ब्लॉग: आरक्षण के नाम पर संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन न हो
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: July 18, 2024 12:57 IST2024-07-18T12:56:06+5:302024-07-18T12:57:03+5:30
चुनाव में अपने वोट बैंक को मजबूत बनाने और उसका आधार बढ़ाने की सत्ताधारी दलों की मंशा पर सुप्रीम कोर्ट के मंगलवार के एक महत्वपूर्ण फैसले से अंकुश लग जाना चाहिए.

(प्रतीकात्मक तस्वीर)
चुनाव में अपने वोट बैंक को मजबूत बनाने और उसका आधार बढ़ाने की सत्ताधारी दलों की मंशा पर सुप्रीम कोर्ट के मंगलवार के एक महत्वपूर्ण फैसले से अंकुश लग जाना चाहिए. मंगलवार को सर्वोच्च न्यायालय ने बिहार सरकार की उस अधिसूचना को रद्द कर दिया जिसमें तांती-ततवा जाति को अत्यंत पिछड़ा समुदाय से हटाकर अनुसूचित जातियों की सूची में पान/स्वासी जाति के साथ मिला दिया गया था.
कोर्ट ने अधिसूचना रद्द करते हुए दो-टूक कह दिया कि राज्यों को अनुसूचित जातियों की सूची में छेड़छाड़ का अधिकार नहीं है. संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत प्रकाशित अनुसूचित जाति की सूची में कोई फेरबदल नहीं किया जा सकता.
मामला अदालत में जाने के पूर्व केंद्र सरकार के पाले में 2011 में आया था. केंद्र सरकार अपनी संवैधानिक मर्यादा से कोई समझौता करना नहीं चाहती थी और उसने तत्काल बिहार सरकार के प्रस्ताव को लौट दिया था. सुप्रीम कोर्ट में विभिन्न समुदायों को आरक्षण देने से संबंधित मसले वर्षों से लंबित हैं.
चाहे मुसलमानों को किसी अन्य समुदाय के कोटे से आरक्षण देना हो या अन्य किसी जाति को अनुसूचित जाति, जनजाति या ओबीसी में समाविष्ट कर आरक्षण की सुविधा देने का मसला हो, कानूनी लड़ाई लंबे समय से चल रही है. महाराष्ट्र में हलबा कोष्टी समाज को अनुसूचित जनजाति में शामिल कर आरक्षण देने का मुकदमा दशकों तक अदालत में चला.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद कानूनी रूप से मामले का निपटारा तो हो गया लेकिन हलबा कोष्टी समाज अब भी अनुसूचित जनजाति का दर्जा पाने के लिए आंदोलनरत है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले से आरक्षण के तहत महाराष्ट्र में सरकारी नौकरी पाने वाले हलबा कोष्टी समुदाय के हजारों लोगों की नौकरी पर अभी भी तलवार लटक रही है.
इसी तरह महाराष्ट्र में धोबा समुदाय भी एक विशिष्ट जाति की सूची में खुद को शामिल कर आरक्षण की मांग कर रहा है. महाराष्ट्र में धनगर समाज भी अनुसूचित जनजाति में खुद को शामिल करवाकर आरक्षण का लाभ चाहता है. यह समस्या अकेले महाराष्ट्र में नहीं है.
गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश से लेकर दक्षिण में केरल, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु तथा तेलंगाना तक में विभिन्न जातियां अनुसूचित जाति, जनजाति या ओबीसी की श्रेणी में आना चाहती हैं जबकि संविधान के प्रावधान इसकी अनुमति नहीं देते. आरक्षण का मूल मकसद आर्थिक, सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से अत्यंत पिछड़ी हुई जातियों को विकास की मूल धारा में शामिल कर उनका जीवन स्तर ऊंचा उठाना है.
विभिन्न जातियों की स्थिति का गहन अध्ययन करने के बाद संविधान निर्माताओं ने आरक्षण को संवैधानिक प्रावधान का हिस्सा बनाने का फैसला किया. एक नेक मकसद से उठाया गया कदम अब राजनीतिक दलों के लिए बड़ा राजनीतिक हथियार बन गया है और चुनाव जीतने के लिए उसका इस्तेमाल होने लगा है. राजनीतिक दलों की इस कमजोरी को आरक्षण की चाह रखनेवाले समुदाय भी समझने लगे हैं.
यह सच है कि देश में आर्थिक, सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों एवं समुदायों की संख्या काफी बड़ी है. यहां तक कि जिन जातियों को समृद्ध माना जाता है, उनका भी एक बड़ा तबका गरीब है. इसी कारण आरक्षण के लिए देश के हर राज्य में विभिन्न जातियां तथा समुदाय आंदोलन कर रहे हैं. वे जानते हैं कि राजनीतिक दल वोट बैंक के लिए उनका इस्तेमाल करते हैं और बाद में अपना वादा भूल जाते हैं.
इसीलिए आरक्षण को लेकर उग्र आंदोलन हो रहे हैं. उन्हें शांत करने के लिए संवैधानिक सीमाओं की जानकारी होने के बाद भी सत्ताधारी दल विधानसभा में आरक्षण बढ़ाने या आंदोलनरत समुदाय या जाति को आरक्षण की सुविधा देने के लिए अधिसूचना जारी कर देते हैं. अदालतों में ऐसे फैसले टिक नहीं पाते. बिहार सरकार का फैसला भी इसीलिए मुंह के बल गिरा.
आंध्र प्रदेश में मुसलमानों को चार प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला भी संवैधानिक कसौटी पर खरा नहीं उतर सका. महाराष्ट्र में मराठा समाज को ओबीसी के तहत आरक्षण देने के राज्य सरकार के फैसलों को असंवैधानिक करार देकर सुप्रीम कोर्ट कड़े तेवर दिखा चुका है. चाहे किसी भी जाति या समुदाय को आरक्षण देना हो तो संविधान में प्रदत्त आरक्षण की सीमा के भीतर ही देना होगा.
इसके लिए आरक्षण की सुविधा प्राप्त जातियों की सूची में नई जाति या समुदाय को शामिल करने का अनुचित प्रयास किया जाता है. माना कि आरक्षण पिछड़े समुदायों की तरक्की सुनिश्चित करता है लेकिन ऐसा कोई भी कदम राज्य सरकारों को उठाना नहीं चाहिए जिससे संवैधानिक मर्यादाओं का उल्लंघन होता हो. देश संविधान के हिसाब से चलेगा, राजनीतिक दलों की अनुचित महत्वाकांक्षाओं से नहीं.