डॉ. विजय दर्डा का ब्लॉग: आदिपुरुष...क्यों लिखते हैं ऐसी भाषा ?

By विजय दर्डा | Published: June 26, 2023 07:29 AM2023-06-26T07:29:12+5:302023-06-26T07:30:52+5:30

टपोरियों की भाषा कभी समाज का चलन नहीं हो सकती. समाज की भाषा पवित्रता और संस्कारों से परिपूर्ण होनी चाहिए.

Dr. Vijay Darda's blog: Adipurush film controversy why to write such language? | डॉ. विजय दर्डा का ब्लॉग: आदिपुरुष...क्यों लिखते हैं ऐसी भाषा ?

डॉ. विजय दर्डा का ब्लॉग: आदिपुरुष...क्यों लिखते हैं ऐसी भाषा ?

फिल्म आदिपुरुष के संवाद को लेकर इस वक्त तूफान मचा हुआ है. तूफान मचना भी चाहिए क्योंकि सवाल भाषा का है और यह समझने की जरूरत है कि भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं होती बल्कि भाषा तो किसी भी व्यक्ति या किसी भी समाज का आचरण और पूरा चरित्र तय करती है. एक पुरानी कहावत है कि कमान से निकला तीर और जुबान से निकले शब्द कभी लौट कर नहीं आते. उनका प्रभाव या दुष्प्रभाव ही सामने आता है. कहावत में शब्द का आशय भाषा से है चाहे वह बोली जा रही हो या फिर लिखी जा रही हो!

अमूमन हम सभी को पता है कि आदिपुरुष के संवाद लेखन में किस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया गया है. उसे यह कह कर जायज नहीं ठहराया जा सकता कि संवाद तो मौजूदा दौर के हिसाब से लिखे गए हैं. इतिहास को मौजूदा दौर में यदि घसीटने की कोशिश करेंगे तो इसका परिणाम घातक ही निकलेगा. मैं यहां याद करना चाहूंगा राही मासूम रजा को जिन्होंने महाभारत धारावाहिक के संवाद लिखे थे. इतने गरिमामय संवाद कि लोगों की जुबान पर अब भी चढ़े हुए हैं. 

एक उदाहरण लगान फिल्म का देता हूं जो अंग्रेजों के दौर को लेकर बनी थी लेकिन उसमें जावेद अख्तर ने क्या गीत लिखा- ‘मधुबन में जो कन्हैया किसी गोपी से मिले, राधा कैसे न जले.’ फिल्म तो नए दौर की थी लेकिन जावेद भाई का गीत कितना शालीन है! इसके ठीक विपरीत मनोज मुंतशिर के डायलॉग टपोरियों की भाषा में हैं. वैसे आप यूट्यूब पर जाकर देखें तो कई तथाकथित संत भी ऐसी ही भाषा बोलते हुए नजर आएंगे. 

वैसे मनोज को अपने नाम के साथ केवल मुंतशिर शब्द से परेशानी नजर आई तो उन्होंने तत्काल शुक्ला भी जोड़ लिया. ...लेकिन क्या इससे उनका अपराध कम हो जाएगा? मनोज मुंतशिर भूल गए कि फिल्मों के संवाद जन-जन तक पहुंचते हैं. कई संवाद कालजयी बन गए...जिनके घर शीशे के होते हैं वे दूसरों के घर पर पत्थर नहीं फेंका करते...!

दुख यह होता है कि भाषा के साथ घृणित मजाक हमारे हिंदुस्तान में हो रहा है जो भाषा की पवित्रता के मामले में सदियों शीर्ष पर रहा है. जब भी मैं भाषा की बात करता हूं तो मुझे सुषमा स्वराज जी की बहुत याद आती है. रामायण का ही एक प्रसंग उन्होंने सुनाया था जो भाषा की समृद्धता का मानदंड है. राम-रावण युद्ध से पहले राम ने शिव स्तुति के लिए रूद्राष्टकम पढ़ा तो रावण ने शिव तांडव स्तोत्र पढ़ा. लोग रूद्राष्टकम आज भी पढ़ते हैं लेकिन शिव तांडव अमूमन कोई नहीं पढ़ता. यह है भाषा का प्रभाव. 

भाषा की सटीकता का एक और उदाहरण सुषमा जी ने दिया था... दंडी नाम के रचनाकार ने दशकुमारचरितम नाटक लिखा. उसमें एक राजकुमार विश्रुत शिकार पर जाता है और किसी के तीर से उसका एक ओंठ कट जाता है. जरा सोचिए कि यदि किसी का एक ओंठ न हो तो वह  प, फ, ब, भ, म का उच्चारण नहीं कर पाएगा. आपको आश्चर्य होगा कि नाटक में उसके बाद विश्रुत के किसी संवाद में ओंठ से उच्चरित होने वाले ये शब्द नहीं आए हैं. ये है भाषा का चमत्कार!

