ब्लॉग: दीनदयाल उपाध्याय की वह रणनीति जिसकी बदौलत भाजपा आज चुनाव दर चुनाव जीत रही है...

By अभय कुमार दुबे | Published: February 24, 2023 07:24 AM2023-02-24T07:24:49+5:302023-02-24T07:25:40+5:30

Deendayal Upadhyay importance and strategy for Hindi society due to which BJP is winning election after election today | ब्लॉग: दीनदयाल उपाध्याय की वह रणनीति जिसकी बदौलत भाजपा आज चुनाव दर चुनाव जीत रही है...

ब्लॉग: दीनदयाल उपाध्याय की वह रणनीति जिसकी बदौलत भाजपा आज चुनाव दर चुनाव जीत रही है...

हर साल की तरह इस साल भी भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने अपने श्रद्धेय नेता दीनदयाल उपाध्याय की पुण्यतिथि मनाई. भाजपा के पूर्व संस्करण भारतीय जनसंघ को एक उल्लेखनीय शक्ति बनाने और समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया के साथ मिल कर गैरकांग्रेसवाद की रणनीति को धरती पर उतारने के मामले में उनका योगदान ऐतिहासिक समझा जाता है. 

उपाध्यायजी ने पिछड़ी जातियों और ऊंची जातियों को जोड़ कर जनसंघ का वोटिंग आधार तैयार करने की जो रणनीति गढ़ी थी, वह आज अपनी सफलता के चरम उत्कर्ष पर भाजपा को चुनाव दर चुनाव जिता रही है. लेकिन वे महज एक चुनावी रणनीतिकार नहीं थे. हिंदू समाज के बारे में उनके पास एक दार्शनिक समझ थी. देखने की बात यह है कि वह दार्शनिक समझ आज हिंदुत्ववादी शक्तियों के कितने काम की रह गई है.  

उपाध्यायजी ने साठ के दशक के मध्य में ‘एकात्म मानववाद’ की थ्योरी के जरिये वर्णाश्रम को हिंदू समाज में परस्पर संघर्ष के बजाय उसकी आंगिक एकता और समतामूलकता के वाहक के तौर पर पेश किया. इसके अलावा उपाध्याय ने राष्ट्र और राज्य को राष्ट्र राज्य के रूप में देखने के बजाय अलग-अलग देखने को प्राथमिकता दी. इससे उन्हें मुसलमानों के हमले के कारण राज्य छिन जाने के बावजूद हिंदू राष्ट्र की निरंतरता बने रहने का दावा करने की सुविधा मिल गई. उपाध्याय ने व्यक्ति के मन और समाज के मन में भेद करते हुए स्थापित किया कि व्यक्ति के नाते से कोई व्यक्ति बहुत अच्छा हो सकता है और समाज के नाते से बुरा हो सकता है.

बहरहाल, वर्णाश्रम को आधुनिक समतामूलकता के समकक्ष रखने की इस कोशिश के जरिये संघ ने व्यावहारिक राजनीति के मैदान में हिंदू-एकता की दिशा में प्रारंभिक  पहलकदमियां लेने की कोशिश की. इसके तहत ब्राह्मणों और द्विजों के प्रति पारंपरिक सम्मान में कोताही किए बिना जनसंघ द्वारा चारों वर्णों के तहत आने वाली हिंदू जातियों को धीरे-धीरे एक समान धरातल मुहैया कराने का प्रयास किया जाने लगा. निश्चित रूप  से यह वर्णाश्रम के पुराने आग्रहों में एक नया संशोधन था. 

संघ के आलोचकों ने ‘एकात्म मानववाद’ के जरिये लाए गए इस विचार-परिवर्तन  पर ध्यान नहीं दिया और इसे ब्राह्मणों द्वारा गैर-ब्राह्मणों को एक बार फिर उल्लू बनाने के नए हथकंडे के तौर पर देखा. लेकिन, इस आलोचना से बेपरवाह होकर भारतीय जनसंघ पिछड़ी जातियों के लोधियों, काछियों, नोनिया चौहानों, कुर्मियों, गूजरों, सैनियों, सैथवारों के कुछ हिस्सों को अपनी ओर खींचने की कोशिश करता रहा. 

एक तरफ तो इन समुदायों के भीतर चले संस्कृतीकरण के सामाजिक आंदोलनों ने उन्हें हिंदुत्ववादी राजनीतिकरण के लिए जरखेज बनाया, और दूसरी तरफ समाजवादियों की प्राथमिकता सूची में यादवों की शीर्ष पर स्थायी उपस्थिति ने भी इन जातियों को अपनी उपेक्षा का एहसास दिलाया और प्रतियोगितावश जनसंघ के नजदीक धकेल दिया.
 

