ब्लॉग: जनता को मुफ्त में वस्तुएं नहीं, नगदी दीजिए

By भरत झुनझुनवाला | Published: February 26, 2022 08:18 AM2022-02-26T08:18:09+5:302022-02-26T08:30:53+5:30

राजनीतिक पार्टियों को मुफ्त वस्तुएं वितरित करने के स्थान पर जनता को अपने रोजगार को बनाने और दीर्घकालिक आय अर्जित करने का रास्ता बनाने में मदद करनी चाहिए. लेकिन यहां समस्या हमारी आर्थिक नीतियों के मूल ढांचे की है. 

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ब्लॉग: जनता को मुफ्त में वस्तुएं नहीं, नगदी दीजिए

Highlightsमुफ्त लैपटॉप, साइकिल और कहीं-कहीं तो शराब भी मुफ्त बांटने के वादे किए जा रहे हैं.मुफ्त वस्तुएं वितरित करने के स्थान पर रोजगार का रास्ता बनाने में मदद करनी चाहिए.हमारी दृष्टि सिर्फ इस बात पर टिकी हुई है कि देश कितना समृद्ध है, देशवासी गरीब हों तो चलेगा.

चुनाव के समर में मुफ्त वस्तुएं बांटने की होड़ लगी हुई है. सरकार द्वारा पहले ही मुफ्त शिक्षा, किसानों को मुफ्त बिजली, मुफ्त गैस सिलेंडर, मुफ्त आवास आदि दिए जा रहे थे.

अब मुफ्त लैपटॉप, साइकिल और कहीं-कहीं तो शराब भी मुफ्त बांटने के वादे राजनीतिक दलों या उम्मीदवारों द्वारा किए जा रहे हैं. इस प्रकार के वितरण में सरकार का राजस्व समाप्त हो जाता है लेकिन लाभार्थी को केवल तात्कालिक आराम मिलता है. उसको अपनी जीविका को लंबे समय तक चलाने का मार्ग नहीं मिलता है. 

राजनीतिक पार्टियों को मुफ्त वस्तुएं वितरित करने के स्थान पर जनता को अपने रोजगार को बनाने और दीर्घकालिक आय अर्जित करने का रास्ता बनाने में मदद करनी चाहिए. लेकिन यहां समस्या हमारी आर्थिक नीतियों के मूल ढांचे की है.

हम मुख्यत: जीडीपी यानी आय के पीछे भाग रहे हैं. जनता को रोजगार मिले या न मिले, हमारी दृष्टि सिर्फ इस बात पर टिकी हुई है कि देश कितना समृद्ध है, देशवासी गरीब हों तो चलेगा. 

परिणामस्वरूप जनता को रोजगार उपलब्ध करने के प्रयास नहीं हो रहे हैं. जीडीपी बढ़ाने में बड़ी कंपनियां सफल होती हैं और छोटे उद्योग असफल होते हैं चूंकि वे तुलना में महंगा माल बनाते हैं. इसलिए सरकार ने नीति अपना रखी है छोटे उद्योगों को समाप्त करो और बड़े उद्योगों को बढ़ावा दो जिससे कि देश की जीडीपी बढ़े. 

लेकिन इसका परिणाम यह है आम आदमी बेबस है. न तो उसके पास रोजगार है और न ही आय का कोई साधन. नोटबंदी, जीएसटी और लॉकडाउन ने छोटे उद्योगों को समाप्त कर दिया है और आम आदमी को त्रस्त कर दिया है.

इस परिस्थिति में आम आदमी को राहत देना अनिवार्य है. इसका सीधा उपाय है कि उसे जीविकोपार्जन के लिए मुफ्त सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं. इस मुफ्त वितरण के विरोध में पहला तर्क यह दिया जाता है कि वित्तीय दृष्टि से ऐसा वितरण टिकाऊ नहीं है. यह तर्क सही नहीं है. 

सरकार के खर्चो को तीन श्रेणियों में रखा जा सकता है. पहला मुफ्त वितरण, दूसरा सरकारी खपत, जैसे अधिकारियों को बढ़े हुए वेतन देना अथवा उनके लिए एसयूवी खरीदना और तीसरा निवेश, जैसे हाईवे बनाना. इन तीनों में यदि हमें मुफ्त वितरण बढ़ाना है तो दूसरे दो यानी सरकारी खपत अथवा निवेश में कटौती करनी पड़ेगी. 

