गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: सीखने के लिए सार्थक परिवेश की जरूरत
By गिरीश्वर मिश्र | Published: August 23, 2019 06:06 AM2019-08-23T06:06:20+5:302019-08-23T06:06:20+5:30
ई-माध्यमों पर व्याख्यान और शैक्षिक सामग्री की सशक्त प्रस्तुतियां बड़ी लोकप्रिय हो रही हैं. यही नहीं इन सबमें भागीदारी और मिल-जुल कर सीखने समझने की संभावना भी बन रही है. इसका एक सुखद पक्ष यह भी है कि छात्न इनके साथ अपनी रुचि और गति के साथ ज्ञान और कौशल अर्जित करने का सुविधाजनक अवसर पा रहे हैं.
आज की तकनीकी प्रगति जिस तरह हो रही है उससे औपचारिक शिक्षा के स्वरूप और भूमिका को लेकर सही ढंग से सोचने की जरूरत है. आज की इंटरनेटप्रिय छात्न की स्वयंशिक्षा की बढ़ती प्रवृत्ति और नाना विषयों पर मल्टीमीडिया की प्रचुर सामग्री का उपलब्ध होना सीखने के पूरे परिवेश को ही बदल रहा है.
सामाजिक सॉफ्टवेयर जैसे गूगल स्कॉलर, विकीपीडिया, फेसबुक और यू-ट्यूब जैसे स्रोत सीखने के अतिरिक्त और प्रभावी अवसरों को तात्कालिक रूप से उपलब्ध करा रहे हैं. ई-माध्यमों पर व्याख्यान और शैक्षिक सामग्री की सशक्त प्रस्तुतियां बड़ी लोकप्रिय हो रही हैं. यही नहीं इन सबमें भागीदारी और मिल-जुल कर सीखने समझने की संभावना भी बन रही है. इसका एक सुखद पक्ष यह भी है कि छात्न इनके साथ अपनी रुचि और गति के साथ ज्ञान और कौशल अर्जित करने का सुविधाजनक अवसर पा रहे हैं.
आज कोई भी सामान्य बुद्धि का बच्चा डिजिटल मीडिया के विविध रूपों से बड़ी शीघ्रता से परिचित हो लेता है. इन सब नवाचारों के चलते औपचारिक शिक्षा की प्रचलित व्यवस्था अरुचिकर और निष्फल होती दिख रही है. इस परिवर्तन को गंभीरता से लेने की आवश्यकता है. तभी हम स्वाधीन और ज्ञान संपन्न नागरिक बनाने में सफल हो सकेंगे.
श्रेष्ठ अकादमिक और सांस्कृतिक परंपरा का आदर जरूरी है, पर तेजी से बदलते आज के दौर में यह विचार करना होगा कि अगली पीढ़ी क्या चाह रही है. हमारी मानकीकृत और उबाऊ शिक्षा की स्वीकृत प्रथाओं में परिवर्तन लाना अनिवार्य होता जा रहा है. चूंकि शिक्षा समाज के भविष्य निर्माण से जुड़ी है, इस दिशा में गंभीरता से विचार जरूरी है.
दरअसल अभी तक चल रही औपचारिक शिक्षा उन्नीसवीं सदी के औद्योगिक मॉडल पर आयोजित ‘मास स्कूलिंग’ की अवधारणा भ्रामक वैचारिक आधारशिला पर टिकी थी. यह माना गया कि सभी बच्चे मूलत: खाली या रिक्त स्लेट की तरह जीवन शुरू करते हैं तथा उन्हें जबरिया सिखाया जा सकता है. यह मानव स्वभाव की वास्तविकता से बहुत दूर थी. पर इसे ध्यान में रख कर ऐसी फैक्ट्री जैसी स्कूली व्यवस्था व्यवहार में लाई गई.