साठ के दशक में लिखी गई अपनी रचना ‘एकात्म मानववाद’ के जरिये उपाध्यायजी ने ऊंची जातियों के साथ पिछड़ी जातियों को राजनीतिक रूप  से जोड़ने की वैचारिक जमीन तो तैयार कर दी, पर हिंदू समाज के उन हिस्सों के लिए यह थीसिस अपेक्षाकृत निष्प्रभावी थी जो संविधान की दृष्टि में अनुसूचित जाति या पूर्व-अछूत और अनुसूचित जनजाति या आदिवासी थे. अनुसूचित जातियों में फैल रहे आंबेडकरवाद की काट करने के लिए उसके पास कोई युक्ति नहीं थी. उसे एक कहीं ज्यादा रैडिकल उपाय की तलाश थी. 

यह तलाश तब पूरी हुई जब उत्तर-गोलवलकर अवधि में संघ ने एक खास मुकाम पर हिंदू-एकता के अपने दीर्घकालीन और धीरे-धीरे चलने वाले प्रयास के तहत मनुस्मृति आधारित वर्णवादी आग्रहों से बिना कोई रैडिकल मुद्रा अख्तियार किए किनारा कर लिया. संघ के आलोचक उसमें आई इस तब्दीली को  पहचानने के लिए आज तक तैयार नहीं हैं. चूंकि इस  परिवर्तन को न समझा गया, और न ही उसके महत्व का विश्लेषण किया गया, इसलिए इसके आधार पर चली संघ की कार्यक्रमगत परियोजना की संभावनाओं और अंदेशों का भी अर्थग्रहण नहीं हो सका. 

संघ द्वारा किए गए इस विचार-परिवर्तन पर अगर एक गहरी निगाह डाली जाए तो यह भी दिखता है कि इसकी गुंजाइशें हेडगेवार और गोलवलकर के अवचेतन में ही मौजूद थीं. अगर ऐसा न होता तो रैडिकल न लगने वाले इस रैडिकल  परिवर्तन से एक वैचारिक क्रम-भंग होता और संघ की सांगठनिक एकता टूट गई होती.

संघ के आलोचकों का रवैया गोलवलकर और दीनदयाल उपाध्याय द्वारा वर्णाश्रम की खूबियां गिनाने वाले कथनों का बार-बार उल्लेख करता है, पर संघ के तीसरे सरसंघचालक बालासाहब देवरस के 1974 में दिए गए उस मशहूर भाषण को पूरी तरह से नजरअंदाज कर देता है जिसमें खोखली हो चुकी वर्णवादी समाज-व्यवस्था को उसकी मौत मरने देने का आह्वान करते हुए ‘जन्म आधारित विषमता के शास्त्र’ का विरोध किया गया है. समाज-वैज्ञानिक और सेक्युलर एक्टिविस्टों के अनुसंधान-साहित्य में देवरस के इस वक्तव्य की उपेक्षा चकित करती है, क्योंकि यह व्याख्यान सभी भारतीय भाषाओं में अनूदित हो चुका है और संघ और भाजपा के भीतर इसे एक नीतिगत वक्तव्य की हैसियत मिल चुकी है. 

जाहिर है कि जो रवैया संघ में हुए इस स्पष्ट नीतिगत  परिवर्तन को देखने से इंकार करता हो, वह गोलवलकर के जमाने में ही इस परिवर्तन की आहटों को तो सुन ही नहीं सकता था.

संघ के इन बदले हुए आग्रहों के कारण उसकी तरफ से वर्णाश्रम को उत्साह के साथ मंच पर पेश करने की प्रवृत्ति रणनीतिक रूप से कमजोर होती चली गई. संघ द्वारा हिंदुत्ववादी राजनीतिकरण की योजना परिणामवाद के रास्ते पर चल निकली. वर्णाश्रम के प्रति सम्मान अपनी जगह था, लेकिन उसका महत्व केवल इतना ही रह गया था कि भाजपा ब्राह्मणवाद विरोधी प्रत्यय या हिंदू समाज के भीतर जातियों का संघर्ष चलाने के समाजवादी और रैडिकल आंबेडकरवादी मुहावरे से खुद को दूर रखती रही. 

अपनी इसी रणनीति के परिणामस्वरूप 2000 आते-आते भाजपा यह दावा करने की स्थिति में आ गई कि उसके पास देश की किसी भी पार्टी से संख्या में अधिक अनुसूचित जातियों और जनजातियों के सांसद और विधायक हैं. अगस्त, 2000 में ही भाजपा ने आंध्र प्रदेश की माडिगा अनुसूचित जाति से आए नेता बंगारू लक्ष्मण को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया. 

ध्यान रहे कि उन दिनों संघ आंध्र प्रदेश में माला और माडिगा अनुसूचित जातियों के आपसी संघर्ष का लाभ उठाने की फिराक में था. बंगारू लक्ष्मण एक स्टिंग ऑपरेशन में कैमरे पर नकदी लेते पकड़े गए और इस तरह उनका राजनीतिक करियर समाप्त हो गया. मीडिया उन्हें भले भूल गया हो, लेकिन संघ और भाजपा के भीतर उनका कार्यकाल उस दस सूत्रीय कार्यक्रम के लिए आज भी जाना जाता है जो उन्होंने सामाजिक न्याय की राजनीति के धरातल पर भाजपा को सरपट दौड़ाने के लिए बनाया था.  

Web Title: Deendayal Upadhyay importance and strategy for Hindi society due to which BJP is winning election after election today

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