वेदप्रताप वैदिक का ब्लॉगः सावरकर पर विवाद क्यों?
By वेद प्रताप वैदिक | Published: August 26, 2019 07:09 AM2019-08-26T07:09:01+5:302019-08-26T07:09:01+5:30
राजनीतिक दल और उनके छात्न-संगठन एक-दूसरे की टांग-खिंचाई करते रहें, यह स्वाभाविक है लेकिन वे अपने दल-दल में महान स्वतंत्नता सेनानियों को भी घसीट लें, यह उचित नहीं है. यह ठीक है कि सावरकर, सुभाष और भगत सिंह के विचारों और गांधी-नेहरू के विचारों में काफी अंतर रहा है, लेकिन इन सभी महानायकों ने स्वतंत्रता संग्राम में उल्लेखनीय योगदान किया है.
वीर सावरकर, नेताजी सुभाषचंद्र बोस और शहीद भगत सिंह की त्रिमूर्ति को लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय में फिजूल का विवाद चल पड़ा है. इन तीनों स्वतंत्नता सेनानियों की एक साथ तीन मूर्तियां बनवाकर भाजपा के छात्न संगठन ने दिल्ली विवि के परिसर में लगवा दी थीं. लेकिन कांग्रेस, वामपंथी दलों और ‘आप’ के छात्न-संगठनों ने विशेषकर सावरकर की मूर्ति का विरोध किया और उस पर कालिख पोत दी.
राजनीतिक दल और उनके छात्न-संगठन एक-दूसरे की टांग-खिंचाई करते रहें, यह स्वाभाविक है लेकिन वे अपने दल-दल में महान स्वतंत्नता सेनानियों को भी घसीट लें, यह उचित नहीं है. यह ठीक है कि सावरकर, सुभाष और भगत सिंह के विचारों और गांधी-नेहरू के विचारों में काफी अंतर रहा है, लेकिन इन सभी महानायकों ने स्वतंत्रता संग्राम में उल्लेखनीय योगदान किया है.
जहां तक विनायक दामोदर सावरकर का सवाल है, 1909 में जब गांधी और सावरकर पहली बार लंदन के इंडिया हाउस में मिले तो इस पहली मुलाकात में ही उनकी भिड़ंत हो गई. यह ठीक है कि सावरकर के ग्रंथ ‘हिंदुत्व’ को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जनसंघ, भाजपा और हिंदू महासभा अपना वैचारिक मूलग्रंथ मानते रहे हैं लेकिन यदि आप उसे ध्यान से पढ़ें तो उसमें कहीं भी सांप्रदायिकता, संकीर्णता, जातिवाद या अतिवाद का प्रतिपादन नहीं है.
वह जिन्ना और मुस्लिम लीग के द्विराष्ट्रवाद का कठोर उत्तर था. सावरकर के ‘हिंदू राष्ट्र’ में हिंदुओं, मुसलमानों, सिखों, ईसाइयों, यहूदियों आदि को समान अधिकार देने की वकालत की गई है. यदि सावरकर का स्वाधीनता संग्राम में जबर्दस्त योगदान नहीं होता तो प्रधानमंत्नी इंदिरा गांधी उन पर डाक टिकट जारी क्यों करतीं, संसद में सावरकर का चित्न क्यों लगवाया जाता?
इंदिराजी का सूचना मंत्नालय सावरकर पर फिल्म क्यों बनवाता? भारतीय युवा पीढ़ी को अपने पुरखों के कृतित्व और व्यक्तित्व पर अपनी दो-टूक राय जरूर बनानी चाहिए लेकिन उन्हें दलीय राजनीति के दल-दल में क्यों घसीटना चाहिए? उन्हें इंदिराजी से ही कुछ सीखना चाहिए.