपंथी दोस्तों को खो दिया था. जब मैंने नोटबंदी, बहुसंख्यकों की राजनीति और हमारे संस्थानों को कमजोर करने के लिए मोदी की आलोचना की तो अपने दक्षिणपंथी मित्रों को खो दिया. जब मेरे पास कोई मित्र नहीं बचा तब मैंने जाना कि मैं सही स्थान पर पहुंच गया हूं.
चुनाव नजदीक आने के साथ ही मैं मायूस हो गया हूं. अच्छे दिन तो आए नहीं, लेकिन राष्ट्रवाद आ गया है और जिस भारत से मैं प्यार करता हूं वह बदल रहा है. मैं मोदी भक्तों और उनसे नफरत करने वालों से घिरा हुआ हूं और दोनों में ही मेरी रुचि नहीं है. लेकिन मेरी समस्या यह है कि मुङो पता नहीं है वोट किसे दूं. मैं दुविधा में हूं और मेरे लिए सांत्वना की बात यह है कि मैं अकेला नहीं हूं; बहुत से भारतीय मेरी तरह दुविधा में हैं कि वे किसे वोट दें.
पांच साल पहले भी मैं चिंतित था. महंगाई जोरों पर थी, विकास दर में गिरावट थी, भ्रष्टाचार अनियंत्रित था और सरकार पंगु थी. मैं चिंतित था कि भारत एक बार फिर मौका गंवा देगा.
जिसे ‘जनसांख्यिकीय लाभांश’ कहा जाता है, उसके अवसर सीमित ही होते हैं और युवा आबादी के होने तक ही उपलब्ध रहते हैं. यदि काम लायक सभी हाथों को रोजगार दिया जा सके तो देश की विकास दर में भारी उछाल आ सकता है. मुङो लगा कि ऐसे नेता को चुना जाना चाहिए जो रोजगार निर्माण की परिस्थितियां निर्मित करे. अन्यथा दस-बाहर वर्षो में ‘युवा आबादी’ का यह अवसर गायब हो जाएगा. तब मुङो सभी उम्मीदवारों में मोदी सबसे बेहतर लगे थे.
यह निर्णय आसान नहीं था. हिंदू राष्ट्रवाद मुझे आकर्षित नहीं करता था. मैं धर्मनिरपेक्षता के सामने मौजूद खतरे से भी परिचित था. लेकिन मुङो लगा कि यदि भारत रोजगार निर्मित करने में विफल रहता है तो हमारी एक और पीढ़ी बेकार हो जाएगी. मुङो महसूस हुआ कि भारत की लोकतांत्रिक संस्थाएं तानाशाही को रोक पाने में सक्षम साबित होंगी.
पांच साल बाद, मैं निराश हूं, क्योंकि जिस रोजगार निर्माण का वादा किया गया था वह कहीं दिखाई नहीं दे रहा है और किसानों की हालत भी ठीक नहीं है.
मोदी बहुमत का फायदा उठाते हुए बदलाव नहीं ला पाए. वे किसानों की हालत सुधार नहीं पाए. वे बैंकिंग संकट का उपयोग सार्वजनिक क्षेत्र के सबसे खराब प्रदर्शन वाले बैंकों का निजीकरण करने में कर सकते थे.
हालांकि मैं इससे खुश हूं कि अर्थव्यवस्था को समुचित ढंग से संभाल लिया गया है. राजकोषीय घाटे में कमी आई है, महंगाई दो-तीन प्रतिशत तक नीचे आ गई है और बुनियादी ढांचे में सुधार हुआ है. लेकिन इन उपलब्धियों के बावजूद मैं भाजपा की बहुसंख्यक राजनीति और हिंदू राष्ट्रवाद के जुनून से दुखी हूं. अल्पंख्यक असुरक्षित महसूस कर रहे हैं और संस्थाएं कमजोर हुई हैं.
तो मैं 2019 में किसे वोट दूंगा? मैं नहीं जानता. शायद मैं मतदान के दिन ही यह तय करूं. मैं जानता हूं कि अर्थव्यवस्था और प्रशासनिक सुधार के मामले में मोदी ज्यादा बेहतर करेंगे, लेकिन क्या मैं इसके लिए सामाजिक सामंजस्य को खोने की बड़ी कीमत चुकाने को तैयार हूं? राहुल गांधी के नेतृत्व में देश ज्यादा धर्मनिरपेक्ष रहेगा, लेकिन रोजगार निर्माण भी तो जरूरी है! क्या मैं एक और पीढ़ी की कुर्बानी देने के लिए तैयार हूं?
मध्यमार्गी होने के कारण मैं जो तर्कसंगत और व्यावहारिक है उसी को वोट देना चाहूंगा, पूर्वाग्रह या पार्टीलाइन के आधार पर नहीं. मुङो लगता है कि अनेक भारतीय मतदाता मेरी तरह इस त्रसद दुविधा में फंसे हुए हैं.