डॉक्टर सरवन सिंह बघेल का ब्लॉग: समान नागरिक संहिता आज भारत की जरूरत है

By डॉ. सरवन सिंह बघेल | Published: April 29, 2022 05:57 PM2022-04-29T17:57:09+5:302022-04-29T18:04:01+5:30

भारत में सभी नागरिकों के लिए एक जैसा नागरिक कानून होना चाहिए। चाहे वो किसी धर्म के क्यों ना हों। यह बहस इसलिए हो रही है क्योंकि इस तरह के कानून के अभाव में महिलाओं के बीच आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा बढ़ती जा रही है।

Dr Sarwan Singh Baghel's blog: Uniform Civil Code is what India needs today | डॉक्टर सरवन सिंह बघेल का ब्लॉग: समान नागरिक संहिता आज भारत की जरूरत है

डॉक्टर सरवन सिंह बघेल का ब्लॉग: समान नागरिक संहिता आज भारत की जरूरत है

Highlightsहिंदुस्तान धर्म, जाति, कम्युनिटी से ऊपर उठ चुका हैआधुनिक भारत में धर्म, जाति की बाधाएं तेजी से टूट रही हैंइसलिए भारत में सभी नागरिकों के लिए एक जैसा नागरिक कानून होना चाहिए

समान नागरिक संहिता के लिए भारत में बहस आजादी के समय से ही लगातार चली आ रही हैं। भारत के संविधान निर्माताओं ने संविधान निर्माण के समय सुझाव दिया था कि सभी नागरिकों के लिए एक ही तरह का क़ानून भारत में रहना चाहिए ताकि इसके तहत उनके विवाह, तलाक़, संपत्ति-विरासत का उत्तराधिकार और गोद लेने के अधिकार को सुगम और सरल बनाया जा सके।

इन विषयों का समाधान वैसे आम तौर पर अलग-अलग धर्म के लोग अपने स्तर पर अपने पारंपरिक तरीकों और कानून के माध्यम से ही करते रहे हैं।

आज का हिंदुस्तान धर्म, जाति, कम्युनिटी से ऊपर उठ चुका है। आधुनिक भारत में धर्म, जाति की बाधाएं तेजी से टूट रही हैं। तेजी से हो रहे इस बदलाव की वजह से से अंतरधार्मिक और अंतर्जातीय विवाह या फिर विच्छेद यानी तलाक में भी दिक्कतें आ रही हैं।

आज की युवा पीढ़ी को इन दिक्कतों से जूझना न पड़े इस लिहाज से देश मे यूनिफार्म सिविल कोड लागू होना चाहिए। आर्टिकल 44 में यूनिफार्म सिविल कोड की जो उम्मीद नहीं रहना चाहिए बल्कि उसे हकीकत में बदल देना चाहिए।

भारत में सभी नागरिकों के लिए एक जैसा नागरिक कानून होना चाहिए। चाहे वो किसी धर्म के क्यों ना हों। यह बहस इसलिए हो रही है क्योंकि इस तरह के कानून के अभाव में महिलाओं के बीच आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा बढ़ती जा रही है।

हालांकि सरकारें इस तरह का क़ानून बनाने की हिमायत तो करती हैं, लेकिन राजनीतिक मजबूरियों की वजह से किसी सरकार ने इसे लागू करने के लिए कभी कोई ठोस पहल नहीं की है। कुछ विचारकों का मानना है कि जिस तरह भारतीय दंड संहिता और 'सीआरपीसी' सब पर लागू हैं, उसी तरह समान नागरिक संहिता भी होनी चाहिए, जो सबके लिए हो - चाहे वो हिन्दू हों या मुसलमान हों, या फिर किसी भी धर्म के माननेवाले क्यों ना हों? लेकिन सिविल क़ानून सबके लिए अलग अलग है।

