ब्लॉग: राज्यपाल पद की गरिमा पर न आए आंच

By विश्वनाथ सचदेव | Published: January 18, 2023 10:07 AM2023-01-18T10:07:36+5:302023-01-18T10:17:09+5:30

आपको बता दें कि राज्यपालों और सरकारों का टकराव दशकों से देश देखता रहा है। खासतौर पर जब मामला ऐसे राज्यों का हो जहां केंद्र में सत्तारूढ़ दल के विरोधी दलों का शासन हो, इस तरह का टकराव अक्सर देखा जा रहा है। इस व्यवहार को, और इस स्थिति को, उचित नहीं कहा जा सकता है।

dignity of the post of Governor should not come under fire tamilnadu | ब्लॉग: राज्यपाल पद की गरिमा पर न आए आंच

फोटो सोर्स: ANI फाइल फोटो

Highlightsतमिलनाडु विधानसभा में जो कुछ भी हुआ है इससे पहले ऐसा नहीं हुआ था। सीएम एम के स्टालिन की बात सुनकर राज्यपाल सदन का बहिष्कार करते हुए वहां से चले जाते है। ऐसे में सीएम एम के स्टालिन द्वारा राज्यपाल को हटाने की भी मांग की गई है।

चेन्नई: हमारी विधानसभाओं और संसद में भी ऐसे दृश्य अक्सर देखने को मिल जाते हैं, जिन्हें देखकर अनायास मुंह से निकल जाता है, काश ऐसा न हुआ होता! ऐसा ही कुछ उस दिन तमिलनाडु विधानसभा में हुआ था. अवसर राज्यपाल के अभिभाषण का था. 

राज्यपाल अपना अभिभाषण पढ़ चुके थे पर यह पढ़ने के दौरान उन्होंने कुछ ऐसा कह दिया जो नहीं कहा जाना चाहिए था, और कुछ ऐसा नहीं बोला जो बोला जाना चाहिए था. परंपरा है कि सदन का प्रारंभ होने से पहले राज्यपाल संबंधित सरकार द्वारा तैयार किया गया अपनी नीतियों और कार्यों का विवरण सदन में रखते हैं. 

तमिलनाडु विधानसभा में क्या हुआ

जैसे राष्ट्रपति का ऐसा अभिभाषण केंद्र सरकार तैयार करती है और राष्ट्रपति को ‘मेरी सरकार’ का यह वक्तव्य पढ़ना या सदन के पटल पर रखना मात्र होता है, वैसे ही राज्यपाल भी राज्य सरकार द्वारा तैयार किया गया यह भाषण पढ़ते अथवा सदन के पटल पर रखते हैं. 

फिर उस पर बहस होती है और राज्यपाल के लिए धन्यवाद का प्रस्ताव पारित करके सरकार के इस वक्तव्य पर मुहर लगा दी जाती है. एक स्थापित परंपरा है यहां पर. उस दिन तमिलनाडु विधानसभा में ऐसा नहीं हुआ. राज्यपाल ने अभिभाषण तो पढ़ा, पर न उस पर बहस हुई, न धन्यवाद-प्रस्ताव पारित हुआ और न राष्ट्रगान की औपचारिकता ही निभाई गई!

राज्यपाल के अभिभाषण पर क्या बोले तमिलनाडु के सीएम

असल में राज्यपाल महोदय ने सरकार द्वारा तैयार किए गए अभिभाषण के कुछ हिस्से पढ़े ही नहीं, और कुछ शब्द अपनी तरफ से जोड़ भी दिए! भला सरकार को यह कैसे मान्य होता. मुख्यमंत्री ने खड़े होकर यह घोषणा कर दी कि राज्यपाल का यह व्यवहार अनुचित है और सदन की कार्यवाही में वही पूरा वक्तव्य मान्य माना जाएगा जो सरकार द्वारा तैयार किया गया है. 

पहले भी कुछ राज्यों में राज्यपाल सरकारों द्वारा तैयार किए गए वक्तव्य में से कुछ अंश न पढ़ कर अपना विरोध प्रकट कर चुके हैं, पर कुछ असहमति होने पर राज्यपाल अभिभाषण का शुरुआती हिस्सा पढ़कर कह देते हैं कि अभिभाषण को पूरा पढ़ा मान लिया जाए. पर तमिलनाडु के राज्यपाल ने ऐसा नहीं किया. 