ऐसी भाषा वाले देश में यदि टपोरियों की भाषा बोली जाने लगे, लिखी जाने लगे और फिल्मों में संवाद के रूप में आने लगे, राजनीति में भाषा की कड़वाहट के कारण समाज आहत होने लगे तो यह बहुत बड़ा दुर्भाग्य है. मैंने इसी साल इसी कॉलम में 27 मार्च को भाषा को लेकर गंभीर आलेख लिखा था. जब भाषा निचले दर्जे की होने लगे, भाषा जब धर्म का रंग लेने लगे, भाषा जब भावनाओं का ध्यान न रखे तो समाज के विघटन का खतरा पैदा हो जाता है. ध्यान रखिए कि बड़े-बड़े युद्ध भाषा के कारण ही हुए. दुर्योधन ने यदि अपनी जंघा न ठोंकी होती और द्रौपदी का अपमान न किया होता तो शायद महाभारत न होता. भाषा की अपनी मर्यादा होती है. भाषा केवल अक्षर नहीं है.

यह कितनी बड़ी विडंबना है कि हमने संस्कृत को भगवा रंग पहना दिया, उर्दू को हरे रंग में लपेट दिया. ये जन भाषाएं जब सिमट कर रह गई हैं तो वक्त के किसी काल में यदि इन भाषाओं की मौत हो जाए तो क्या आश्चर्य? क्या आपको पता है कि कोविड ने केवल लोगों की जान ही नहीं ली, उसने एक भाषा को भी समाप्त कर दिया! अंडमान निकोबार में रहने वाली पचास साल की लीचो की मौत के साथ ही ‘सारे’ नाम की एक भाषा समाप्त हो गई. वे उस भाषा को बोलने वाली अकेली बची थीं. जेरू भाषा बोलने वाले भी दो-तीन लोग ही बचे हैं. 

यूनेस्को की सूची में ऐसी 197 भाषाएं दर्ज हैं जिन्हें खत्म होने की कगार पर माना जा रहा है. पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया की मानें तो बीते 50 सालों में 220 भाषाएं खत्म हो चुकी हैं. मैं ये डरावने आंकड़े आपके समक्ष इसलिए रख रहा हूं ताकि आपको एहसास हो सके कि जाने-अनजाने हम भाषा के साथ क्या कर रहे हैं!

तो सबसे बड़ा सवाल है कि हमें करना क्या होगा? सबसे पहली जरूरत खुद की भाषा को सुधारने की है. टपोरियों की भाषा हम क्यों इस्तेमाल करें. कुछ मूर्खों की आदत यदि बात-बात में गाली देने की है तो क्या हम उसे समाज का चलन मान लें? बिल्कुल नहीं! यह समाज का चलन नहीं है. इसके खिलाफ कानून अपना काम कब करेगा, इस सवाल से अलग हटकर हमें ओटीटी पर ऐसी वेब सीरीज का बहिष्कार कर देना चाहिए जहां गालियों की भरमार है. जब आप देखेंगे नहीं तो धारावाहिक में गालियां भरने वाले भी दस बार सोचेंगे. इन गालियों से अपने बच्चों को बचाना बहुत जरूरी है.

पुराने जमाने में बड़े बुजुर्ग कहा करते थे कि बच्चों के सामने भाषा की मर्यादा रखनी चाहिए. आप भी कुछ बोलते समय यह जरूर सोचिए कि जो बोल रहे हैं उसका प्रभाव क्या होगा? यह बात मैं खासकर धर्म के मामले में कहना चाहता हूं कि अपने धर्म पर निश्चय ही हमें चलना चाहिए लेकिन दूसरों के धर्म की आलोचना नहीं की जानी चाहिए. इससे बेवजह का वैमनस्य बढ़ता है. वैमनस्य बढ़ेगा तो समाज कमजोर होगा. 

हम विश्व के मानचित्र पर तेजी से आगे बढ़ रहे हैं. वैमनस्यता इसमें सबसे बड़ा रोड़ा है. केवल अपनी जुबान पर और अपनी कलम पर लगाम लगाने से हम कई संकटों से बच सकते हैं. आप और हम बदलेंगे तभी जग बदलेगा! भाषा से ही प्रेम पनपता है तो भाषा ही कटुता भी पैदा करती है. प्रेम और कटुता के बीच चुनाव हमें करना है.

Web Title: Dr. Vijay Darda's blog: Adipurush film controversy why to write such language?

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