हिन्दुओं, सिखों और जैनियों के लिए ये अलग है , बौद्धों और पारसियों के लिए ये अलग है। जहां तक विवाह का सवाल है तो यह सिविल क़ानून पारसियों, हिन्दुओं, जैनियों, सिखों और बौद्धों के लिए 'कोडिफाई' कर दिया गया है फिर एक 'स्पेशल मैरिज एक्ट' भी लाया गया है जिसके तहत सभी धर्म के अनुयायियों को अंतर-जातीय और अंतर-धार्मिक विवाह के लिए एक सामाजिक सुरक्षा प्रदान की गई।

इस विषय को समझने के लिए हमें दिल्ली हाईकोर्ट के एक केस स्टडी को समझना होगा एक तलाक के मामले में दिल्ली हाईकोर्ट की जस्टिस प्रतिभा एम सिंह ने टिपणी की थी। एक दम्पति जिनका अंतरजातीय विवाह हुआ था उन्होंने कोर्ट में तलाक के लिए अर्जी दी। दरअसल, उस केस में कोर्ट के सामने ये सवाल खड़ा हो गया था कि तलाक को हिंदू मैरिज एक्ट के मुताबिक माना जाए या फिर मीणा जनजाति के नियम के मुताबिक (मीणा जाति को अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त है)।

पति हिंदू मैरिज एक्ट के मुताबिक तलाक चाहता था, जबकि पत्नी का कहना था कि वो मीणा जनजाति से आती है लिहाजा उस पर हिंदू मैरिज एक्ट लागू नहीं होता। इस वजह से उसके पति द्वारा दायर फैमिली कोर्ट में तलाक की अर्जी खारिज की जाए। पति ने हाईकोर्ट में पत्नी की इसी दलील के खिलाफ अर्जी दायर की थी।

कोर्ट ने पति की अपील को स्वीकार करते हुए यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने की जरूरत महसूस की। हाईकोर्ट ने अपने फैसले में ये भी कहा कि इस फैसले को कानून कानून मंत्रालय के पास भेजा जाए ताकि कानून मंत्रालय इस पर विचार कर सकें। मगर बहस वहाँ शुरू होती है जहाँ हम मुसलामानों की बात करते हैं।

1937 से मुस्लिम पर्सनल लॉ में कोई रिफार्म नहीं हुए हैं। समान नागरिक संहिता की बात आज़ादी के बाद हुई थी, लेकिन उसका विरोध हुआ जिस वजह से उसे 44वें अनुच्छेद में रखा गया। हालांकि यह संभव है। हमारे पास गोवा का उदहारण भी है जहाँ समान नागरिक संहिता लागू है। जब भी समान नागरिक संहिता की बात होती है, उस पर राजनीति शुरू हो जाती है। शायद यही कारण है कि कोई इसमें हाथ डालना चाहता है।

महत्वपूर्ण समाजशास्त्री इस मुद्दे पर लिखते है कि इस कानून के लागू करने के सम्बन्ध में हमें मुख्य बातों को गहराई से समझना होगा। भारत में आज भी धर्म की रक्षा के नाम पर ज्यादातर लोग प्राय: भावनाओं में बह जाते हैं। इसलिए एक तरफ, गांवों और कस्बों के नुक्कड़ पर ‘इस्लाम खतरे में है’ के नारे के साथ लोगों के जुटने, तो दूसरी तरफ ‘एक देश, एक कानून’ का विरोध करने वालों को पाकिस्तान भेजने की सलाह देने वाले हुड़दंगियों के भड़कने की आशंका होगी।

वैसे यह तो साफ हो चुका है कि शिक्षा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विस्तार से आधुनिक भारत के स्त्री-पुरुष भी देर-सवेर विवाह संबंधी कानूनों की अनिवार्यता स्वीकार लेंगे। इसीलिए इस सवाल पर सत्ता की तरफ से शक्ति प्रदर्शन करना राष्ट्र-निर्माण के लिए सही रास्ता होगा।

