पंकज चतुर्वेदी का ब्लॉग: बाल-श्रम से भी भयावह है बाल भिक्षावृत्ति
By पंकज चतुर्वेदी | Published: June 13, 2023 03:39 PM2023-06-13T15:39:09+5:302023-06-13T15:40:46+5:30
अनुमान है कि देश में कोई पचास लाख बच्चे हाथ फैलाए एक अकर्मण्य व श्रमहीन भारत की नींव रख रहे हैं. महानगरों में ‘झुग्गी संस्कृति’ से अनाचार-कदाचार के जो रक्तबीज प्रसवित हुए, उनमें अब अपने सगे ही बच्चों को भिक्षावृत्ति में धकेल रहे हैं.
दक्षिणी दिल्ली के आरके पुरम, भीकाजी कामा प्लेस सहित अधिकांश ट्रैफिक सिग्नल पर जैसे ही लाल बत्ती होती है, सात- आठ साल के कुछ बच्चे एक लोहे का छल्ला लेकर आ जाते हैं, एक बच्चा ढोलकी बजाता है और लड़की करतब दिखाती है- आधे मिनट बाद ही उनके हाथ फैल जाते हैं भीख के लिए. यह रोज का तमाशा है और बच्चों को तपती सड़क पर करतब की आड़ में भीख मांगता देख अब शायद ही किसी के दिल में कसक उठती हो.
चीथड़ों में लिपटे और नंगे पैर चार से आठ-दस साल की उम्र के ये बच्चे भोर होते ही सड़कों पर आ जाते हैं. शरीर को थोड़ा तोड़ने-मरोड़ने के बाद दुत्कार के साथ कुछ एक से पैसा मिल जाने की खुशी भले ही इन्हें होती हो, लेकिन यह खुशी इस देश के लिए कितनी महंगी पड़ेगी, इस पर गौर करने का कष्ट कोई भी शासकीय या स्वयंसेवी संगठन नहीं कर रहा है.
यूनिसेफ के अनुसार पिछले 6 सालों में देश में 7 करोड़ बाल श्रमिक बढ़ गए हैं. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन आईएलओ और यूनिसेफ की रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2016 में देशभर में करीब 9.40 करोड़ बाल श्रमिक थे जो अब बढ़कर 16 करोड़ हो गए हैं. अनुमान है कि देश में कोई पचास लाख बच्चे हाथ फैलाए एक अकर्मण्य व श्रमहीन भारत की नींव रख रहे हैं.
सत्तर के दशक में देश के विभिन्न हिस्सों में कुछ ऐसे गिरोहों का पर्दाफाश हुआ था, जो अच्छे-भले बच्चों का अपहरण कर उन्हें लोमहर्षक तरीके से विकलांग बना भीख मंगवाते थे. बच्चों की खरीद-फरोख्त भी यह दानव करते थे लेकिन नब्बे का दशक आते-आते इस समस्या का रंग-ढंग बदल गया है. ऐसे गिरोहों के अलावा महानगरों में ‘झुग्गी संस्कृति’ से अनाचार-कदाचार के जो रक्तबीज प्रसवित हुए, उनमें अब अपने सगे ही बच्चों को भिक्षावृत्ति में धकेल रहे हैं.