संपादकीयः नक्सलियों को निहत्थे मतदाता का जवाब

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: April 12, 2019 04:29 AM2019-04-12T04:29:59+5:302019-04-12T04:29:59+5:30

निहत्थे आम आदमी ने नक्सल प्रभावित कहे जाने वाले संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों बस्तर (छग), चंद्रपुर और गढ़चिरोली के साथ-साथ भंडारा-गोंदिया में भी वोट की ताकत दिखा दी.

Editorial: unarmed voters answer to Naxalites | संपादकीयः नक्सलियों को निहत्थे मतदाता का जवाब

संपादकीयः नक्सलियों को निहत्थे मतदाता का जवाब

देश में पांच दशक से  नक्सलवादी तांडव मचा रहे हैं. अब तो  नक्सलवाद वैचारिक नहीं बल्कि वसूली गिरोह के रूप में तब्दील हो चुका है. 11 अप्रैल को हुए लोकसभा चुनाव के पहले चरण को नक्सलवादियों ने छत्तीसगढ़ तथा महाराष्ट्र के विदर्भ में  प्रभावित करने की जी-तोड़ कोशिश की मगर निहत्थे आम आदमी ने नक्सल प्रभावित कहे जाने वाले संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों बस्तर (छग), चंद्रपुर और गढ़चिरोली के साथ-साथ भंडारा-गोंदिया में भी वोट की ताकत दिखा दी.

भंडारा-गोंदिया संसदीय क्षेत्र का बड़ा इलाका भी नक्सली गतिविधियों का हिस्सा है. नक्सलियों को आईना दिखाया मतदान के दो दिन पूर्व नौ अप्रैल को उनके कायराना हमले में जान गंवाने वाले विधायक भीमा मंडावी की पत्नी ने. ओजस्वी मंडावी ने दंतेवाड़ा में अपने परिवार के सदस्यों के साथ वोट डालकर जता दिया कि बंदूक की गोली से ज्यादा ताकत वोट की मामूली पर्ची में होती है और अगर व्यवस्था को बदलता हो, गरीबों को उनके अधिकार दिलवाने हों तथा देश का सर्वागीण विकास करना हो तो लोकतंत्र ही सबसे सशक्त मंच है.

पश्चिम बंगाल के  नक्सलवादी गांव से किसानों, आदिवासियों तथा भूमिहीनों के अधिकारों की हिमायत के नाम पर उभरा नक्सली आंदोलन आतंकवाद का पर्याय बन गया. आधे देश को उसने अपनी चपेट में ले लिया. सदियों से गरीबी तथा शोषण का शिकार रहे आदिवासियों तथा किसानों को नक्सली आंदोलन में उम्मीद की एक किरण दिखी मगर समय के साथ-साथ यह किरण लुप्त होने लगी. बाद में यह चित्र भी  सामने आया कि शोषित समाज के नाम पर कथित लड़ाई लड़ने वाले नक्सली शानो-शौकत की जिंदगी शहरों में जाकर जीते हैं, उनके बच्चे महंगे पब्लिक स्कूलों में पढ़ते हैं और वे करोड़ों की संपत्ति के मालिक हैं. 

नक्सलवादियों का लोकतंत्र में कभी विश्वास ही नहीं रहा. वह हमेशा इस मुगालते में रहे कि देश पर बंदूक की नोंक पर कब्जा किया जा सकता है. नक्सलियों का एक वर्ग गहन चिंतक भी है जो शहरों में रहता है. इस वर्ग को यह अच्छी तरह से मालूम है कि व्यवस्था परिवर्तन के लिए लोकतंत्र सबसे सशक्त मंच है, मगर वे सर्वहारा वर्ग को हमेशा गुमराह करते रहे क्योंकि उन्हें हमेशा यह डर सताता रहा कि अगर गरीब आदिवासी तथा किसान जागरूक हो जाएंगे तो समानांतर सत्ता की नक्सली साजिश ध्वस्त हो जाएगी. इसीलिए उन्होंने देश में जगह-जगह हर बार चुनाव प्रक्रिया को हिंसा के बल पर रोकने की कोशिश की. 

इस बार भी उन्होंने अपने घृणित इरादों को अंजाम तक पहुंचाने का प्रयास किया. गढ़चिरोली और छत्तीसगढ़ में हिंसक उपद्रव किए लेकिन उन्हें मुंह की खानी पड़ी. नक्सली अगर सच में गरीबों के हितचिंतक हैं तो उन्हें लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल होना चाहिए. वह जनता को यह तय करने दें कि उसे कौन सी विचारधारा पसंद है और कौन सी नहीं. वास्तव में नक्सलवाद अंतिम सांसें ले रहा है. इसीलिए वह खुद को जिंदा दिखाने की कोशिश कर रहा है. लेकिन एक बात तय है कि उसकी सांसें जल्द ही हमेशा के लिए थम जाएंगी.

Web Title: Editorial: unarmed voters answer to Naxalites