शिशु-पोषण की अनदेखी करता शिक्षित-संपन्न वर्ग

By एनके सिंह | Published: October 12, 2019 02:09 AM2019-10-12T02:09:08+5:302019-10-12T02:09:08+5:30

समाजशास्त्रियों व सामाजिक-आर्थिक विश्लेषकों के लिए यहां प्रश्न यह खड़ा हो रहा है कि क्या आर्थिक संपन्नता और शिक्षा के कारण अभिभावक बच्चों की समुचित परवरिश को नजरअंदाज करने लगे हैं?

Educated class | शिशु-पोषण की अनदेखी करता शिक्षित-संपन्न वर्ग

शिशु-पोषण की अनदेखी करता शिक्षित-संपन्न वर्ग

Highlightsधानमंत्नी नरेंद्र मोदी को सरकारी सर्वे और अध्ययनों से काफी पहले कुछ समस्याओं का भान हो जाता है कुपोषण पर इस कार्यक्रम में कई बार उनकी चिंता देशवासियों को सामान्य सी लगी होगीप्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी को सरकारी सर्वे और अध्ययनों से काफी पहले कुछ समस्याओं का भान हो जाता है जिसे वह अपने ‘मन की बात’ कार्यक्रमों में समाज को समझाने और आगाह करने के लिए बत

प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी को सरकारी सर्वे और अध्ययनों से काफी पहले कुछ समस्याओं का भान हो जाता है जिसे वह अपने ‘मन की बात’ कार्यक्रमों में समाज को समझाने और आगाह करने के लिए बताते हैं. कुपोषण पर इस कार्यक्रम में कई बार उनकी चिंता देशवासियों को सामान्य सी लगी होगी लेकिन इस संबंध में सरकार की ही एक ताजा रिपोर्ट बेहद चौंकाने वाली है. अपने किस्म का पहला सर्वेक्षण जो केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्नालय द्वारा सन 2016-18 काल खंड में ‘व्यापक राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण’ (सीएनएनएस) है, में सबसे चौंकाने वाला तथ्य यह है कि देश में जन्मे दो साल से कम के शिशुओं में मात्न 6.4 प्रतिशत सौभाग्यशाली हैं जिन्हें ‘न्यूनतम स्वीकार्य आहार’ मिलता है. इससे भी चौंकाने वाला तथ्य यह है कि इस पैमाने पर जो राज्य सबसे निचले पायदान पर हैं वे आर्थिक, शैक्षिक और विकास के पैमानों पर दशकों से काफी ऊपर
रहे हैं.
 समाजशास्त्रियों व सामाजिक-आर्थिक विश्लेषकों के लिए यहां प्रश्न यह खड़ा हो रहा है कि क्या आर्थिक संपन्नता और शिक्षा के कारण अभिभावक बच्चों की समुचित परवरिश को नजरअंदाज करने लगे हैं? इस अवधारणा की पुष्टि इस बात से भी होती है कि जिन राज्यों में शिशु-पोषण की स्थिति काफी बेहतर है उनमें से अधिकांश अविकसित कहे जाने वाले राज्य जैसे ओडिशा, छत्तीसगढ़, झारखंड और असम हैं. केवल केरल एक अपवाद है जो इस मद में भी ऊपर के राज्यों में दूसरे स्थान पर है जबकि दशकों से अविकास का दंश ङोलने वाले इन राज्यों में पैदा होने वाले शिशुओं के पोषण की स्थिति राष्ट्रीय औसत से काफी बेहतर पाई गई. ये आंकड़े इसलिए गंभीर परिणाम की ओर इंगित करते हैं क्योंकि अगर संपन्न राज्यों में, जिनमें अभिभावकों की शिक्षा आमतौर पर बेहतर है, अगर शिशुओं की परवरिश ठीक नहीं है तो वह बच्चों के प्रति सोच, बाजारू ताकतों के खान-पान पर कुप्रभाव व अभिभावकों की संपन्नता-जनित व्यस्तता और उसकी वजह से लालन-पालन का काम सेवकों, आयाओं और क्रेश के भरोसे छोड़ने की मजबूरी की संयुक्त तस्वीर पेश करता है.
 