यह बात सही है. यदि निवेश में कटौती की जाए और सरकारी खपत बनाए रखी जाए तब यह वितरण टिकाऊ नहीं रहेगा क्योंकि निवेश करना देश की अर्थव्यवस्था के लिए जरूरी है. 

इसके विपरीत यदि सरकारी खपत में कटौती की जाए और निवेश को बनाए रखा जाए तो यह नीति टिकाऊ हो जाती है. यानी विषय मुफ्त वितरण के टिकाऊ होने का नहीं है. विषय यह है कि हम सरकारी खपत में कटौती करके मुफ्त वितरण करना चाहते हैं अथवा सरकारी निवेश में कटौती करके?

मुफ्त वितरण के विरोध में दूसरा तर्क टैक्स के दुरुपयोग का दिया जाता है. लेकिन हमारे संविधान में कल्याणकारी राज्य की कल्पना की गई है. सरकार का मूल उद्देश्य है कि जनता का कल्याण हासिल करे. 

इस दृष्टि से बड़े उद्योगों पर कॉर्परेरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी की जिम्मेदारी दी गई है जिसके अंतर्गत उन्हें अपने प्रॉफिट के एक अंश का सामाजिक कार्यो में उपयोग करना होता है. इसी क्रम में यदि टैक्स का उपयोग भी जनता को मुफ्त वितरण के लिए किया जाए तो यह कल्याणकारी राज्य के उद्देश्य को बढ़ावा देगा.

मुफ्त वितरण के संदर्भ में असल प्रश्न यह है कि यह वितरण वस्तुओं के रूप में किया जाए अथवा सीधा नगद के रूप में? वस्तुओं के मुफ्त वितरण की तरफ पहला कदम संभवत: 60 के दशक में फर्टिलाइजर पर सब्सिडी देकर उठाया गया था.

 उस समय देश में सूखा पड़ा हुआ था. खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ाना था. किसान फर्टिलाइजर का अधिकाधिक उपयोग करें इसलिए सरकार ने इसके दाम न्यूनतम रखें. किसानों ने फर्टिलाइजर का उपयोग बढ़ाया. देश में खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ा और हम भुखमरी से बाहर निकले थे. 

लेकिन यह विवादास्पद है कि क्या फर्टिलाइजर सस्ता होने से ही किसानों ने उसका उपयोग किया? संभव है कि यदि फर्टिलाइजर की उपलब्धि होती और किसान को फसल का समुचित दाम दिया जाता तो भी किसान फर्टिलाइजर का उपयोग बढ़ाते क्योंकि वे लाभ तो अर्जित करना ही चाहते हैं. 

इसलिए यह सोचना कि सब्सिडी अथवा मुफ्त वितरण से ही हम देश को सही दिशा में ले जा सकेंगे यह उचित नहीं दिखता है. सही यह है कि देश का हर नागरिक अपना हित साधना चाहता है. यदि हम ऐसी नीतियां बनाएं जिसमें वह अपने स्तर पर ही अपने हितों को बढ़ा सके तो वह उनका अवश्य ही अनुसरण करेगा. 

लोकतंत्र में माना जाता है कि जनता समझदार है. यदि ऐसा है तो फिर जनता को नगद देकर उसको अपने विवेक के अनुसार वस्तुओं की खरीद करने का अवसर देना चाहिए.

नगद वितरण को न अपनाने के पीछे मुख्यत: सरकारी नौकरशाही के स्वार्थ दिखते हैं. जैसे जनता को यदि खाद्यान्न उपलब्ध कराना है तो उसे सीधे नगद वितरित करके सक्षम बनाया जा सकता है कि वह 20 रु. किलो में गेहूं बाजार से खरीद ले; अथवा उसे 2 रु. प्रति किलो की दर से गेहूं वितरित किया जा सकता है. दोनों ही तरह से लाभार्थी को गेहूं मिलता है. 

अंतर यह है कि यदि गेहूं का वितरण वस्तु के रूप में किया जाता है तो सरकारी नौकरशाही को गेहूं खरीदने में, भंडारण करने में, वितरण करने में, राशन की दुकान चलाने में एवं राशन कार्ड बनाने में घूस इत्यादि लेने का अवसर मिलता है. इसलिए सरकारी तंत्र द्वारा दुष्प्रचार किया जाता है कि जनता मूर्ख है. अत: सभी पार्टियों को वस्तुओं के स्थान पर नगद वितरण की नीति पर आना चाहिए.

Web Title: freebies politics public elections cash distribution

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