डा.शकुंतला मिश्रा राष्ट्रीय पुनर्वास विश्वविद्यालयः कई सारी बाधाएं, भुगत रहे छात्र!

By देवेंद्र | Published: November 9, 2022 05:18 PM2022-11-09T17:18:26+5:302022-11-09T17:21:34+5:30

डा.शकुंतला मिश्रा राष्ट्रीय पुनर्वास विश्वविद्यालयः प्रोफेसरों को हर इंक्रीमेंट के लिए नेट की परीक्षा अनिवार्य कर दी जानी चाहिए ताकि यह तो पता चले कि भाई लोग सिर्फ लिखा -पढ़ी ही करते हैं, या कुछ पढ़ते- लिखते भी हैं।

Dr. Shakuntala Mishra National Rehabilitation University lucknow Many obstacles students are suffering blog Dr Devendra | डा.शकुंतला मिश्रा राष्ट्रीय पुनर्वास विश्वविद्यालयः कई सारी बाधाएं, भुगत रहे छात्र!

पहली बार यहां न सिर्फ छात्रों की संख्या 5000 के पार हुई।

Highlightsआज कुछ बेहद योग्य और प्रतिभाशाली अध्यापक कैंपस से बाहर हैं। पहली बार धूमधाम से दीक्षांत समारोह मनाया गया। पहली बार यहां न सिर्फ छात्रों की संख्या 5000 के पार हुई।

डा.शकुंतला मिश्रा राष्ट्रीय पुनर्वास विश्वविद्यालय में दीक्षांत समारोह संपन्न हुआ। अंततः मेरे साथ शोध कर रहे कुछ छात्रों को भी तमाम विघ्न बाधाओं के उपाधियां मिल ही गई। शायद विघ्न संतोषियों को अखर रहा हो। उत्तर प्रदेश सरकार के दिव्यांग जन सशक्तीकरण विभाग द्वारा खोले गए इस विश्वविद्यालय की परिकल्पना और स्थापना बहुजन समाज पार्टी की प्रभावशाली नेता मायावती ने की थी।

अपनी नियुक्ति के समय से ही मैं यहां शोध प्रोग्राम शुरू करने के लिए लगा था। जल्दी ही मुझे पता चल गया इस बाधा रहित भव्य परिसर में बहुत सारी बाधाएं हैं। कुछ मूर्त, कुछ अमूर्त। दिव्यांग विभाग का मामूली बाबू यहां प्रोफेसरों को हांकता है। उनकी सेवा में चरणामृत पान करते ढेर सारे प्रोफेसर हैं, जो प्रशासनिक भवन में सुबह से शाम तक मूर्तमान रहते हैं, लेकिन क्लासरूम में वर्षों से अमूर्त।

आज इस विश्वविद्यालय में जो कुछ सकारात्मक या अविस्मरणीय है उसके पीछे सिर्फ और सिर्फ प्रथम पूर्णकालिक कुलपति डा.निशीथ राय द्वारा किए गए कार्य जो उनके बेहद प्रभावशाली व्यक्तित्व के कारण संभव हो सके थे। उसके बाद तो माटी की दिबरी भर किसी की औकात नहीं रही।

कुल सौ- डेढ़ सौ छात्रों वाले इस विश्वविद्यालय में जब डा. निशीथ राय ने कार्यभार संभाला, तब पहली बार यहां न सिर्फ छात्रों की संख्या 5000 के पार हुई, बल्कि  सारे लेक्चरर जिनकी नियुक्ति स्थाई पोस्ट पर की गई थी और नियुक्ति पत्र के बाद जो संविदा कर्मी बनकर रह गए थे, उन्हें उन्होंने स्थाई लेक्चरर बनवाया। प्रोफेसरों को कन्फर्म किया।

ढेर सारे नए विभाग खोले। अध्यापकों की नियुक्तियां हुईं। कला जगत की सबसे प्रतिष्ठित "कला दीर्घा" के संपादक और खुद राष्ट्रीय महत्त्व के यशस्वी चित्रकार डा. अवधेश मिश्र की नियुक्ति के साथ फाइन आर्ट विभाग अस्तित्व में आया और उन्हीं के हस्तक्षेप से आईसीयू में लिथड़ी पड़ी मेरी शोध पत्रावली में भी अचानक ही ऐसी जान आई कि उसी सत्र से शोध प्रारंभ हो गया।