यह व्यवस्था अक्षम, अलगाववादी और बहुत हद तक अनुत्पादी साबित हुई है. चूंकि संस्थाएं समाज के स्वरूप और कार्यशैली को प्रभावित करती हैं इसलिए खराब स्कूल समाज में भी समायोजन और प्रगति के मार्ग में कठिनाई बढ़ाते हैं. धीरे-धीरे यह बात अब स्पष्ट हो चुकी है कि विद्यार्थी स्वयं में एक स्वायत्त इकाई होता है जो अपनी निजी क्षमता और पसंद के अनुकूल खास विषय को खास ढंग से पढ़ने की प्रवृत्ति रखता है.
मनुष्य की विकास यात्ना पर गौर करें तो यह बात उभर कर सामने आती है कि वह एक स्वत: संगठित प्राणी है तथा अपने परिवेश के साथ बड़ी गहनता से जुड़ा होता है. साथ ही सक्रिय रूप से सीखना और सृजनात्मकता उसके लिए विशेष महत्व के होते हैं. वस्तुत: क्षमता, स्वायत्तता और सामाजिक पारस्परिकता ये तीन मनुष्य की जन्मजात आवश्यकताएं पहचानी गई हैं. ये ही छात्न और अध्यापक में स्वत:स्फूर्त प्रेरणा और स्वास्थ्य के मूल में होती हैं.
इनकी उपेक्षा कर के कोई समाज आगे नहीं बढ़ सकता. यह तभी संभव होगा जब छात्नों को अपने स्थानीय परिवेश में उपयोगी ज्ञान और जो उन्हें वस्तुत: महत्वपूर्ण लगता हो उसे सीखने का अवसर प्राप्त हो. यदि बच्चों के सीखने के परिवेश में सकारात्मक बदलाव आता है तो उनका सीखने के प्रति रुझान बढ़ेगा और सामाजिक योगदान की भावना भी बढ़ेगी.
यह सामान्य अनुभव और वैज्ञानिक अध्ययनों दोनों में ही पाया गया है कि यदि कुछ प्रीतिकर लगता है तो लोग न केवल उसे आसानी से सीख लेते हैं या ग्रहण कर लेते हैं बल्कि उसे अधिक चाहने लगते हैं. ऐसे परिवेशों में जहां व्यक्ति का मन प्रसन्न रहता है वह हितकर लगता है तथा वहां सकारात्मक सामाजिकता की प्रवृत्ति पनपती है. एक तरह से सीखने के परिवेश में मौजूद भावात्मक गुणवत्ता सीखने के लिए विशेष महत्व की होती है. यदि विद्यार्थी शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ होते हैं तो वे अच्छी तरह सीख सकेंगे और सीखने में उनकी रुचि बढ़ेगी. इसके लिए यह भी आवश्यक है कि छात्नों को स्वायत्तता मिलनी चाहिए और परिस्थिति पर नियंत्नण का अनुभव होना चाहिए. यदि छात्न आंतरिक रूप से प्रेरित और उत्साहित हों तो उनका अध्ययन उच्च कोटि का हो सकेगा.
आजकल छात्नों की शिक्षाकेंद्रों के प्रति उदासीनता बढ़ती जा रही है. यह चिंता का विषय है कि आम तौर पर उनमें आशावादिता की कमी दिखती है और अध्ययन के प्रति संलग्नता या लगाव कम हो रहा है. दूसरी ओर आक्रोश, आक्रामकता, हिंसा और स्वयं को हानि पहुंचाने की नकारात्मक प्रवृत्तियां भी बढ़ रही हैं. इसका परिणाम उनके अध्ययन की सीमित उपलब्धि और मानसिक तथा शारीरिक स्वास्थ्य के लिए हानि के रूप में परिलक्षित होता है. शिक्षा के परिसरों को भयमुक्त और सकारात्मक बनाने के लिए अध्यापकों को प्रशिक्षित करना और शिक्षा की प्रक्रिया को रुचिकर व आकर्षक बनाना आवश्यक है.