केंद्र और राज्य की सरकारों को इस कानून को लागू करने के सम्बन्ध में एक अतिमहत्वपूर्ण विचार पर आपसी सलाह मशवरा करना चाहिए कि इस कानून को भारत में लागू करते समय इस विषय की सम्पूर्ण जानकारी और आप सहमती हो| इसके लिए इस कानून के सकारत्मक पहलू को सभी भारतीयों के समक्ष लेके जाना चाहिए| क्योंकि भारत विविधता भरा राष्ट्र हैं।

यहाँ अनेकों धर्म, पंथ और विचार के लोग निवास करते हैं। समान नागरिक संहिता को आदिवासी भारत में स्वीकार कराना होगा क्योंकि आदिवासी समाज के अपने रीतिरिवाज होते हैं। संविधान में धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार यानी अनुच्छेद-26 के तहत की गई| इसके तहत सभी धार्मिक संप्रदायों और पंथों को सार्वजनिक व्यवस्था और नैतिकता के मामलों का स्वयं प्रबंधन करने की आज़ादी मिली।

10 करोड़ से ज्यादा आदिवासी भारतीय स्त्री-पुरुष हिंदू, मुस्लिम, ईसाई आदि विवाह कानूनों से परे स्थानीय विधि और रीति-रिवाजों के साथ परिवार व्यवस्था स्वीकारते हैं। विवाह संबंधी इनके विवादों को स्थानीय आदिवासी जमात सुलझाती है। इसमें सरकार को हर वर्ग की सहमती की आवश्यकता हैं। पहले भी वर्ष 2016 में भारत के विधि आयोग ने 'यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड' यानी समान नागरिक संहिता को लेकर आम लोगों की राय माँगी थी। इसके लिए आयोग ने प्रश्नावली भी जारी की जिसे सभी समाचार पत्रों में प्रकाशित किया गया था।

इसमें कुल मिलाकर 16 बिंदुओं पर लोगों से राय माँगी गयी थी। हालांकि पूरा फ़ोकस इस बात पर था कि क्या देश के सभी नागरिकों के लिए एक समान संहिता होनी चाहिए? प्रश्नावली में विवाह, तलाक़, गोद लेना, गार्डियनशिप, गुज़ारा भत्ता, उत्तराधिकार और विरासत से जुड़े पूछे गए थे। आयोग ने इस बारे में भी राय मांगी थी कि क्या ऐसी संहिता बनाई जाए जिससे अधिकार समान तो मिले ही साथ ही साथ, देश की विविधता भी बनी रहे। लोगों से यह भी पूछा गया था कि क्या समान नागरिक संहिता 'ऑप्शनल' यानी वैकल्पिक होनी चाहिए?

लोगों की राय पॉलीगेमी यानी बहुपत्नी प्रथा, पोलियानडरी (बहु पति प्रथा), गुजरात में प्रचलित मैत्री क़रार सहित समाज की कुछ ऐसी प्रथाओं के बारे में भी माँगी गयी थी जो अन्य समुदायों और जातियों में प्रचलित हैं। इन प्रथाओं को क़ानूनी मान्यता तो नहीं है मगर समाज में इन्हें कहीं-कहीं पर स्वीकृति मिलती रही है। देश के कई प्रांत हैं जहां आज भी इनमे से कुछ मान्यताओं का प्रचलन जारी है।

गुजरात में 'मैत्री क़रार' एकमात्र ऐसा प्रचलन है जिसकी क़ानूनी मान्यता है क्योंकि यह क़रार मजिस्ट्रेट के हस्ताक्षर से ही अनुमोदित होता है। विधि आयोग ने पूछा था कि क्या ऐसी मान्यताओं को पूरी तरह समाप्त कर देना चाहिए या फिर इन्हें क़ानून के ज़रिए नियंत्रित करना चाहिए? आयोग ने लोगों से मिले सुझाव के बिनाह पर सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंप दी है। मगर अभी तक पता नहीं चल पाया है कि इस रिपोर्ट का आख़िर क्या हुआ? 'ट्रिपल तलाक़' की तर्ज जल्द ही केंद्र सरकार समान नागरिक संहिता पर भी कानून लेकर आ सकती हैं, जो भारत के हित में होगा। 

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