दिसंबर आते ही सत्ता के गलियारों में सर्दी नहीं, बल्कि चिंता?, आखिर क्यों छुट्टी मांगने से घबराते हैं मोदी के मंत्री!

By हरीश गुप्ता | Updated: December 25, 2025 05:36 IST2025-12-25T05:36:15+5:302025-12-25T05:36:15+5:30

गृह मंत्री अमित शाह ने एक बार कहा था, ‘‘मोदीजी ने 2001 में पदभार संभालने के बाद से एक भी दिन की छुट्टी नहीं ली है.’’

delhi come December not just cold but worry corridors power Why pm narendra Modi's ministers afraid ask leave Why did Modi choose Nitin Navin blog harish gupta | दिसंबर आते ही सत्ता के गलियारों में सर्दी नहीं, बल्कि चिंता?, आखिर क्यों छुट्टी मांगने से घबराते हैं मोदी के मंत्री!

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Highlightsजन्मदिन, त्योहार और व्यक्तिगत उपलब्धियां अक्सर आधिकारिक कार्यक्रमों, निरीक्षणों या राजनीतिक दौरों में ही समेट लिए जाते हैं. समय के साथ निरंतर मजबूत होता यह व्यक्तिगत उदाहरण मंत्रिपरिषद के लिए एक अलिखित आचार संहिता बन गया है.2017 के मंत्रिमंडल फेरबदल से पहले यह पैटर्न और भी सख्त हो गया.

दिसंबर आते ही सत्ता के गलियारों में सर्दी नहीं, बल्कि चिंता छा जाती है. मोदी युग में केंद्रीय मंत्रियों के लिए छुट्टी मांगना सबसे मुश्किल कामों में से एक बन गया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में पदभार संभालने के बाद से एक भी घोषित अवकाश नहीं लिया है. जैसा कि गृह मंत्री अमित शाह ने एक बार कहा था, ‘‘मोदीजी ने 2001 में पदभार संभालने के बाद से एक भी दिन की छुट्टी नहीं ली है.’’

जन्मदिन, त्योहार और व्यक्तिगत उपलब्धियां अक्सर आधिकारिक कार्यक्रमों, निरीक्षणों या राजनीतिक दौरों में ही समेट लिए जाते हैं. समय के साथ निरंतर मजबूत होता यह व्यक्तिगत उदाहरण मंत्रिपरिषद के लिए एक अलिखित आचार संहिता बन गया है - एक ऐसा नियम जो एक दशक से अधिक समय से कायम है. 2017 के मंत्रिमंडल फेरबदल से पहले यह पैटर्न और भी सख्त हो गया.

उस समय मीडिया रिपोर्टों में बताया गया था कि आंतरिक आकलन में न केवल कार्य-प्रणाली, बल्कि दिल्ली में उपस्थिति और प्रधानमंत्री कार्यालय के लिए उपलब्धता को भी महत्व दिया गया था. कम चर्चित या अक्सर अनुपस्थित रहने वाले कई मंत्रियों ने चुपचाप सरकार छोड़ दी. यह सिलसिला हर दिसंबर में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है. कई मंत्रियों के बच्चे विदेश में बस गए हैं या पढ़ाई कर रहे हैं.

साल के अंत में होने वाले मिलन समारोह की योजना बनाई जाती है - फिर उसे स्थगित कर दिया जाता है. यात्रा को छोटा कर दिया जाता है, आधिकारिक कार्यक्रमों के साथ जोड़ दिया जाता है, या फिर चुपचाप पूरी तरह से रद्द कर दिया जाता है. छुट्टी की अनुमतियां अगर मांगी भी जाती हैं तो गोपनीय तरीके से, अक्सर मध्यस्थों के माध्यम से, न कि सीधे अनुरोध करके.

निजी तौर पर, मंत्रीगण कुछ घबराहट भरे लहजे में मजाक करते हैं कि दिसंबर कैलेंडर का सबसे ‘खतरनाक’ महीना है. जब प्रधानमंत्री छुट्टी नहीं लेते, तो यह अलिखित अपेक्षा होती है कि कोई और भी छुट्टी न ले. बेशक, कुछ अपवाद भी हैं - और प्रधानमंत्री उदार भी हो सकते हैं.

एक वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री को एक बार अपने बेटे के विदेश में हुए स्नातक समारोह में शामिल होने के लिए तीन दिन की छुट्टी दी गई थी. इस दिसंबर में भी, कुछ मंत्री खुद को भाग्यशाली मानते हैं. लेकिन ऐसी छूटें दुर्लभ होती हैं, बहुत सोच-समझकर दी जाती हैं और इन्हें कभी भी हल्के में नहीं लिया जा सकता.

मोदी ने नितिन नबीन को भाजपा अध्यक्ष क्यों चुना?

प्रधानमंत्री मोदी द्वारा 45 वर्षीय नितिन नबीन को भाजपा का नया कार्यकारी अध्यक्ष चुने जाने के पीछे कई तरह के सिद्धांत सामने आ रहे हैं. इनमें से सबसे विश्वसनीय सिद्धांत एक अंदरूनी सूत्र द्वारा बताया गया है. मोदी ने अपने करीबी लोगों की एक बंद कमरे में हुई बैठक में एक सवाल उठाया - क्या 2010 में भाजपा अध्यक्ष बनने से पहले किसी ने नितिन गडकरी जी का नाम सुना था?