पहली बार धूमधाम से दीक्षांत समारोह मनाया गया। उत्तर प्रदेश का सबसे भव्य अटल प्रेक्षागृहऔर ढेर सारे भवनों का निर्माण निशीथ राय के ही वश और बूते का था। राय के कुलपति काल से पहले
बी एड, एम एड में छात्रों के एडमिशन को देख लिया जाय तो पता चल जाएगा कि भारत का संविधान यहां किस हालत में कराह रहा था।

आरक्षण नियमों  का वैसा घिनौना मजाक शायद ही कहीं देखने को मिले, जो यहां वर्षों से जारी था और जिसे निशीथ राय ने पहली बार दुरुस्त किया। आज यह सिर्फ साफ आंखों से अतीत को देखना है, जहां मैं हिंदी विभाग में प्रोफेसर था और डा. निशीथ राय वहां कुलपति थे। न मैं बहुत अच्छा था, न निशीथ राय इतने बुरे थे, जितना उन्हें बाद में कुछ पटवारी छाप प्रोफेसरों द्वारा बताया जाने लगा।

बड़े बड़े निर्णय लेना और उन्हें लागू करवा ले जाना उनकी क्षमता के लिए बहुत मामूली बात थी। वास्तव में उनका कार्यकाल ही उस विश्वविद्यालय का प्रगतिकाल कहा जाएगा। बेमतलब कुर्सी के दाएं- बाएं लगे रहने वालों की आंख का किरकिरी मैं! इन्हीं सबकी वजह से ही कहीं कोई बात खटक गई। मैं उनके एक्शन का शिकार हुआ।

वे मेरे  लिए अपमान जनक लांक्षनाओं और बेहद जलालत से भरे दिन थे, जिसे मैंने संभव पूर्ण गरिमा में रहकर ही जिया। लेकिन, सारी सीमाओं के बावजूद डा. निशीथ राय के योगदान को उस विश्वविद्यालय से निकाल दिया जाय तो वहां सिवा दिव्यांग विभाग के बदबूदार कूड़ाघर के अलावा कुछ न दिखाई देगा। 

आज कुछ बेहद योग्य और प्रतिभाशाली अध्यापक कैंपस से बाहर हैं। उनमें मेरे बहुत ही अजीज इतिहास विभाग के प्रोफेसर अवनीश जी भी हैं। विश्वविद्यालयों के इतिहास में उस्तरा थामे कुछ बंदरों द्वारा बार- बार खेला जाने वाला ऐसा प्रहसन कोई नया नहीं है।

हजारी प्रसाद द्विवेदी को काशी हिंदू विश्वविद्यालय से निष्कासित किया गया था। नामवर जी तो तीन- तीन विश्वविद्यालयों से निकाले गए। जिन्होंने उनका निष्कासन किया, नियम पोंकू उन घोंघा बसंतों  को आज कोई नहीं जानता, और वही विश्वविद्यालय अब शान बघारते हुए कहते हैं कि हमारे यहां नामवर जी कुछ दिन रहे हैं।

आज जब मेरे तीन छात्रों को शोध उपाधि दी गई तो मुझे बरबस निशीथ राय की याद आने लगी। अगर वे न होते तो आज भी भाई लोग  यहां शोध शुरू ही न होने देते। खुद कुछ न करना और जो हो रहा है, उसमें विघ्न फैलाना, इसे ही कहते हैं विघ्न संतोषी।

बेवजह के अड़ंगे डाल डाल कर सारे शोध छात्रों के साथ जैसा क्रूर मजाक यहां किया जाता रहा है। उसकी कोई मिसाल अन्यत्र दुर्लभ है। प्रोफेसरों को हर इंक्रीमेंट के लिए नेट की परीक्षा अनिवार्य कर दी जानी चाहिए ताकि यह तो पता चले कि भाई लोग सिर्फ लिखा -पढ़ी ही करते हैं, या कुछ पढ़ते- लिखते भी हैं।

Web Title: Dr. Shakuntala Mishra National Rehabilitation University lucknow Many obstacles students are suffering blog Dr Devendra

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