ब्लॉग: थमाए गए नारीवाद से नहीं मिलेगी आजादी
By अभय कुमार दुबे | Published: March 11, 2024 10:14 AM2024-03-11T10:14:17+5:302024-03-11T10:22:13+5:30
सरकार की तरफ से गैस सिलेंडर सस्ता करने से लेकर एक प्रतिष्ठित समाजसेविका के राज्यसभा में मनोनयन को विशेष प्रमुखता से पेश किया गया। लेकिन इन चर्चाओं में जो बात रह गई वह औरतों की आजादी से जुड़े हुए विमर्श की है।
महिला दिवस सभी लोग मनाते हैं। जो स्वयं को नारीवाद का समर्थक नहीं कहते, या जो महिलाएं नारीवाद से परहेज करती हैं, महिला दिवस वे भी मनाती हैं। इस मौके पर कुछ इस किस्म की बात होती है कि श्रमशक्ति में स्त्रियों की भागीदारी का प्रतिशत पुरुष के मुकाबले कैसे दुरुस्त किया जाए, या किसी कंपनी के बोर्ड रूम में स्त्रियों की नेतृत्वकारी भूमिका को कैसे निखारा जाए। हर बार की तरह इस बार भी स्त्रियों के सशक्तिकरण की बातें हुईं। इसके कुछ नये रूपक भी सामने आए।
इनके तहत सरकार की तरफ से गैस सिलेंडर सस्ता करने से लेकर एक प्रतिष्ठित समाजसेविका के राज्यसभा में मनोनयन को विशेष प्रमुखता से पेश किया गया। लेकिन इन चर्चाओं में जो बात रह गई वह औरतों की आजादी से जुड़े हुए विमर्श की है। ध्यान रहे कि जो लोग नारीवाद को नापसंद करते हैं, वे भी स्त्री-समर्थक चर्चाएं करते हुए ऐसी बहुत सी बातें करते हैं जो नारीवादी विमर्श के जरिये प्रचलित हुई हैं। कुल मिलाकर नारीवाद के विरोधी हों, या समर्थक- उनके मानस पर इसी विमर्श की थोड़ी या पूरी छाप रहती है।
आम तौर पर भारत में चलने वाले स्त्री-विमर्श पर भी पितृसत्ता की अवधारणा, न्यूक्लियर फैमिली (लघु परिवार) और जेंडर की थियरी हावी रहती है। ये तीनों विमर्शी पहलू पश्चिमी नारीवाद की देन हैं। इनका सूत्रीकरण पश्चिमी विद्वानों ने यूरोपीय समाजों के अनुभव की रोशनी में किया है। यही विमर्श आगे बढ़ कर अपना विस्तार सारे देश में परिवार, विवाह और उत्तराधिकार के लिए एक ही कानून (समान नागरिक संहिता) के आग्रह में करता है।
चूंकि इस तरह की संहिता का वायदा संविधान में भी दर्ज है इसलिए कुल मिलाकर ये सब बातें एक ऐसे विचार-चक्र का निर्माण कर देती हैं जिसकी आलोचना पर आधुनिकता विरोध, दकियानूसीपन और पितृसत्ता के समर्थन की मुहर आसानी से लग जाती है। इन सवालों के इर्दगिर्द होने वाली बहसों में स्त्रियों के साथ होने वाले अन्याय का ठीकरा परंपरा और संयुक्त परिवार की भारतीय संरचना के दरवाजे पर फोड़ दिया जाता है। निश्चित रूप से जीवन के हर क्षेत्र में स्त्री और पुरुष की बराबरी एक ऐसा आदर्श है जिसे लाजिमी तौर पर हर समाज को हासिल करना चाहिए, लेकिन क्या पश्चिम से मिला यह विमर्श भारतीय समाज को इस उपलब्धि की तरफ ले जाने में सक्षम है?