सूत्रों के अनुसार, वहां मौजूद लोग एक-दूसरे को देखने लगे और सवाल की अहमियत को न समझते हुए चुप रहे. प्रधानमंत्री ने बताया कि नितिन जी पहले महाराष्ट्र सरकार में मंत्री थे, जब पार्टी ने पीढ़ीगत बदलाव का फैसला किया और उन्हें दिल्ली लाकर पार्टी अध्यक्ष बनाया. 52 वर्ष की आयु में वे सबसे युवा अध्यक्ष थे.

प्रधानमंत्री मोदी ने भाजपा के कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में अपने ‘नितिन’ नबीन को चुना, जो गडकरी की उस समय की उम्र से सात साल छोटे हैं. अगर आडवाणी युग में नितिन गडकरी को चुना गया था, तो मोदी अपने नितिन को लाए, जो बिहार सरकार में मंत्री भी हैं और वो भी सड़क एवं सार्वजनिक विकास मंत्री. इस तरह मोदी ने भाजपा में एक और इतिहास रच दिया.

लेकिन इस पीढ़ीगत बदलाव ने सरकार और पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं को चिंतित कर दिया है. उन्हें उसी तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है, जिनका सामना गडकरी के सत्ता संभालने और 2014 में मोदी के सत्ता में आने के बाद लगभग सभी वरिष्ठ नेताओं को करना पड़ा था. कुछ को मार्गदर्शक मंडल भेज दिया गया, जबकि अन्य को घर भेज दिया गया और कुछ भाग्यशाली लोग राज्यपाल बन गए.

बंगाल के लिए भाजपा की बिहार मॉडल पर नजर

बिहार में अप्रत्याशित रूप से मिली भारी जीत के बाद, भाजपा 2026 में पश्चिम बंगाल में भी उसी रणनीति को दोहराने की तैयारी कर रही है - एनडीए बनाम तृणमूल की जबरदस्त टक्कर. और एक चौंकाने वाले राजनीतिक बदलाव के तहत, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बंगाल में गठबंधन के प्रमुख प्रचारक बनने जा रहे हैं.

भाजपा के शीर्ष रणनीतिकारों का कहना है कि बिहार के प्रयोग ने पार्टी को आश्वस्त कर दिया है कि एक व्यापक, गैर-वैचारिक, स्थिरता-प्रथम गठबंधन ममता बनर्जी के मजबूत लेकिन कमजोर होते सामाजिक आधार में सेंध लगा सकता है. उभरता नारा है : ‘‘एनडीए का न्याय बनाम ममता का जंगल राज.’’

नीतीश की मौजूदगी भाजपा का सबसे बड़ा दांव है-और संभवतः सबसे बड़ी ताकत भी. एक गंभीर प्रशासक और ‘गठबंधन के कुशल रणनीतिकार’ के रूप में उनकी छवि ममता की आवेगपूर्ण और व्यक्तित्व-प्रधान राजनीति से बिलकुल अलग है. बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से आए प्रवासी मजदूरों की बड़ी आबादी भी बंगाल में एक अहम कारक है: भाजपा का मानना है कि नीतीश की लोकप्रियता इन मजदूरों के साथ भी बनी रहेगी. हालिया विवाद के बावजूद, वे महिला मतदाताओं को भी एनडीए की ओर आकर्षित करेंगे.

नीतीश उन जिलों में रैलियों को संबोधित करेंगे जहां प्रवासी मजदूरों की संख्या अधिक है - जबकि भाजपा के अपने स्थानीय चेहरों की कमी को बिहार, असम और उत्तर प्रदेश के एनडीए नेताओं के समूह द्वारा पूरा किया जाएगा. भाजपा के लिए, बंगाल ने मोदी की चुनावी जीत को रोक रखा है. नीतीश के मंच पर आने से पार्टी को उम्मीद है कि बंगाल के मतदाता एक स्थिर गठबंधन के लिए ममता के करिश्माई व्यक्तित्व को त्यागने के लिए तैयार हो सकते हैं. क्या यह दांव सफल होगा?

यह शे’र किसका है!

संसद के हाल ही में समाप्त हुए शीतकालीन सत्र में एक विडंबना सामने आई जब केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल ने कांग्रेस को सलाह देते हुए गालिब से संबंधित एक शेर पढ़ा- ‘‘उम्र भर ग़ालिब यही भूल करता रहा, धूल चेहरे पे थी और आईना साफ़ करता रहा.’’ लेकिन समस्या यह है कि यह शेर गालिब का नहीं है. और यह पहली बार नहीं है.

जून 2019 में भी, प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस पर निशाना साधने के लिए इसी शेर का इस्तेमाल किया था. उस समय, गीतकार और कवि जावेद अख्तर ने सोशल मीडिया पर सार्वजनिक रूप से बताया था कि गालिब का बताया जा रहा यह शेर उनका बिल्कुल नहीं है.

उन्होंने यह भी कहा था कि दोनों पंक्तियां शास्त्रीय उर्दू छंदशास्त्र के बुनियादी मानकों को पूरा नहीं करतीं. गालिब के दीवान में भी यह शेर कहीं नहीं मिलता. कुछ संदर्भ इसे असर लखनवी की रचना बताते हैं, लेकिन सोशल मीडिया ने इसे गालिब की रचना के रूप में प्रमाणित किया है.

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