शीर्ष संवैधानिक संस्थाओं के बीच टकराव उचित नहीं
By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Published: January 10, 2023 04:15 PM2023-01-10T16:15:30+5:302023-01-10T16:22:59+5:30
द्रमुक के जब दो धड़े हुए और एम.जी. रामचंद्रन के नेतृत्व में अन्ना द्रमुक अस्तित्व में आई तब द्रविड़ राजनीति का वह धड़ा हिंदू धर्म की परंपराओं तथा आस्थाओं में विश्वास को खुलेआम जताने लगा.
तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि और द्रमुक सरकार के बीच कुछ दिनों से चल रही तनातनी ने सोमवार को विकराल रूप ले लिया. राज्यपाल ने अपने अभिभाषण के कुछ हिस्से नहीं पढ़े और सदन बीच में ही छोड़कर चले गए. यह एक अभूतपूर्व स्थिति थी. सत्तारूढ़ दल या राज्यपालों के बीच में चाहे जितने मतभेद रहे हों, यह संभवत: देश के लोकतांत्रिक इतिहास में पहला मौका रहा होगा जब कोई राज्यपाल राष्ट्रगान बजने से पहले ही विधानसभा सत्र छोड़कर चले गए. द्रमुक तथा राज्यपाल के बीच ताजा विवाद सनातन धर्म तथा द्रविड़ियन मसले पर चल रहा है.
द्रविड़ संस्कृति के मसले पर राज्यपाल की कुछ हालिया टिप्पणियां द्रमुक को नागवार गुजर रही हैं और सत्तारूढ़ दल उस पर आपत्ति उठा रहा है. द्रविड़ तथा सनातन संस्कृति के मसले पर राज्यपाल और द्रमुक के बीच टकराव पैदा होना ही था. आमतौर पर तमिलनाडु में जो भी राज्यपाल बनता है, वह द्रमुक या सनातन संस्कृति के विवाद में कभी नहीं पड़ता. तमिलनाडु में पांच दशक से भी ज्यादा वक्त से द्रविड़ संस्कृति को मानने वाली पार्टियां सत्तारूढ़ रही हैं. द्रमुक के संस्थापक अन्ना दुरई तथा उनके गुरु पेरियार रामस्वामी नायकर हिंदू और सनातन संस्कृति के घोर विरोधी थे.
द्रमुक का अस्तित्व ही हिंदू धर्म तथा देवी-देवताओं के विरोध के धरातल पर आया था. द्रमुक के जब दो धड़े हुए और एम.जी. रामचंद्रन के नेतृत्व में अन्ना द्रमुक अस्तित्व में आई तब द्रविड़ राजनीति का वह धड़ा हिंदू धर्म की परंपराओं तथा आस्थाओं में विश्वास को खुलेआम जताने लगा. एम.जी. रामचंद्रन ने अन्नाद्रमुक की छवि कभी हिंदू विरोधी पार्टी के रूप में नहीं उभारी. इसके विपरीत वह तथा उनकी उत्तराधिकारी जयललिता हिंदू धर्म में खुद की तथा अपनी पार्टी की गहरी आस्था को खुलेआम जताते रहे.
करुणानिधि के नेतृत्व में द्रमुक जरूर अपने संस्थापक अन्ना दुरई तथा पेरियार रामस्वामी के आदर्शों पर कायम रही. लेकिन यह पहला मौका है जब दो संस्कृतियों के नाम पर सत्तारूढ़ दल तथा राज्यपाल के बीच इतना गहरा टकराव सामने आया हो. धर्म तथा संस्कृति आस्था से जुड़े हुए मसले हैं. ऐसे विषयों में दो व्यक्तियों, संस्थाओं या दलों की राय अलग-अलग हो सकती है लेकिन इसे लेकर संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों या संगठनों के बीच विवाद भारतीय लोकतंत्र में दुर्लभ है. हाल के वर्षों में धर्म के नाम पर टकराव कुछ ज्यादा ही तेज हुआ है और यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है.
सामान्य तौर पर परंपरा यह रही है कि राज्यपाल का अभिभाषण सत्तारूढ़ दल ही तैयार करता है. राज्यपाल की स्वीकृति के लिए उसे भेजा जाता है. उसमें राज्यपाल चाहे तो मामूली फेरबदल कर सकते हैं. लेकिन यह बदलाव सत्तारूढ़ दल की घोषित नीतियों के विरुद्ध नहीं होता. अभिभाषण में सरकार की उपलब्धियों, नीतियों तथा भावी योजनाओं का जिक्र होता है. राष्ट्रपति या राज्यपाल अभिभाषण से हटकर कुछ वाक्य बोलते भी हैं तो वह सरकार की नीतियों के विरुद्ध नहीं होता.
तमिलनाडु में सोमवार को द्रमुक सरकार की आपत्ति इस बात को लेकर थी कि राज्यपाल रवि ने सरकार के अभिभाषण को पढ़ने के साथ-साथ सनातन धर्म पर कुछ विचार व्यक्त कर दिए. उनके इस अंश को मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने सदन की कार्यवाही के अंश से निकाल देने को कहा. अभिभाषण के बीच में सत्तारूढ़ सदस्यों ने सदन के गर्भगृह में जाकर विरोध भी जताया. रवि और द्रमुक सरकार के संबंध अब तक सौहार्द्रपूर्ण रहे हैं. जब बनवारीलाल पुरोहित तमिलनाडु के राज्यपाल थे, तब भी द्रमुक सरकार के साथ उनके सैद्धांतिक मतभेद थे लेकिन दोनों दलों के बीच सद्भाव कायम रहा. अप्रिय स्थिति नब्बे के दशक में रही जब एम. चेन्ना रेड्डी तमिलनाडु के राज्यपाल और जयललिता मुख्यमंत्री थीं.
दोनों के बीच वैचारिक मतभेद व्यक्तिगत कटुता के स्तर पर पहुंच गए थे. डॉ. रेड्डी तथा जयललिता के बीच बातचीत तक बंद थी लेकिन धर्म या संस्कृति के नाम पर दोनों के बीच टकराव कभी नहीं हुआ और न ही डॉ. रेड्डी कभी सदन की कार्यवाही बीच में छोड़कर गए. सोमवार को तमिलनाडु विधानसभा में जो कुछ हुआ, उसे लोकतंत्र के लिहाज से स्वस्थ परंपरा नहीं कहा जा सकता. राज्यपाल ने द्रमुक सरकार की नीतियों या कार्यक्रमों के बारे में नकारात्मक कुछ नहीं कहा. सनातन संस्कृति पर उन्होंने अपने विचार रखे.
सनातन संस्कृति विवाद का विषय हो भी नहीं सकती क्योंकि भारतीय जनमानस में उसकी गहरी पैठ है. तमिलनाडु की जनता भी सनातन संस्कृति में विश्वास रखती है. बहरहाल राज्यपाल और सरकार के बीच वैचारिक असहमति हो सकती है, लेकिन उसे संवैधानिक टकराव का स्वरूप नहीं दिया जाना चाहिए. ऐसे मामलों में सत्तारूढ़ दलों से संयम व सहिष्णुता की अपेक्षा की जाती है.