Congress Sonia Gandhi: कांग्रेस को चाहिए सोनिया गांधी का साथ?

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: October 16, 2024 05:26 IST2024-10-16T05:26:32+5:302024-10-16T05:26:32+5:30

पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा को दोषी ठहराया, तो अन्य लोगों ने पूर्व केंद्रीय मंत्री शैलजा कुमारी और उनके करीबियों पर भितरघात का आरोप लगाया.

Congress needs Sonia Gandhi's support blow Prabhu Chawla publicity in defeat rather than victory praiyanka gandhi rahul gandhi | Congress Sonia Gandhi: कांग्रेस को चाहिए सोनिया गांधी का साथ?

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Highlightsलड़ाई कांग्रेस बनाम भाजपा से कहीं ज्यादा कांग्रेस बनाम कांग्रेस थी. स्थानीय जाति और समुदाय के सरदारों के बीच खुली लड़ाई थी. गांधी परिवार की अगुआई वाले केंद्रीय नेतृत्व ने उन्हें एक साथ लाने के लिए कोई कदम नहीं उठाया.

प्रभु चावला

यह एक ऐसा अपवाद है, जिसकी व्याख्या नहीं की जा सकती कि कांग्रेस को जीत से ज्यादा हार में प्रचार मिलता है. पिछले हफ्ते चुनावी जानकारों की भविष्यवाणी के विपरीत जब कांग्रेस हरियाणा में हारी, तो ज्ञानियों ने यह समझाने के लिए कि वोट शेयर में वृद्धि का कोई मतलब नहीं है, कांग्रेस के अस्तित्व के लिए संघर्ष करने की अपनी थकी हुई कहानी को फिर दोहराया. हमेशा की तरह स्थानीय नेतृत्व को ही खलनायक बनाया गया, राष्ट्रीय नेताओं को नहीं. पार्टी के जुझारू सेनापति राहुल गांधी का मजाक जरूर उड़ाया गया. गुटबाजी, उम्मीदवार चयन में गलती, वोटिंग मशीन में गड़बड़ी, सामूहिक नेतृत्व का अभाव और जातिगत ध्रुवीकरण जैसे सामान्य बहाने इस बात के स्पष्टीकरण के रूप में दिए गए कि क्यों एक सुनिश्चित जीत अपमानजनक हार में बदल गई.

पार्टी के एक वर्ग ने पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा को दोषी ठहराया, तो अन्य लोगों ने पूर्व केंद्रीय मंत्री शैलजा कुमारी और उनके करीबियों पर भितरघात का आरोप लगाया. यह लड़ाई कांग्रेस बनाम भाजपा से कहीं ज्यादा कांग्रेस बनाम कांग्रेस थी. यह स्थानीय जाति और समुदाय के सरदारों के बीच खुली लड़ाई थी. गांधी परिवार की अगुआई वाले केंद्रीय नेतृत्व ने उन्हें एक साथ लाने के लिए कोई कदम नहीं उठाया.

बदला लेने पर उतारू असंतुष्टों पर लगाम लगाने में असमर्थता के कारण पार्टी ने एक दर्जन से अधिक सीटें खो दीं. इस हार को समझना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है. हरियाणा में इसलिए हार हुई क्योंकि गांधी परिवार सत्ता के लालची विद्रोहियों को रोकने में पूरी तरह विफल रहा. राहुल ने पोस्टकार्ड राजनीति की, मंच पर हर कोई उनके साथ एक खूबसूरत तस्वीर खिंचवा रहा था, लेकिन सामूहिक सौहार्द की कोई फोटो नहीं थी.

प्रियंका गांधी, जो एक महत्वपूर्ण महासचिव हैं, की उपस्थिति पूरे प्रचार अभियान के दौरान न्यूनतम रही. दोष पार्टी की जटिल नियंत्रण एवं कमान प्रणाली में है. भाजपा के विपरीत, जिसे सीधे मोदी-शाह की टर्बो टीम द्वारा नियंत्रित किया जाता है, कांग्रेस में एक संरचित पदानुक्रमिक तंत्र का अभाव है क्योंकि गांधी परिवार इसे एक निजी इकाई के रूप में मानता है.

अपने हाथों में रिमोट कंट्रोल के साथ वे जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर पदाधिकारियों से लेकर मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों तक की नियुक्ति करते रहे हैं. चूंकि पार्टी के चुनाव बहुत कम होते हैं, इसलिए या तो गांधी परिवार के अनुयायी या उनके गुट के चुने हुए लोग ही राज्यों में प्रमुख के तौर पर थोपे जाते हैं. इस अति-केंद्रीकृत निर्णय प्रक्रिया के कारण कांग्रेस न केवल आम चुनाव, बल्कि कई राज्यों में भी चुनाव हार गई.