इसकी भयावहता तब और बढ़ जाती है जब आंकड़ों के अनुसार आंध्र प्रदेश में मात्न 1.3 प्रतिशत शिशु पैमाने के अनुसार पोषक तत्वों वाला भोजन पाते हैं जबकि महाराष्ट्र में सिर्फ 2.2, गुजरात, तेलंगाना और कर्नाटक में मात्न 3.8 और तमिलनाडु में 4.2 प्रतिशत. जबकि इस पैमाने पर सबसे बेहतर राज्य सिक्किम है जहां 35.2 प्रतिशत शिशु समुचित पोषक तत्वों वाला भोजन पाते हैं, दूसरे नंबर पर केरल (32.6 प्रतिशत) है. एक और तथ्य अभिभावकों की अदूरदर्शिता और ममत्व को पैसे के बल पर तौलने की आदत की पुष्टि करता है. अर्थिक रूप से संपन्न वर्ग का हर आठवां बच्चा स्थूल शरीर का पाया गया जबकि देश के हर दसवें बच्चे में मधुमेह-पूर्व के लक्षण मिले यानी मधुमेह होनेकी प्रबल संभावना. गरीबों में केवल 100 में से एक बच्चे में स्थूलता यानी  मोटापा पाया गया.


रिपोर्ट के अनुसार आज भी देश का हर तीसरा बच्चा (35 फीसदी) नाटा  (स्टंटेड) पैदा हो रहा है यानी उम्र से कम लंबाई वाला और लगभग हर तीसरा बच्चा उम्र के अनुसार कम वजन का जबकि हर छठवां बच्चा दुबले शरीर का यानी लंबाई के हिसाब से कम वजन का होता है. संयुक्त राष्ट्र के संगठन यूनीसेफ और विश्व स्वास्थ्य संगठन की परिभाषा के अनुसार इन उपरोक्त तीनों लक्षणों का मूल कारण शिशु और बच्चों को समुचित और संतुलित आहार न देना है जिसकी वजह से बच्चे के बड़े होने पर उसकी बौद्धिक क्षमता (आईक्यू) कम होती है या फिर शारीरिक श्रम में गिरावट होती है. इसी रिपोर्ट के अनुसार, देश के स्कूल जाने की आयु से पूर्व के हर पांच बच्चों में दो, स्कूल जाने वाले हर चार बच्चों में एक (24 प्रतिशत) और तरुणवय वाले 28 प्रतिशत बच्चों में खून की कमी (रक्त कोशिकाओं की अल्पता) पाई गई. क्षमता में कमी लाने में इसकी बड़ी भूमिका होती है.  

   
इन संगठनों के मानदंडों के तहत समुचित और संतुलित पोषण के लिए सात खाद्य पदार्थ रखे गए हैं, जिनमें से क्षेत्न की पसंद के साथ किन्हीं चार को देकर शिशुओं का अच्छा पालन-पोषण कर सकते हैं. इनमें आलू, दाल, फलों का रस, स्थानीय सब्जियां और दूध से बने पदार्थ आदि हैं. लेकिन ऐसा लगता है कि संपन्न और शिक्षित वर्ग शायद विज्ञापनों से भ्रमित हो कर इन सहज खाद्य पदार्थो की जगह, जंक फूड जैसे चिप्स, नूडल्स, बर्गर दे कर अपने अहंकार को संतुष्ट कर लेता है, बगैर यह सोचे कि वह बच्चों का भविष्य बिगाड़ रहा है.  


राहत की बात यह है कि मंथर गति से ही सही, बच्चों की स्थिति बेहतर हो रही है और हर साल बच्चों के नाटेपन, दुबलेपन और कम वजन होने के प्रतिशत में एक-दो प्रतिशत की दर से गिरावट आ रही है. इसका कारण सरकार के पोषण अभियान को जाता है. सरकार चाहती है कि सन 2022 तक कुपोषण से बच्चों को पूरी तरह छुटकारा दिलाया जाए लेकिन वर्तमान रफ्तार से यह संभव नहीं लगता. फिर सरकार की दिक्कत यह भी है कि कामकाजी अभिभावक बच्चों को अगर बाजार के प्रभाव में चिप्स, नूडल्स, अन्य फास्ट फूड, घरेलू सेविकाओं के भरोसे छोड़ देंगे तो सरकार कुछ नहीं कर पाएगी.
 

Web Title: Educated class

भारत से जुड़ीहिंदी खबरोंऔर देश दुनिया खबरोंके लिए यहाँ क्लिक करे.यूट्यूब चैनल यहाँ इब करें और देखें हमारा एक्सक्लूसिव वीडियो कंटेंट. सोशल से जुड़ने के लिए हमारा Facebook Pageलाइक करे