गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: पार्टियों को सिद्ध करनी होगी अपनी प्रासंगिकता
By गिरीश्वर मिश्र | Published: February 15, 2020 05:54 AM2020-02-15T05:54:08+5:302020-02-15T05:54:08+5:30
आज राजनीतिक दलों और सरकारों के सामने यह एक बड़ा और महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा हो रहा है कि वे कहां तक और किस तरह स्वयं को जन सामान्य के लिए प्रासंगिक सिद्ध कर पा रहे हैं. सरकार और जनप्रतिनिधि होने का दावा करने वाले को जनता के लिए और उसकी दृष्टि में प्रासंगिक होना पड़ेगा. तभी उनकी साख बनेगी.
दिल्ली विधानसभा का ताजा चुनावी दंगल अब थम गया है. यह चुनाव इस अर्थ में महत्वपूर्ण था कि एक स्थानीय या सीमित क्षेत्नीय पार्टी और राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों के बीच मुकाबला था. यह खास इसलिए भी था क्योंकि राष्ट्रीय पार्टियों का यहां पहले दबदबा रह चुका है और उनमें से एक दल की आज केंद्र में सत्ता भी है. अब सभी दल और राजनीति के मर्मज्ञ चुनाव परिणामों की जांच-परख करते हुए अपनी व्याख्याएं जारी करने में जुट गए हैं. इसके बावजूद कि जनता का संदेश स्पष्ट है, नतीजे की अलग-अलग व्याख्याएं हो रही हैं, निहितार्थ तलाशे जा रहे हैं. पर जमीनी हकीकत से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता.
केजरीवाल स्वयं पढ़े-लिखे और सुबुद्ध हैं तथा प्रकट रूप से भ्रष्टाचार के विरुद्ध हैं. उनकी टीम में उत्साही युवा हैं. शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी, बिजली, परिवहन व्यवस्था और अन्य नागरिक सुविधाओं को उपलब्ध कराने के लिए उनकी प्रतिबद्धता सिर्फ कागजी या नारा न हो कर कार्य रूप में प्रतिफलित हुई और दिखी भी.
यानी केजरीवाल सरकार को प्रचंड बहुमत के साथ जो अवसर पिछले बार के चुनाव में मिला था उसका सकारात्मक परिणाम उस तबके के लोगों के ताजे अनुभव का हिस्सा था जो गरीब और मध्यम वर्ग के हैं और मतदाताओं में जिनकी अच्छी खासी संख्या है.
यानी उन्हें महसूस हुआ कि आप को समर्थन देने का उनका फैसला ठीक था. साथ ही केजरीवाल के काम करने के तौर-तरीके और जन-उपलब्धता ने सरकार और जनता के बीच की दूरी को कम किया था जिसके कारण आप (पार्टी) की सरकार आपकी (जनता की) सरकार में बदल सकी.
इस तरह केजरीवाल ने अपने को प्रासंगिक साबित करने की कोशिश की और उसमें वह सफल भी सिद्ध हुए. दूसरी ओर अन्य दलों ने प्रासंगिकता की परवाह न करते हुए जिस तरह से चुनावी कैम्पेन की बेवजह आक्रामक मुहिम छेड़ी वह प्रासंगिकता की कसौटी पर खरी नहीं उतर सकी.
आज राजनीतिक दलों और सरकारों के सामने यह एक बड़ा और महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा हो रहा है कि वे कहां तक और किस तरह स्वयं को जन सामान्य के लिए प्रासंगिक सिद्ध कर पा रहे हैं. सरकार और जनप्रतिनिधि होने का दावा करने वाले को जनता के लिए और उसकी दृष्टि में प्रासंगिक होना पड़ेगा. तभी उनकी साख बनेगी.
केजरीवाल ने अंशत: ही सही, इस दिशा में कई मुश्किलों के बीच पहल करने की एक कोशिश की और उसका लाभ भी उन्हें मिला. आज जनता की ओर से राजनीति की प्रासंगिकता की मांग की जा रही है. वादों और नारों से आगे उनको निभाने का प्रश्न खड़ा किया जा रहा है. सरकार को जनता जनार्दन का सुख-दुख, उनका योग-क्षेम देखने संभालने का दायित्व तो निभाना ही पड़ेगा.