जब बाबासाहब की जाति जानकार बैलगाड़ी वाले ने उन्हें बीच रास्ते में उतार दिया...
By कृष्ण प्रताप सिंह | Published: December 6, 2022 08:21 AM2022-12-06T08:21:21+5:302022-12-06T08:29:59+5:30
बाबासाहब ने अपनी राहों के कांटे बुहारकर उच्च शिक्षा ग्रहण करने से लेकर समाज सुधार और संविधान निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने तक की जिम्मेदारी निभाई।
चौदह अप्रैल, 1891 को एक महार परिवार में जन्मे डाॅ. बाबासाहब आंबेडकर (जिनका आज महापरिनिर्वाण दिवस है) के जीवन और संघर्षों को ठीक से समझने के लिए यह जानना बहुत जरूरी है कि उन दिनों जाति व्यवस्था के अनेकानेक अनर्थ झेलने को अभिशप्त और ‘अस्पृश्य’ मानी जाने वाली उनकी जाति की उनसे पहले की पृष्ठभूमि में शिक्षा-दीक्षा की कतई कोई जगह नहीं थी.
बचपन में बाबासाहब ने एक दिन कुछ बच्चों को पढ़ने जाते देखकर अपने माता-पिता से आग्रह किया कि वे उन्हें भी पढ़ने भेजें तो बड़ी समस्या खड़ी हो गई. पिता उन्हें जिस भी विद्यालय में ले जाते, वही महार होने के कारण उन्हें प्रवेश देने से मना कर देता. जैसे-तैसे सतारा के एक विद्यालय में उन्हें प्रवेश मिला भी तो वहां उनके बालमन को कई शारीरिक व मानसिक प्रताड़नाओं से गुजरना पड़ा. उन्हें महज लंगोटी पहनकर और अपने बैठने के लिए अलग टाटपट्टी लेकर विद्यालय जाना पड़ता और जब तक अध्यापक न आ जाते, कक्षा के बाहर खड़े रहना व इंतजार करना पड़ता.
अध्यापक के आने पर भी कक्षा में सारे बच्चों से अलग और सबसे पीछे बैठना पड़ता था. वहां से वे श्यामपट्ट भी ठीक से नहीं देख पाते थे. इतना ही नहीं, वे स्वयं अपनी मर्जी से विद्यालय के जलस्रोतों का इस्तेमाल नहीं कर सकते थे और बारंबार याचना के बावजूद कोई उन्हें ऊपर से भी पानी नहीं पिलाता था, इसलिए कई बार वे विद्यालय में दिन-दिन भर प्यासे रह जाते थे. उनके बाल बढ़ जाते तो कोई नाई उन्हें काटने को तैयार नहीं होता था. तब उनकी एक बहन उनके बाल काटकर उन्हें विद्यालय भेजा करती थी.
एक बार उन्हें अपने एक भाई के साथ अपने पिता से मिलने जाना हुआ तो वे मुंहमांगे किराये पर एक बैलगाड़ी में बैठे. उन दिनों बैलगाड़ियां ही यात्राओं का सबसे सुगम व सुलभ साधन थीं. लेकिन जैसे ही गाड़ीवाले को पता चला कि वे दोनों महार जाति के हैं, वह आपे से बाहर होकर उन पर बरस पड़ा. न सिर्फ उन्हें अपशब्द कहे बल्कि जाति छिपाकर बैलगाड़ी पर बैठ जाने की तोहमत जड़कर कोसा भी. इसके बाद वह उन्हें मंजिल तक पहुंचा देता तो भी गनीमत थी, लेकिन उसने बीच रास्ते उन्हें उतारकर दम लिया. बाबासाहब ने बढ़ा हुआ किराया देने का प्रस्ताव किया तो भी वह टस से मस नहीं हुआ.
ऐसे में सहज ही कल्पना की जा सकती है कि बाबासाहब ने अपनी राहों के कांटे बुहारकर उच्च शिक्षा ग्रहण करने से लेकर असामाजिक समाज व्यवस्था को बदलने के लिए समाज सुधार कार्यक्रमों के नेतृत्व और संविधान निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने तक की अपनी यात्रा कैसे दृढ़ संकल्प से संभव की होगी.