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डॉ. विशाला शर्मा का ब्लॉग: किताबें कुछ कहना चाहती हैं, तुम्हारे पास रहना चाहती हैं

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: April 23, 2020 13:01 IST

एकांत क्षणों को बिताने में आज किताबों से जुड़ने की आवश्यकता है क्योंकि मनुष्य भावनात्मक रूप से संवेदनशील होने के साथ-साथ चिंतनशील प्राणी भी है. वह जीवन की घटनाओं को देखता या अनुभव ही नहीं करता बल्कि उसके विषय में सोचता भी है और उसका यह चिंतन समाज को विकसित करने हेतु सृजन के जरिए सत्य की अभिव्यंजना करता है.

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आज विश्व एक कठिन दौर से गुजर रहा है. ऐसी परिस्थिति में भी मनुष्य अपनी आंतरिक शक्ति के द्वारा बेहतर जीवन जी सकता है. किसी समयविशेष में हम परिस्थितियों को नहीं बदल सकते किंतु उस प्रतिकूल समय को अनुकूल जरूर बना सकते हैं. जरूरत सिर्फ हमारी आंतरिक शक्ति को बरकरार रखने की होती है और हमारी आंतरिक शक्ति को बरकरार रखने में उस साहित्य का हाथ होता है जो हमने अपने जीवन में कभी न कभी पढ़ा या गढ़ा हो.

बाल्यावस्था की कल्पनाओं से लड़कपन की शरारतों तक युवा के विचलित मन की गति को संवारने हेतु और वृद्ध अवस्था को सुखद और आह्लादित बनाने के लिए पुस्तकें हमारे जीवन में भोजन और पानी की तरह शामिल होनी चाहिए क्योंकि जो रचना पाठक के मनोनुकूल होती है वह चुनौतीपूर्ण समय में भी तर्क के साथ स्वयं उसका साथी बन कर उससे बातें करती है.

एकांत क्षणों को बिताने में आज किताबों से जुड़ने की आवश्यकता है क्योंकि मनुष्य भावनात्मक रूप से संवेदनशील होने के साथ-साथ चिंतनशील प्राणी भी है. वह जीवन की घटनाओं को देखता या अनुभव ही नहीं करता बल्कि उसके विषय में सोचता भी है और उसका यह चिंतन समाज को विकसित करने हेतु सृजन के जरिए सत्य की अभिव्यंजना करता है.

वह अनुभूति के असहनीय बोझ से मुक्त होने हेतु लेखन करता है जिसमें समाज को विशिष्ट मार्ग से ले जाने वाले ईमानदारी के भाव भी निहित होते हैं अर्थात समाज-प्रबोधन पुस्तकों का मूल भाव है.

समुदायों की संस्कृति, ज्ञान और अधिकारों की रक्षा भी पुस्तकों के द्वारा होती है. हम स्थानीय भाषाओं से पुस्तकों के द्वारा ही जुड़ पाते हैं. संस्कृति और पीढ़ियों के बीच यही पुस्तकें पुल बन जाती हैं और आज के समय में जब हम लगभग एक माह से अपने घरों की चौखट को लांघ नहीं पा रहे हैं और एक अदृश्य लक्ष्मणरेखा हमारी सुरक्षा हेतु खींची गई है, तब एक ही विचार मस्तिष्क में कौंध रहा है कि सीमित चीजों में रह कर भी हम खुश रह सकते हैं और खुशी का भाव हम किसी मूल्य पर नहीं खरीद सकते.

निश्चित ही यह खुशी उन पुस्तकों से पाई जा सकती है जिन्होंने कठिनतम समय में हमारा पथप्रदर्शन ही नहीं किया हो अपितु राह के कांटों से भी हमारी रक्षा की हो. इन पुस्तकों में वे समस्त धार्मिक ग्रंथ अथवा बच्चों का बाल साहित्य, संत साहित्य अथवा सृजनात्मक या वैचारिक साहित्य आता है जो जीवन के चुनौतीपूर्ण समय में संबल बनकर एक विस्तृत फलक पर हमें सोचने की दिशा में अग्रसर करता है.

आचार्य चाणक्य अन्य कार्यों के साथ-साथ पढ़ने की प्रवृत्ति पर जोर देते हैं. पढ़ना अर्थात चिंतन करना समसामयिक समाज को समष्टिगत रूप में समझने के लिए आवश्यक है. विचारकों का मानना है कि किताब अपने आप में एक दुनिया है.

इस परिप्रेक्ष्य में अब्राहम लिंकन का कथन याद आता है, वे कहते थे, ‘मेरा परम मित्र वह आदमी होगा, जो मुझे वह किताब देगा जो मैंने नहीं पढ़ी होगी.’

आज आधुनिक समय में जब प्रत्येक वर्ष 23 अप्रैल को संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन द्वारा नियत तिथि को पुस्तक दिवस मनाया जाता है तो इसका मूल उद्देश्य जनमानस को पुस्तकों की ओर लौटाने का प्रयास ही है.

विश्व साहित्य में यह ज्ञात तथ्य है कि 23 अप्रैल 1616 को अंग्रेजी साहित्य के प्रसिद्ध लेखक शेक्सपियर का निधन हुआ था. इस तरह 23 अप्रैल को इसका आयोजन जनमानस में साहित्यकार अथवा लेखकों के प्रति आस्था और सम्मान का भी प्रतीक है.

निश्चित रूप से विश्व का समस्त ज्ञान भंडार आदिकाल से किसी न किसी प्रकार से लिखित रूप में विद्यमान है. समय के साथ-साथ उन संरक्षित ज्ञान भंडारों का विवेचन करते हुए इस दुनिया को बेहतर बनाने की कोशिश करना हमारा उद्देश्य एवं कर्तव्य भी है. यह कथन पुस्तक की महत्ता को और अधिक स्पष्ट करता है कि हर जली हुई किताब में भी दुनिया को रौशन करने की शक्ति निहित है.

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