हकीकत यह है कि परिवार, समाज और रिश्तों की जेंडर आधारित विचार-प्रणाली यूरोपीय उपनिवेशवाद के साथ-साथ ही पनपी है। इसके केंद्र में जो लघु परिवार (कमाने वाले पति की सत्ता, उसकी मातहती में गृहस्थी संभालने वाली पत्नी और बच्चे) है वह औद्योगिक क्रांति के दौरान यूरोप में उदीयमान पूंजीवाद द्वारा प्रोत्साहित किया गया था। लघु परिवार पर आधारित इस विमर्श के लिए स्त्री का मुख्य प्रारूप पत्नी और पुरुष का मुख्य प्रारूप पति बन जाता है।
इस लिहाज से पश्चिम की पितृसत्ता का मुख्य रूप पति-सत्ता है। इस परिवार में मां-बेटी-बहन बनाम पिता-भाई-बेटे के दो जेंडर हर समय एक-दूसरे के खिलाफ प्रतियोगिता करते दिखाए जाते हैं। परिणामस्वरूप पश्चिमी नारीवाद मान लेता है कि विवाह की संस्था ने स्त्रियों और पुरुषों को हमेशा-हमेशा के लिए शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध के लिए अभिशप्त कर दिया है।
इस विमर्श का रुतबा उपनिवेशित समाजों के विद्वानों पर इस कदर गालिब है कि वे जेंडर और पितृसत्ता की अवधारणाओं को प्रश्नांकित करने से परहेज करते हैं। वे एकदम शुरुआती किस्म का यह सवाल भी नहीं पूछना चाहते कि अगर जेंडर एक सामाजिक निर्मिति है, तो हर समाज के लिए एक ही किस्म के जेंडर की निर्मिति वैध कैसे हो सकती है? इसी तरह उसके आधार पर निर्मित स्त्री की श्रेणी सार्वभौम या यूनिवर्सल कैसे हो सकती है? उसके उत्पीड़न के रूप सार्वभौम कैसे हो सकते हैं, और उसकी समानता के लिए किया जाने वाले संघर्ष का मुख्य प्रारूप सार्वभौम कैसे हो सकता है? वे यह भी नहीं पूछना चाहते हैं कि स्त्री के संदर्भ में जेंडर को ही एकमात्र श्रेणी की तरह क्यों ग्रहण किया जाना चाहिए?
अब समय आ गया है कि हम जेंडर की इस वैचारिक कैद से निकल कर भारतीय समाज में घर-गृहस्थी के हजारों वर्ष पुराने अनुभवों और उनके आधार पर सूत्रबद्ध किए गए शास्त्रोक्त ज्ञान पर नजर डालें। हमारे यहां एक संपूर्ण गृहस्थ वही माना गया है, जिसके भीतर तीन हस्तियां (गृहस्थ स्वयं, उसकी पत्नी या गृहस्थिन और उसकी संतान) एक साथ एकताबद्ध हों। यह विचार इशारा करता है कि प्राचीन भारत में घर-गृहस्थी का मतलब केवल पत्नी नहीं था, बल्कि पति, बच्चे भी उसमें विधायक भूमिका निभाते थे।
उपनिषदों और अन्य धर्मशास्त्रों ने गृहस्थी और जीवन के गृहस्थाश्रम नामक चरण को सर्वाधिक महत्वपूर्ण और केंद्रीय माना है। शास्त्र ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ को ग्रहस्थाश्रम के ऊपर तरजीह नहीं देते। इसी तरह हमारे स्मृतिकार आठ अलग-अलग तरह के विवाहों की सिफारिश करते हैं। इनमें गंधर्व विवाह के लिए तो परिवार, पुरोहित और कर्मकांडों की मौजूदगी तक जरूरी नहीं है। यह विवाह आज के जमाने के सहजीवन (लिव इन रिलेशनशिप) जैसा ही है।
भारतीय स्त्री को सशक्त बनाने और परिवार के एक बेहतर रूप की खोज के लिए पश्चिमी विमर्श की जकड़ से बाहर निकलने और भारतीय परंपरा के नये सिरे से अध्ययन की आवश्यकता है।