सीएम की बात सुनकर सदन से बाहर चले गए राज्यपाल

यही नहीं, उन्होंने इसके बाद और जो कुछ किया, वह शायद ही किसी अन्य विधानसभा में हुआ होगा-मुख्यमंत्री द्वारा इस बारे में जो कहा गया, उसका विरोध करते हुए तमिलनाडु के राज्यपाल सदन का बहिष्कार करके सदन से उठकर चले गए! 

राज्य सरकार ने राज्यपाल के इस बर्ताव पर आपत्ति तो दायर की ही है, एक प्रतिनिधिमंडल भेज कर राष्ट्रपति से यह आग्रह भी किया है कि संबंधित राज्यपाल महोदय को तत्काल राज्य से वापस बुला लिया जाए!

इससे पहले भी हो चुकी है ऐसी घटनाएं

यह पहली बार नहीं है जब किसी राज्यपाल ने ‘अपनी सरकार’ का इस तरह से विरोध किया है, और न ही यह पहली बार है जब किसी राज्यपाल को हटाए जाने की मांग की गई है. कई राज्यों में पहले भी राज्यपाल और सरकार के बीच टकराव के उदाहरण देखने को मिलते रहे हैं. कुछ अर्सा पहले तक पश्चिम बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल के ‘अपनी सरकार’ से टकराव के किस्से मीडिया की सुर्खियां बनते देखे गए थे. 

केरल, मेघालय, महाराष्ट्र आदि राज्यों के राज्यपाल के कहे-किए का विरोध संबंधित सरकारें करती रही हैं. दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर तो आए दिन ‘अपनी सरकार’ को काम न करने देने का आरोप झेलते रहते हैं. यह बात हाल-फिलहाल तक ही सीमित नहीं है. 

केंद्र में सत्तारूढ़ दल के विरोधी दलों वाले राज्यों में यह अकसर होता है

राज्यपालों और सरकारों का टकराव दशकों से देश देखता रहा है. खासतौर पर जब मामला ऐसे राज्यों का हो जहां केंद्र में सत्तारूढ़ दल के विरोधी दलों का शासन हो, इस तरह का टकराव अक्सर देखा जा रहा है. इस व्यवहार को, और इस स्थिति को, उचित नहीं कहा जा सकता.

वास्तव में राज्यपाल-पद की व्यवस्था में ही इस टकराव के बीज थे. संविधान सभा में ही इसे लेकर शंका प्रकट की गई थी. व्यवस्था यह है कि राज्यपाल नियुक्त करने का अधिकार केंद्र सरकार का होता है. 

राज्यपाल को लेकर आजकल क्या होता है

संविधान बनाते समय अपेक्षा यह की गई थी कि सार्वजनिक जीवन से जुड़े गैर-राजनीतिक व्यक्तियों को राज्यपाल बनाया जाएगा, जो राज्य और केंद्र के बीच एक पुल का काम करेंगे. अपेक्षा यह भी की गई थी कि केंद्र ऐसे व्यक्तियों को इस पद पर बिठाएगा जिनका विभिन्न क्षेत्रों में विशिष्ट स्थान हो, और वे समाज द्वारा सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हों. 

इसकी शुरुआत भी अच्छी हुई थी, पर धीरे-धीरे यह पद केंद्र में राज कर रही पार्टी द्वारा ‘अपने आदमियों’ को पुरस्कृत करने का जरिया बन गया. फिर जब केंद्र और राज्यों में अलग-अलग राजनीतिक दलों की सरकारें बनने लगीं तो स्थिति और बिगड़ गई. जनतंत्र में यह स्थिति स्वीकार्य नहीं हो सकती.

आज भी राज्यपाल और राज्य सरकार की होती रहती है टकराव

आज की दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई यह है कि आए दिन राज्यपाल और राज्यों की सरकारों में टकराव हो रहा है. विशेषकर उन राज्यों में जहां केंद्र के विरोधी दलों की सरकारें हैं, राज्यपाल केंद्र के हितों को देखते हुए काम करने का आरोप झेल रहे हैं. 

सवाल संविधान की मर्यादाओं की रक्षा का है. राज्यपाल और सरकारें, दोनों, संविधान की रक्षा और उसके अनुरूप कार्य करने की शपथ लेते हैं. आए दिन इस शपथ का उल्लंघन होते हुए देखना नितांत दुर्भाग्यपूर्ण है. कब बदलेगी यह स्थिति?
 

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