नाना पाटेकर का ब्लॉग: 50 किलो का प्रत्याशी सालभर में 125 किलो का कैसे हो जाता है?

By नाना पाटेकर | Published: January 4, 2022 11:19 AM2022-01-04T11:19:29+5:302022-01-04T12:22:06+5:30

विदेशों में जब कोई परियोजना शुरू होती है तो उसकी निविदा कितने की है, परियोजना कब तक पूरी होगी, वक्त पर नहीं बनी तो कितना जुर्माना, काम का स्तर, उसकी गारंटी जैसी जानकारी आम आदमी को दी जाती है. जनता का यह जन्मसिद्ध अधिकार है. घटिया दर्जे के काम के लिए कोई जगह नहीं है.

government projects elected representatives corruption | नाना पाटेकर का ब्लॉग: 50 किलो का प्रत्याशी सालभर में 125 किलो का कैसे हो जाता है?

नाना पाटेकर का ब्लॉग: 50 किलो का प्रत्याशी सालभर में 125 किलो का कैसे हो जाता है?

Highlightsगोसीखुर्द या कोयना परियोजना प्रभावितों की समस्याओं का समाधान अब तक नहीं हो पाया है.आला दर्जे की विचारधारा से जुड़े व्यक्ति को भी सत्ता भ्रष्ट बना देती है.

किसी भी परियोजना के शुरू होने के दौरान उसको लेकर बड़े-बड़े ऐलान किए जाते हैं. धूमधाम से भूमिपूजन होता है. लेकिन फिर वो परियोजना वर्षोवर्ष धीमी गति से चलती रहती है. गोसीखुर्द या कोयना परियोजना प्रभावितों की समस्याओं का समाधान अब तक नहीं हो पाया है.

आखिर ऐसा क्यों होता है. इस सब के लिए जिम्मेदार किसे माना जाए? इस सब में अपनी कोई व्यक्तिगत जिम्मेदारी है या नहीं? कई सवाल ऐसे हैं जो हमारे दिलोदिमाग में उठने चाहिए.

कल ही जीतकर आया प्रत्याशी सालभर के भीतर 50 किलो से 125 किलो का कैसे हो जाता है? हमें इस बात पर हैरत होनी चाहिए कि जो तरक्की सरकारी परियोजनाओं में नहीं हो पाई, वो भला इसके मामले में कैसे हो गई.

आखिर उसने यह तरक्की कैसे की, इसकी जांच तो होनी ही चाहिए न? इतिहास गवाह है कि आला दर्जे की विचारधारा से जुड़े व्यक्ति को भी सत्ता भ्रष्ट बना देती है.

घटिया दर्जे के लिए जगह नहीं

विदेशों में जब कोई परियोजना शुरू होती है तो उसकी निविदा कितने की है, परियोजना कब तक पूरी होगी, वक्त पर नहीं बनी तो कितना जुर्माना, काम का स्तर, उसकी गारंटी जैसी जानकारी आम आदमी को दी जाती है. जनता का यह जन्मसिद्ध अधिकार है. घटिया दर्जे के काम के लिए कोई जगह नहीं है. 

ब्लैकलिस्टेड कंपनियां टेंडर भर ही नहीं सकतीं. अच्छी-खासी रकम जमानत के तौर पर रखनी पड़ती है. नियमों का पालन ही वहां की जीवनशैली का अभिन्न हिस्सा है. वहां के लोग केवल कुत्ता ही नहीं, नियम भी पालते हैं. घटिया काम से जान-माल का नुकसान होने पर आर्थिक दंड के साथ-साथ आजीवन कारावास और कुछ मामलों में फांसी की सजा तक का प्रावधान है.

सबसे अधूरी परियोजना मैं खुद

वास्तविकता में तो सबसे ज्यादा लंबित और अधूरी परियोजना मैं खुद हूं. मैं अपनी जवाबदारी कहां निभा रहा हूं? कहीं भी थूकता हूं, कहीं भी खड़े होकर पेशाब कर देता हूं, बंद सिग्नल में गाड़ी निकाल लेता हूं, लाइन में नहीं खड़ा हो पाता. 