साल 2005 तक आधे से अधिक राज्यों में शासन करने वाली पार्टी अब सिर्फ तीन राज्यों में शासन कर रही है. उत्तर में केवल हिमाचल प्रदेश ही बचा है. गांधी के नेतृत्व में पार्टी का भौगोलिक दायरा बहुत कम हो गया है. फिर भी, कांग्रेस कमजोर जरूर हुई है, लेकिन पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है. कांग्रेस का विरोधाभास यह है कि वह अपनी गहरी ग्रामीण जड़ों और गांधी परिवार के साथ जुड़े रहने के कारण ही अस्तित्व में है.

उनके वफादार संगठन को नियंत्रित करते हैं. सोनिया गांधी एकजुटता लाती हैं तथा राहुल योद्धा और मुखर प्रवक्ता हैं. जब वे पहले उपाध्यक्ष और बाद में अध्यक्ष के रूप में पार्टी को संभालने में विफल रहे, तो सोनिया ने पार्टी के दलित चेहरे और पुराने योद्धा मल्लिकार्जुन खड़गे को चुना. कांग्रेस नेताओं को संभालने में उनकी निपुणता और वरिष्ठ होने के नाते अनुभवी विपक्षी नेताओं से जुड़ने की क्षमता के कारण उन्हें पदोन्नत किया गया, जो राहुल के साथ उतने सहज नहीं होते.

राहुल की दो यात्राओं के बाद यह स्थिति बदल गई है. वे लगातार ऐसे मुद्दे उठाते रहे हैं, जो सत्तारूढ़ पार्टी को शर्मिंदा करते हैं. इस बार उनके नेतृत्व में कांग्रेस ने 99 सीटें जीतीं, लेकिन पिछले एक दशक में इसने ज्यादा राज्य खो दिए क्योंकि राहुल ने पार्टी के भविष्य के रूप में खुद को स्थापित करने के बजाय अपने वफादारों का समूह बनाने पर अधिक ध्यान केंद्रित किया. उन तक पहुंच की मुश्किल और उनके अभिजनवाद ने कांग्रेस का नुकसान किया है.

अब इसके पास संसद और विधानसभाओं में 25 प्रतिशत से भी कम सीटें हैं. वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं का दृढ़ विश्वास है कि केवल सोनिया ही पार्टी को एकजुट रख सकती हैं और सामंजस्यपूर्ण ढंग से काम कर सकती हैं. वे सबसे लंबे समय (डेढ़ दशक से अधिक) तक कांग्रेस अध्यक्ष रहीं. उनके कार्यकाल में ही पार्टी ने लगातार दो बार केंद्र में सत्ता हासिल की. साल 2004 में पार्टी को सिर्फ 145 सीटें मिली थीं.

उन्हें कांग्रेस संसदीय दल का नेता चुना गया और उनसे प्रधानमंत्री बनने की उम्मीद की जा रही थी. लेकिन उन्होंने इसके बजाय मनमोहन सिंह को चुना. उनकी अंतरात्मा की आवाज ने उन बाहरी आवाजों को दबा दिया, जो उनकी चापलूसी कर रही थीं. उस समय यह एक कहावत बन गई कि पद से ज्यादा सिद्धांत को तरजीह दी गई. सोनिया गांधी का उद्देश्य विपक्ष को एकजुट करना था. उन्होंने यूपीए में अपने पुराने प्रतिद्वंद्वी शरद पवार को स्वीकार किया, जिन्होंने उनके विदेशी मूल का हवाला देते हुए कांग्रेस छोड़ दी थी. उन्होंने प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति नामित करने की मुलायम सिंह यादव की अपील को स्वीकार किया.

एकता के लिए उन्होंने इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया कि यादव ने उन्हें तब प्रधानमंत्री बनने से रोका था, जब 1998 में वाजपेयी ने सिर्फ एक वोट से विश्वास मत खो दिया था. राहुल को आगे बढ़ाने के बाद वे पिछले कुछ सालों से वही भूमिका निभाने से बचती रही हैं. हरियाणा में अप्रत्याशित हार ने उन्हें फिर से केंद्रीय मंच पर ला दिया है.

चूंकि कांग्रेस कार्यकर्ता गांधी के अलावा किसी और को स्वीकार नहीं कर सकते, इसलिए वे उनसे फिर से सक्रिय भूमिका निभाने की उम्मीद कर रहे हैं. उन्होंने कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और उनके प्रतिद्वंद्वी डीके शिवकुमार के झगड़े में हस्तक्षेप किया था. उन्होंने सुनिश्चित किया कि आंध्र प्रदेश और हिमाचल प्रदेश में गुटों में सुलह हो. वे सफल इंडिया गठबंधन के निर्माण के पीछे थीं, जिसने मई में भाजपा को पूर्ण बहुमत हासिल करने से रोक दिया.

उनके वफादारों को यकीन है कि सिर्फ वे ही पार्टी की ताकत को फिर से बहाल कर सकती हैं. अगले 12 महीनों में महाराष्ट्र, झारखंड, दिल्ली और बिहार जैसे महत्वपूर्ण राज्यों में चुनाव होने हैं. कांग्रेस का प्रदर्शन राष्ट्रीय राजनीति में उसकी भविष्य की भूमिका तय करेगा.    

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