गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: प्राइमरी स्कूल के अध्यापकों का धर्मसंकट

By गिरीश्वर मिश्र | Published: July 22, 2019 12:03 PM2019-07-22T12:03:09+5:302019-07-22T12:03:09+5:30

इस समय भारत की नई शिक्षा नीति के मसौदे को लेकर चर्चाओं के दौर चल रहे हैं. सरकार ने नीति के बारे में सबसे सुझाव मांगे हैं ताकि उसे एक मुकम्मल रूप दिया जा सके. शिक्षा के लिए बजट प्रावधान में भी सरकार ने पिछले साल की तुलना में थोड़ा इजाफा किया है जिससे उसकी नेकनीयती का संकेत मिलता है.

Girishwar Mishra blog: primary school teachers in Dilemma | गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: प्राइमरी स्कूल के अध्यापकों का धर्मसंकट

तस्वीर का इस्तेमाल केवल प्रतीकात्मक तौर पर किया गया है। (फाइल फोटो)

इस समय भारत की नई शिक्षा नीति के मसौदे को लेकर चर्चाओं के दौर चल रहे हैं. सरकार ने नीति के बारे में सबसे सुझाव मांगे हैं ताकि उसे एक मुकम्मल रूप दिया जा सके. शिक्षा के लिए बजट प्रावधान में भी सरकार ने पिछले साल की तुलना में थोड़ा इजाफा किया है जिससे उसकी नेकनीयती का संकेत मिलता है. इस नीति की दिशा में हम आगे बढ़ें तो हमको अपनी जमीन भी टटोलनी होगी जिस पर हम खड़े हैं और तटस्थ हो कर यह भी देखना होगा कि हम किस हाल में कहां खड़े हैं, कहां पहुंचना चाहते हैं और हमारा रास्ता क्या होगा.

इस दृष्टि से विचार करने पर प्राइमरी शिक्षा का प्रश्न एक ज्वलंत और संवेदनशील मुद्दा बन कर उभरता है. यह इसलिए भी खास हो जाता है कि देश की बढ़ती आबादी के मद्देनजर प्राइमरी स्कूलों की क्षमता और गुणवत्ता दोनों में वरीयता के आधार पर सुधार लाना होगा. इस बात को स्पष्ट करने के लिए मैं देश के जनसंख्या-बहुल क्षेत्न उत्तर प्रदेश में प्राइमरी स्कूलों की वर्तमान स्थिति की ओर ध्यान दिलाना चाहूंगा.  

उत्तर प्रदेश में सर्वशिक्षा अभियान के अंतर्गत सरकार ने हर मौजा या गांव पर, जहां 20-30 घर भी हों, प्राइमरी विद्यालय की व्यवस्था का निश्चय कर विद्यालय स्थापित कर दिया ताकि ज्यादा से ज्यादा बच्चे स्कूल जाएं. सरकारी प्रावधान के तहत नियमत: शिक्षक छात्न का अपेक्षित अनुपात 1:30 या 35 तय है. अब अध्यापक की मुसीबत है कि छोटे से गांव में इतने बच्चे वह कहां से ले आए. दूसरी ओर आज बहुत सारे सरकारी प्राइमरी स्कूल सिर्फ एक या दो अध्यापकों के सहारे कक्षा एक से कक्षा पांच तक पांच वर्षो की पढ़ाई का काम पूरा कर रहे हैं. हर साल अध्यापकों का समायोजन किया जाता है, और चालू व्यवस्था के अनुसार जहां भी छात्न घटते हैं वहां से अध्यापक खिसका दिए जाते हैं.

इस व्यवस्था से अध्यापकों का मनोबल घटता है. इन विद्यालयों के आस-पास ‘कॉन्वेंट’ और ‘पब्लिक स्कूल’ यानी  निजी विद्यालय भी खुलते जा रहे हैं. उनको चलाने वाले पहले अध्यापक की व्यवस्था करते हैं, विद्यालय को दुरुस्त करते हैं, तब छात्न खोजते हैं. सरकारी तंत्न में ठीक उल्टी व्यवस्था है. निजी विद्यालय खोलने की मान्यता देते समय यह भी ध्यान नहीं रखा जाता कि कहीं अगल-बगल सरकारी स्कूल तो नहीं चल रहा है. इस तरह ये निजी विद्यालय भी खूब फल-फूल रहे हैं. 

सरकारी स्कूल में सुविधाओं के अभाव, अध्यापकों की कमी और अव्यवस्था से  बच्चों के पालक त्नस्त नजर आते हैं. स्कूल की गिरती साख का परिणाम यह होता है कि जिस भी पालक के पास थोड़े से पैसे इकट्ठे हो जाते हैं वह अपने बच्चे को निजी विद्यालय में दाखिला दिला देता है, भले ही छह महीने बाद फीस न देने के कारण  बच्चे को स्कूल से निकाल दिया जाता है. तब  वह बच्चा शर्म के नाते न तो निजी विद्यालय में जाता है न सरकारी  विद्यालय में. सरकार का शिक्षा विभाग अपने सरकारी अध्यापकों से कहता है  कि जाओ गांव में ‘आउट ऑफ स्कूल’ बच्चों को चिन्हित करो, उनका स्कूल में प्रवेश करो. फिर कहानी दुहराई जाती है.

Web Title: Girishwar Mishra blog: primary school teachers in Dilemma

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