बड़े-बुजुर्गो का आदर नहीं कर पाता. पड़ोसी से नाते तोड़ लिए हैं. किसी का भी विचार किए बगैर गाने लाउडस्पीकर पर जोर-जोर से बजाता रहता हूं. कहीं भी कचरा फेंक देता हूं. सारे आदर्शो को धूल में मिला चुका हूं. 

महाराज के नाम से जय-जयकार तो करता हूं, लेकिन उनके ही विचारों को पैरों तले रौंद देता हूं. घर की चारदीवारी के बाहर की दुनिया मुझे अपनी नहीं लगती. आखिर मैं ऐसा क्यों हो गया? यही सवाल बस मैं खुद से पूछता रहता हूं.

जीतने के बाद मौजां-मौजां!

सारे आदर्श केवल चुनाव जीतने तक ही होते हैं, उसके बाद एक बार सत्ता मिली कि सभी आदर्शो को ताक पर रख दिया जाता है. सत्ता जाने तक फिर उन आदर्शो को याद ही नहीं करने का. सत्ता गई कि फिर सारे आदर्शो को धूल झटककर बाहर निकाल लिया जाता है. 

महापुरुषों, राष्ट्र के महानायकों, कामयाब महिलाओं के नाम करेंसी की तरह भुनाने की कोशिश होती है. दिखावटी नेता तो इन लोगों के आदर्शो को सुविधा के मुताबिक लोगों को सुनाते रहते हैं. 

अज्ञान की वजह से कई बार किसी और का कहा किसी और के नाम से भी चिपका देते हैं. कुछ लोगों की बेवकूफी ही इतनी पसंद की जाने लगी है कि उन्हें वह अपना अच्छा गुण लगने लगी है.

राजनीति में शिक्षा की शर्त क्यों नहीं?

किसी भी क्षेत्र में जाइए, शिक्षा की शर्त होती है. राजनीति में ऐसा कुछ भी नहीं है. न्यूनतम शिक्षा की शर्त तो होनी ही चाहिए. फिर वह किसी भी जाति-धर्म का हो. लोकसभा-विधानसभा की पवित्रता कायम न रख पाने वालों को स्थायी तौर पर निलंबित क्यों नहीं कर दिया जाता? 

दलबदलू विधायकों, सांसदों को पांच साल के लिए किसी भी पद से वंचित कर दिया जाना चाहिए. मुझे पूरा विश्वास है कि ऐसा हुआ तो कोई भी दल नहीं बदलेगा. मौत अटल है, इसका अहसास हर किसी को होना चाहिए. बेवजह जमाखोरी की प्रवृत्ति कम होगी. मौत आना है यह पता होना और मौत की समझ में फर्क है.

आखिर ऐसा क्यों?

यहां के आसमान, पहाड़, नदी-नाले, पशु-पक्षी और लोग क्यों अपने से नहीं लगते? इन सब पर मेरा अधिकार है, सबसे मेरा नाता है, यह भावना कहां चली गई? देश की किसी भी जिम्मेदारी को मैं क्यों नहीं अपनाता. 

विदेश में तो मैं भारतीय बनकर घूमता हूं, तो फिर भारत में रहते हुए यह क्यों भूल जाता हूं? उस दौरान ही मुझे जाति-धर्म क्योंकर याद आते हैं? देखा जाए तो यह सवाल बहुत छोटे हैं, लेकिन वास्तविकता में बहुत बड़े हैं?

उस दिन पूरी हो जाएंगी परियोजनाएं

मेरे गांव में मां-बहनों के माथे पर सिंदूर के नीचे एक आड़ी रेखा होती है, जिसे ‘चिरी’ कहा जाता है. वह गाढ़ी हरी रेखा मुझे क्षितिज की तरह लगती है और उस पर लगा सिंदूर दमकते सूरज की तरह. उस सूरज की धधक को कायम रखने के लिए जिस दिन मुझे खुद जल जाने की इच्छा होगी, उस दिन सारी परियोजनाएं पूरी हो जाएंगी.

Web Title: government projects elected representatives corruption

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